मेरे एक मित्र हैं. मेरे समवयस्क हैं…यानि बुज़ुर्ग…पर बहुत शौकीन. हमेशा चमकदार और ब्रांडेड ही पहनते हैं. जूते ही उनके पास 64 जोड़े हैं.( गिनकर बता रहा हूँ). पचीसों सूट हैं. ड्रेसिंग सेंस और रंगीन मिज़ाज़ के लिए जाने जाते हैं.
एक दिन कुछ ऐसा हो गया कि मेरी और उनकी कमीज बिल्कुल ही एक जैसी थी. सफेद आसमानी चेक शर्ट. उन्होंने सेम पिंच किया और पूछा – कहाँ से ली? और किसी एक ब्राण्ड का नाम लेकर पूछा कि वह है?
मैंने तो ब्राण्ड का नाम भी नहीं सुना था, तो सुनते ही भूल गया, पर उन्होंने पूछा था तो कोई बड़ा ब्राण्ड ही होगा. उन्होंने अपनी शर्ट का ब्राण्ड बताया (वो भी भूल गया) और कीमत भी – 110 पाउंड की थी. मैंने भी अपनी शर्ट की कीमत बता दी – 9 पाउंड की है, 50% डिस्काउंट पर, मार्क्स एंड स्पेंसर से.
फिर उन्होंने अपने शर्ट की खूबियाँ गिनाई – ‘डिटैचेबल कॉलर है, गोल्डेन कफलिंक्स… सिलाई देखो, कितनी महीन है’… हमें तो समझ में ना आया, पर यह खुशी ज़रूर हुई कि 101 पाउंड बच गए…
फैशन के अलग-अलग ग्रेड्स होते हैं. सबसे ऊपर डिज़ाइनर कपड़े होते हैं… यानि जिसे डिज़ाइनर लोग दो-चार पीस ही बनवाते हैं और सेलिब्रिटीज़ को, बिज़नेस टाइकून को बेचते हैं.
उसके नीचे है ब्रांडेड… जो उन डिज़ाइन के कपड़े बढ़िया क्वालिटी में बड़े-बड़े शो रूम में बिकते हैं. फिर आते हैं रेगुलर रेडीमेड… जो किसी अनजान से लेबल के साथ मॉल में बिकते हैं… जहाँ से हम जैसे लोग खरीदते हैं.. सेल पर.
फिर लोकल दर्जी उन्हीं डिज़ाइनों के कपड़े डिट्टो नकल मार के और सेम लेबल चिपका के अमर मार्केट में ढाई सौ में निकाल देते हैं.
और इन सबके बीच कुछ लोग खूब क्वालिटी कॉन्शियस होते हैं जो रेमंड के शो रूम से 2800 रुपये मीटर कपड़ा खरीद के शहर के टॉप टेलर से सिलवा कर पहनते हैं… इन्हें लेबल पहनना चीप लगता है… चार हज़ार की पैंट को ये जिस सादगी से पहनते हैं वो अपने आप में एक लेबल है.
राजनीतिक विचारधाराओं में आज भी सबसे बड़ा ब्राण्ड गाँधी ही है. इतिहास में तरह तरह के गाँधीवादी हुए हैं… सबसे पहले डिज़ाइनर गाँधीवादी. जो सीधा गांधीजी के साहचर्य में गाँधीवादी हुए… राजेन्द्र बाबू, कृपलानी जी, विनोबा भावे टाइप…
फिर अगली पीढ़ी ब्रांडेड गांधीवादियों की हुई. हमारे समय तक यह ब्राण्ड डिज़ाइनर से निकल के सामान्य रेडीमेड की दुकानों पर आ चुका था, और 50% डिस्काउंट पर भी यह माल निकल नहीं रहा था.
तो हमने भी एक पीस गाँधीवाद खरीद लिया जवानी के दिनों में. कई वर्षों तक ब्रांडेड गाँधीवादी रहा. खद्दर वद्दर पहना (वैसे आज भी पसंद है खद्दर). गाँधी को और गाँधी के बारे में खूब पढ़ा. दस साल तक गाँधी ही पढ़ता रहा.
होस्टल के कमरे से सैमन्था फॉक्स की तस्वीर हट कर गाँधी की लग गई. दिल्ली गया तो राजघाट पर घंटों बैठा रहा… गाँधी को महसूस करने के लिए. मने गाँधीवाद का कुर्ता जब तक चीकट होके, फट के तार-तार नहीं हो गया, उतरा नहीं मन से…
कहते हैं फैशन में एक नशा है. गाँधीवाद में भी बहुत नशा है. यह नैतिक श्रेष्ठता का नशा है. आपको लगता है, आप धरती से दो फुट ऊपर हैं. आपको सब पता है, सत्य आपके कान में फुसफुसाकर अपना पता बताता है. नैतिकता और सत्यवादिता का आपने ही ठेका ले रखा है…
और इस नशे में फायदा नुकसान क्या चीज है… मने कि जैसे दोस्त की बर्थडे पार्टी में मुफ्त की दारू पीक,र नशे में अच्छी शर्ट फाड़कर और चश्मा तुड़ा कर जैसा बेवक़ूफ़ बनता है आदमी… कुछ वैसा ही है गाँधीवाद का नशा.
जैसे आप राल्फ लॉरेन की लेबल वाली शर्ट पहन कर फुटानी झाड़ते है, कभी सोचा है रॉल्फ लॉरेन खुद क्या पहनता होगा? यह तो है सेकंड-थर्ड-फोर्थ हैंड गाँधीवाद का नशा. तो खुद गांधीजी को यह नशा कितना गहरा रहा होगा…. और इस नशे में देश चलाना कुछ वैसा ही नहीं है जैसे पूरी बोतल वोद्का पीकर सवारियों से भरी बस चलाना?… हमारी आज़ादी यूँ ही नशे में किया हुआ एक एक्सीडेंट है…
आजकल भी गाँधी बड़ा ब्राण्ड है… पर स्ट्रीट फैशन नहीं रहा. अभी गाँधी उन कुछ एलीट गुणवत्तावादियों की पसंद है जिन्हें गाँधी आज भी रेमंड का कपड़ा लगता है… वे खुद को ब्रांडेड गाँधीवादी नहीं कहते, बस थान से एक मीटर बीस सेंटीमीटर गाँधीवाद कटवा के बढ़िया दर्जी से अपने साइज़ की पैंट सिलवा के बड़ी ही सादगी से पहनते हैं…
ये अपना गाँधीवाद बिल्कुल सहेज के, साफ सुथरा, इस्त्री करके पहनते हैं. कभी कभी हिंदुत्व के कुर्ते पर यह गाँधीवादी पतलून भी बहुत जँचता है. गाँधीवाद फीका ज़रूर पड़ा है, पर बिल्कुल गया नहीं है मार्केट से… बेलबॉटम की तरह घूम-फिर कर फिर वापस आ जायेगा एक दिन.
वैसे फैशन का क्या है? मुझे तो डर है कि हिंदुत्व ही एक दिन फैशन ना हो जाये. अभी भी कुछ लोगों को देखता हूँ, खूब महंगे वाले हिंदुत्व का शौक होता है… इतना महंगा कि आदमी अफोर्ड ही ना कर सके. एकदम सात्विक सनातनी हिंदुत्व… घोर आध्यात्मिक एक्सक्लूसिव हिंदुत्व… इतना एक्सक्लूसिव कि आपको एकदम अलग खड़ा कर दे… बाकी सबसे काट ही दे… बचिए ब्रांडेड हिंदुत्व से भी…
अपनी बताऊँ? एक ब्रांडेड गाँधीवाद के बाद अब ब्रांडेड चीजों का शौक खत्म ही हो गया. अब तो जब से वह गाँधीवाद फट-चिथ के बदन से उतरा है तो अंदर जो चड्ढी निकली है वही है हिंदुत्व. पूरे देश का यही हाल है. जिस दिन यह हिंदुत्व उतर गया ना, नंगे हो जाएंगे… इज्जत नहीं बचेगी… जिन्होंने यह उतार फेंका है उन्हें देख रहे हैं ना… वे वामपंथी कहलाते हैं…एकदम नंगे…
Sir, You are very good writer. I am following you since last few months. BholeNath kripa banaye rakhe..