एक मित्र के कथन ने आज फिर मुझे कुछ लिखने पर मजबूर कर दिया. वे कहते हैं – “बनारस की महिलाओं को राम की पूजा अर्चना करने और आरती उतारने के एवज में फतवा मिलता है तो इसमें गलती उन महिलाओं की है ना कि मुल्लों की. जब यही सब ढोंग धतूरे करने थे तो हिंदू धर्म छोडने की जरूरत ही कहां थी? बैठे-बैठे घंटियारी हिलाते रहते काहे पहुंचे निराकार की शरण में ? यदि नये पंथ पर चले हो तो उसकी विचारधारा का सम्मान भी करो. दो नावों की सवारी खतरनाक होती है“.
मुझे लगता है ये मित्र ‘मास्टर साहब’ जिनकी सोहबतों में हैं, उन्होंने इनको बिलकुल अपने जैसा बना दिया है. ये भी अब उस मानसिकता में हैं जिनका ये मानना है कि मज़हब की तब्दीली का अर्थ अपने पूर्वजों और संस्कृति से खुद को पूर्णतया काट लेना है.
ये मित्र बनारस की जिन मुस्लिम महिलाओं की बात कर रहें हैं उनमें एक हैं नाज़नीन अंसारी. इस बहन को बहुत अच्छे से ये पता है कि मज़हब की तबदीली पुरखों की तबदीली नहीं होती और अगर होती है तो इससे बड़ा कुफ्र कोई नहीं है.
श्रीराम को आप अवतार या ईश्वर नहीं मानते, कोई बात नहीं पर वो हमारे और आपके पूर्वज तो हैं. तो अगर बहन नाज़नीन अपने पुरखे का सम्मान कर रही हैं तो उसको आप ढोंग-धतूरा कहेंगें? आपको हक़ है क्या कि आप नाज़नीन को अपने पुरखों के सम्मान से रोक दें?
हमारे पूर्वज हमारा अभिमान हैं, हमारी पहचान है. इस बात को इंडोनेशिया, ईरान, तुर्की आदि देशों ने साबित दिया है. कुछ सौ साल पहले इंडोनेशिया इस्लाम मत में दीक्षित हुआ पर वहां के लोगों ने खुद को अपने पूर्वज, परंपरा और संस्कृति से नहीं काटा.
प्रख्यात साहित्यकार विधानिवास मिश्र एक बार इंडोनेशिया की यात्रा पर थे. वहां इंडोनेशिया के कला विभाग के निदेशक सुदर्शन के साथ जब वो इंडोनेशिया के प्राचीन स्थलों का निरीक्षण कर रहे थे तो रास्ते में उन्होंने देखा कि कुछ संगतराश पत्थरों पर कुछ अक्षर उकेर रहें हैं.
विधानिवास मिश्र ने सुदर्शन से जानना चाहा कि इन पत्थरों पर क्या उकेरा जा रहा है तो सुदर्शन ने (जो इस्लाम मत के मानने वाले थे) ने बताया कि यहां के मुस्लिमों में रामायण और महाभारत के प्रति अतिशय भक्ति भावना है इसलिये कुछ लोग अपने कब्र पर लगाये जाने वाले पत्थर पर जावाई भाषा में महाभारत और रामायण की कोई पंक्ति खुदवातें हैं. यह सुनकर विधानिवास मिश्र स्तंभित रह गये कि एक ऐसे मुल्क में जहां 98 फीसदी से अधिक मुसलमान हैं पर फिर भी अपने पूर्वजों की विरासत के प्रति इतना सम्मान भाव है.
यह कहानी केवल इंडोनेशिया के आम जनों की नहीं है वरन् वहां की राज्यव्यवस्था और राजकीय प्रतीकों में भी पूर्वजों के प्रति सम्मान झलकता है. इंडोनेशिया के मिलिट्री इंटिलेजेंस का आधिकारिक शुभंकर वीर बजरंग बली हैं, वहां के एयरवेज़ का नाम गरुड़ है जो भगवान विष्णु का वाहन है.
तुर्की एक समय सारे इस्लामी मुल्कों पर हुकूमत करता था. मुस्तफा कमाल पाशा के आगमन के बाद उनमें भी राष्ट्रीय जागरण भाव आया. मुस्तफा कमाल पाशा और उनके साथियों ने कहा कि ‘हमारी उपासना पद्धति नहीं बदलेगी, हम कुरान, हदीस और हजरत मोहम्मद साहब के प्रति भी अपने श्रद्धा भाव को खत्म नहीं करेंगे, हमारा मज़हब इस्लाम रहेगा पर अपने राष्ट्रजीवन का निर्माण हम अपनी संस्कृति के आधार पर करेंगें’. तुर्की के मुसलमानों ने अपनी पूजा-पद्धति भले अरबों से ली पर इस्लाम के नाम पर उनकी भाषा, उनके पूर्वज, उनकी संस्कृति को अपनाने से इंकार कर दिया.
पूर्वजों के प्रति अभिमान का यह भाव मिस्र में भी आया जब मिस्र के राष्ट्रप्रेमी नवयुवकों ने फराओ राजाओं की उपलब्धियों पर गर्व करना शुरु किया और उनके बनाये पिरामिडों को मिश्र के राष्ट्रीय गौरव और प्रतीक से जोड़ना शुरु किया. उनकी इन कोशिशों ने कट्टरपंथियों को नाराज़ कर दिया और वो कहने लगे कि काफिर पूर्वजों का सम्मान करना कुफ्र है.
पर मिस्र के इन राष्ट्रभक्तों ने उनकी दलील को यह कहकर ठुकरा दिया कि जो हजरत मुहम्मद साहब से पहले पैदा हुआ वो कैसे काफिर हो सकता है? पूर्वजों को सम्मान देने और उनकी उपलब्धियों पर अभिमान करने का यह भाव मिस्र में आज भी है.
जागरण की इस लहर से ईरान भी अछूता नहीं रहा. वहां भी रजाशाह पहलवी के नेतृत्व में सुधारों का अभियान चला और वो ईरान के पूर्वजों और राष्ट्रपुरुषों को उनका उचित स्थान दिलवाने में जुट गये. ईरान के प्राचीन गौरव को पुनर्जीवित करने के क्रम में मजूसी राजाओं के वीरतापूर्ण अभियानों और उपलब्धियों को संग्रहित किया जाने लगा और रुस्तम, सोहराब, जमशेद आदि पूर्वजों और राष्ट्रनायकों के प्रति सम्मान भाव रखने की परंपरा शुरु हो गई. इतना ही नहीं अपने महान पूर्वजों के नाम पर उन्होंनें सड़कों, भवनों आदि के नाम रखने भी आरंभ कर दिये.
आश्चर्यजनक रुप से यह जागृति पाकिस्तान में भी आई. वहां भी पाणिनी की पांच हजारवीं जयंती मनाई गई. इन बातों पर चर्चायें आरंभ हुई कि झेलम के तट पर सिकंदर से लोहा लेने वाला राजा पोरस भी उन्हीं के पूर्वज हैं और मुहम्मद बिन कासिम से संघर्ष करने वाले राजा दाहिर की बहादुर बेटियां सूर्या और परिमाल भी उनकी भी उतनी ही अपनी है जितनी हिन्दुओं की.
जो अपने पूर्वज के जन्मस्थान के सम्मान के लिये खड़ा नहीं हो सकता और जो अपने पूर्वजों का एहतराम नहीं कर सकता, उससे बदनसीब कोई नहीं है. इसलिये समझाने कि जरूरत अब ‘नाज़नीन अंसारी’ को नहीं है, इन मित्रों को है. ये क्या चाहते हैं कि नाज़नीन सिर्फ इसलिये अपने पुरखों को भुला दे, अपने राष्ट्र-पुरखों का सम्मान न करे क्योंकि इसने दूसरा मज़हब ले लिया है?
अरे, आपसे भले तो महाराष्ट्र के पूर्व राज्यपाल मोहम्मद फज़ल साहब थे जिनको ये समझ थी कि पुरखा पूजन क्या होता है, उनके एहतराम के क्या मायने है. वो एक बार पिंडदान करने क्षिप्रा नदी के तट पर गये थे, पत्रकारों ने घेर लिया कि आप यहाँ कैसे? फज़ल ने कहा, पिंडदान करने आया हूँ. पत्रकारों ने पूछा, लेकिन आप तो मुसलमान हैं?
मोहम्मद फज़ल ने कहा, तो क्या हुआ? मैं हर वर्ष शबे-बरात के अवसर पर कब्रिस्तान जाता हूँ अपने उन पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना करने जो आज से दो सौ तीन सौ साल पहले तक के थे यानि मुसलमान थे और यहाँ आया हूँ अपने उन पूर्वजों की आत्मा की शांति की प्रार्थना करने जो उस दो-तीन सौ साल पहले से लेकर लाखों-करोड़ों वर्ष पहले तक थे यानि जो हिन्दू थे.
इन मित्रवर के लिये जो ‘घंटियारा’ हिलाना है वो मेरी नज़र में राष्ट्रवाद और अतीत गौरव का शंखनाद और पुनर्जागरण का घोष है जिसकी अगुआ बहन नाज़नीन अंसारी है.
और तो और मुझे तो हैरत इस बात पर है कि जिस शिक्षक पर समाज के जागरण का दायित्व होता है, जो वर्तमान पीढ़ी को सत्य और सही के साथ खड़े होने की शिक्षा देता है, वो फ़तवेबाज़ मौलवियों के समर्थन में लिख रहा है.
सौभाग्य से आज जब भारत में ऐसी जागृति बहन नाज़नीन और उन जैसी बहनों के जरिये आनी आरंभ हुई है तो दुर्भाग्य से ऐसे मित्रों को ही तकलीफ़ हो रही है.
चिंता की बात ये नहीं है कि बहन नाज़नीन के साथ उस ओर के कितने लोग हैं या नहीं हैं, बल्कि चिंता की बात ये है कि इस ओर ऐसे मास्टरों वाली मानसिकता के कितने लोग जीवित है.