पिछले बीस-तीस सालों में सिर्फ लखनऊ के इर्द गिर्द जाने कितने प्रोफेशनल कोर्स वाले आलीशान संस्थान खुले. मेडिकल, डेण्टल, तकनीकी, प्रबंधन, पैरामेडिकल, मरचैन्ट नेवी, वैमानिकी सेवा, आदि इत्यादि. अरबों खरबों रुपये खपाए गए इन पर. किसने खपाए? किसने इन्हें खोलने की इजाजत दी?
इसी अवधि में जे ई, वी एल डब्लू और नायब तहसीलदार स्तर के जनसेवकों ने अपने लिए लखनऊ में आशियाने बनाए, भले ही उनकी तैनाती देवरिया, लखीमपुर, बदायुँ या बांदा जैसे जिलों में रही हो. ये सब अकारण नहीं हुआ. भ्रष्टाचार को सत्ताकेन्द्रों से समर्थन मिला तो नए घिनौने जनविरोधी नेक्सस अस्तित्व में आए.
अब अधिकांश संस्थान शादीघर, जलसाघर, बारातघर, होटल, रिसॉर्ट में बदल गए. इस बदलाव की परमीशन कैसे, कहाँ से मिली? संस्था खोलने के नाम पर इन्हें अनेक छूटें दी गई होंगी, अब उसका क्या औचित्य रहा? जाहिर है कि तमाम नियमों को ताक पर रखकर, साख वाले खास लोगों के हितों की खातिर आम जनों की अनदेखी करने का एक खुला माहौल रहा पिछले 25-30 सालों में.
इन संस्थाओं से हजारों हजार युवा डिप्लोमा-डिग्री लेकर बेरोजगारों में शामिल हो गए या टाई बांधकर आठ-दस हजार की पगार वाले सेल्स मैन या सिक्योरिटी मैन बन गए. आखिर पूंजीपति-नेता-अधिकारियों के विकट त्रिगुट द्वारा बनाये गए मॉल, मल्टीप्लेक्स और ग्लैमर अड्डों को कम पैसों में गिटपिट अँग्रेजीदाँ युवा नौकर भी तो चाहिए था! सुन्दर और स्मार्ट लड़के और लड़कियाँ!
इस गलत नीयत और नीति ने पढ़े-लिखे सस्ते गुलाम या हताश-निराश युवाओं की फौज खड़ी कर दी. और ये सब उदारीकरण के महत्वाकांक्षी दौर के बाद हुआ. किसके लिए था ये उदारीकरण? किसने विकास की दिशा को भटकाव में उलझा दिया?
बहुत से सवाल उत्तर की तलाश में मर खप भी गए. इसी दौर में आरक्षण का कार्ड भी वोट नीति के बगल में जा खड़ा हुआ. रास्ते जाम हुए, पटरियाँ उखड़ीं, वाहन जले, यानी देश पटरी से उतर गया.
अब शायद इतने सारे कचरे को कोई भी तंत्र, कानून या महत्वाकांक्षी नेतृत्व समाप्त करना भी चाहे तो उसे ‘सुविधा सम्पन्न भ्रष्ट समानान्तर व्यवस्था’ से टक्कर लेना पड़ेगी. पूंजीपति, जनसेवक और आम जनता भी शिथिल शासन प्रणाली के अभ्यस्त हो चुके. इन्हें अनुशासन की हर व्यवस्था उत्पीड़न दिखती है. सब एकजुट होकर अनुशासन की ही बधिया उखेड़ रहे हैं.
वर्तमान समय देश और देशवासियों के लिए मुश्किलों भरा है. एक तरफ विपक्ष अपनी साख बचाने की जुगत में हर तरह के हथकण्डे आजमा रहा है, तो दूसरी तरफ सत्ता में बने रहने के लिए सत्तापक्ष विकास के कठिनाई भरे रास्ते से हटकर राज्य प्रायोजित पर्वों, जलसों, घोषणाओं और उद्घाटन सम्बन्धी शिलालेखों की नई-नई इबारतें खोजने में व्यस्त हो चला है.
देश आगामी दो वर्षों तक घोर अनिश्चयता के दौर से गुजरेगा, ये तय है. हर कोई निम्नतम ओछे हथकण्डे ही अपनाएगा. जनता के विवेक और स्वतंत्र चेतनाशक्ति की निर्णायक परीक्षा ली जाएगी और इस आपाधापी में सत्यपाल, सत्तार मियाँ, सतवीर सिंह और सैमुएल, सबके सब वोटर्स की लाइन में बेबस खड़े सोचते ही रहेंगे कि इस बार भी वे हमेशा की तरह निकम्मों की भीड़ में से सबसे कम निकम्मे लीडरान को चुनने पर विवश हैं.