“पति को मारकर ले जाना मंजरी को! ऐसे तो नहीं ले जाने दूँगी”, मंजरी की माँ ने कहा. ये भोजपुरी लोककथा की नायिका, मंजरी, मेहरा नाम के एक यादव सरदार की बेटी थी. ये लोककथा कहीं ना कहीं ये भी दर्शा देती है कि “उठा ले जाने” से बचाने के लिए विवाह कर देने की परंपरा कैसे शुरू हुई होगी. इस लोककथा के शुरू होने का समय करीब वही रहा होगा जो आज के महाराष्ट्र-गुजरात के कुछ इलाकों में यादव राजवंश के शासन का काल था. करीब इसी से थोड़ा पहले राजा सुहेलदेव राजभर ने गज़नवी के भांजे-भतीजे, “गाज़ी सलार मसूद” और उसकी फौज़ को खदेड़ कर गाजर-मूलियों की तरह काटा था.
कहानी कुछ यूँ है कि अगोरी नाम के राज्य में मोलागत नाम के राजा का शासन था. मेहरा नाम का सरदार शायद सत्ता को चुनौती देने लायक शक्तिशाली हो चला होगा, तो ऐसी ही किसी वजह से राजा मोलागत, मेहरा से जलते थे. उसे नीचा दिखाने के लिए उन्होंने मेहरा तो जुआ खेलने का न्योता भेजा. उम्मीद के मुताबिक राजा मोलागत जीत नहीं पाए, उल्टा अपना राज-पाट भी हार गए. निराश हारे हुए राजा जब अपने भूतपूर्व हो चुके राज्य से जा रहे थे, तो भेष बदले ब्रह्मा, उन पर तरस खा के, उनके पास आये. उन्होंने राजा को कुछ सिक्के दिए और कहा इनको दांव पर लगाओ तो जीतोगे.
राजा मोलागत वापस आये और मेहरा से फिर से एक बाजी खेली. इस बार मेहरा हारने लगे, हारते हारते वो अपनी गर्भवती पत्नी के पेट में पल रहे बच्चे को भी हार गए. राजा मोलागत को अपना राज्य वापस मिल गया था तो ज्यादा लालच करने की जरुरत नहीं रह गई थी. उन्होंने कहा कि अगर होने वाली संतान लड़का हुआ तो वो अस्तबल में काम करेगा, अगर लड़की हुई तो उसे रानी की सेवा में रखा जाएगा. हारा मेहरा लौट गया. समय बीतने पर जब संतान का जन्म हुआ तो वो एक अद्भुत सी लड़की थी. राजा के आदमी जब उसे लेने आये तो इस लड़की की माँ ने कहा, इसे ऐसे नहीं ले जा सकते ! इसके पति को युद्ध में जीतकर मार देना तो इसे ले जा कर नौकर रखना.
समाजशास्त्रियों की कथाओं को मानें तो उस काल में ऐसा होना नहीं चाहिए था. स्त्रियों को बोलने, अपनी राय रखने, या संपत्ति पर अधिकार जैसा कुछ नहीं जताना चाहिए. आश्चर्यजनक ये भी है कि इस लोककथा के काफी बाद के यानि मराठा काल तक भी जब मंदिरों का निर्माण देखें तो भूमि और बनाने-जीर्णोद्धार की आज्ञा रानी अहिल्याबाई होल्कर और कई अन्य रानियों की निकल आती है. पता नहीं क्यों पैत्रिक संपत्ति में स्त्रियों के हिस्से के लिए दायभाग और सम्बन्धियों में “दायाद” या “दियाद” जैसे शब्द भी मिल जाते हैं. हो सकता है समाजशास्त्री कल्पनाओं में पूरा सच ना बताया गया हो.
खैर तो लोककथा में आगे कुछ यूँ हुआ कि मेहरा की ये सातवीं संतान अनोखी थी. उसे अपने पूर्वजन्मों की याद थी और उसके आधार पर उसने अपनी माँ को बताया कि आप लोग बलिया नाम की जगह पर लोरिक को ढूंढें. मेहरा लोरिक के घर जाते हैं और शादी भी तय हो जाती है. लोककथा की अतिशयोक्ति जैसा ही लोरिक डेढ़ लाख बारातियों के साथ मंजरी से शादी के लिए आते हैं. राजा मोलागत को जब इसका पता चलता है तो उनकी सेना भी युद्ध के लिए सजती है. लड़ाई होती है मगर लोरिक जीत नहीं पा रहे थे. उनकी हार की संभावना देखकर मंजरी फिर से सलाह देती है.
वो बताती है कि अगोरी के किले के पास ही गोठानी गाँव है जहाँ भगवान शिव का मंदिर है. अगर लोरिक वहां शिव की उपासना करे तो उसे जीत का वर मिल सकता है. लोरिक ऐसा ही करता है और जीत जाता है. दोनों की शादी होती है और विदाई से पहले मंजरी कहती है कि कुछ ऐसा करो जिस से लोग लोरिक-मंजरी के प्रेम को सदियों याद रखें. कुछ कथाएँ कहती हैं कि मंजरी देखना चाहती थी कि आखिर तलवार का वो कैसा वार था जिसने राजा को हरा दिया? उसके पूछने पर लोरिक वहीँ पास की चट्टान पर तलवार चला देता है. कहते हैं पहले वार में चट्टान का एक टुकड़ा नीचे खाई में जा गिरा और मंजरी उतने से खुश नहीं हुई. दूसरी बार फिर से वार करने पर चट्टान आधी कटी.
मंजरी-लोरिक की कहानी के ये पत्थर जमाने से यहीं खड़े हैं. कहते हैं यहाँ से प्रेमी कभी मायूस नहीं लौटते. हर साल गोवर्धन पूजा पर उत्तरप्रदेश के सोनभद्र जिले में यहाँ पर मेला लगता है. रोबर्ट्सगंज नाम क्यों और कैसे, किसने रख दिया, ये हमें मालूम नहीं. जहाँ तक कला का प्रश्न है, कुछ लोगों को पिकासो जैसों की ना समझ में आती ऐबस्ट्रैक्ट पेंटिंग पसंद आती है, कुछ को माइकल एंजेलो जैसों की स्पष्ट कहानियों पर बनी तस्वीरें अच्छी लगती है. कला का ही मामला देखें तो आप ताजमहल पर अकाल के दौर में करोड़ों के खर्च में विद्रूपता भी देख सकते हैं. प्रेम की निशानी इस साधारण से आधे कटे चट्टान में सौन्दर्य भी दिख सकता है.