हमारा समाज छद्म व्यवहार की नींव पर टिका है. हम यदि वास्तविक व्यवहार ज्यों का त्यों करने लगेंगे तो इस समाज की बुनियाद हिल जाएगी और वो भरभराकर नीचे गिर पड़ेगा….. लेकिन हम असामाजिक होने के साथ ही आदिम हो जाएंगे, एकदम बीहड़ लेकिन प्रकृति के एकदम करीब… यानि अज्ञात के करीब अज्ञेय की खोज में …
लेकिन भौतिकता और छद्म व्यवहार ने हमारे संस्कारों में इतनी गहरी पैठ जमा दी है कि कुछ-सौ जन्म तो इन संस्कारों को धोकर साफ़ करने में ही निकल जाते हैं… कुछ ज्ञान प्राप्त करने में, कुछ उस ज्ञान को व्यवहार में लाकर ज्ञान की पुष्टि करने में…
कुछ ज्ञात को विज्ञान से जोड़कर समझने में, कुछ जो अज्ञात है उससे जोड़कर देखकर इस निष्कर्ष तक पहुँचने में कि अज्ञात का ज्ञात से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा… ज्ञात जब तक अज्ञात था तब तक ही उसकी महत्ता थी..
और कुछ बरस उस अज्ञेय को समझने की शर्त से मुक्त होकर केवल समर्पण में…. जिसे मैं कहती हूँ आस्था… यानी आँख बंद करके विश्वास….. हाँ मैं अन्धविश्वासी हूँ….. जहाँ से विश्वास भी लुप्त हो रहा है… बंद आँखों का अन्धकार भी….. एक ऐसी दुनिया में प्रवेश…. जहाँ ज्ञात, अज्ञात और अज्ञेय तीनों का एक ही रूप है… जहाँ मुझे छद्म व्यवहार नहीं करना पड़ता. मैं वही होती हूँ जो वास्तविक रूप से हूँ. प्रकृति के बहुत करीब… उसके प्रवेश के लिए सारे रास्ते खोल देती हूँ…
ऐसे ही किसी क्षण में एक अज्ञात शक्ति ने दिवाली की सुबह मेरे हाथ में ब्रश पकड़ा दिया. इस बार रंगोवाली रंगोली बनाने का न समय था न मन. तो आँगन में स्थापित शिवलिंग को जिस छोटे से मंदिर में रखा हुआ है, स्वामी ध्यान विनय ने दीपावली के दो दिन पहले उसकी पुताई की. ये उनका हर साल का नियम है. दीपावली पर मंदिर की पुताई उन्हें अपने हाथों से ही करना होती है. अब चूना बच गया तो मैंने सोचा इस बार इसी से रंगोली बनाई जाए.
शायद अल्पना कहते हैं इसे. अब ये अल्पना बनाने की प्रेरणा पाने के लिए मेरी आँखों के सामने उसके चित्र बार बार लाये गए. कभी किसी मित्र की फेसबुक वाल पर दिखे, कभी किसी के घर के आँगन में. तो मैंने दिवाली के एक दिन पहले शाम को चॉक से उसकी आउट लाइन बना दी ताकि सुबह बच्चों के उठने से पहले उसको बना के फुर्सत हो जाऊं. वरना बच्चों की उत्सुकता और बीच बीच में उनकी रंगोली बनाने की मांगों को नज़र अंदाज़ करके उनको त्यौहार के समय उदास न करना पड़े.
दिवाली की सुबह उस चॉक से बनी आउटलाइन पर सबसे पहले ब्रश से चूने की लाइन बनाई. अब पहली बार ही बना रही थी तो अन्दर क्या डिज़ाइन भरना है ये पता ही नहीं था. तो वृत और चौकोर रेखाओं में कहीं फूल बना दिए तो कहीं कुछ समझ नहीं आया तो सीधी लाइन ही खींच दी.
अब चूना सूखा नहीं था तो बहुत ही भद्दी लग रही थी ये अल्पना. तो क्या किया जाए… चूने में कहीं से लाल रंग मिला देती हूँ… खाली जगह दिख रही है वहां भर दूंगी. अब लाल रंग कहाँ से पाया जाए. फिर ख़याल आया बेस्ट आउट ऑफ़ वेस्ट की तर्ज़ पर घर में एक पुराना स्ट्रॉबेरी एसेंस पड़ा था जो अपने लाल चटक रंग के कारण काम नहीं आ रहा था. अपन ने तो वही उठाया और चूने में मिलाकर खाली जगह को भर दिया. लो जी तैयार हो गयी हमारी अल्पना.
बिना कल्पना के बनी ये अल्पना अब भी बहुत ही बुरी लग रही थी. चलो जो हो देखा जाएगा. आधी सूखी और आधी गीली अल्पना का ही फोटो खींचकर मैंने फेसबुक पर अपलोड कर दिया.
उसके बाद उस पर जब कमेन्ट आये तो मैं उसे पढ़कर बड़ी अचंभित हुई. कोई इसे तांत्रिक रंगोली कह रहा था, तो कोई माँ काली का आकृति स्वरूप, एक ने तो यह तक कह दिया तंत्र पूजा से पहले ऐसा ही चोक पूरा जाता है. मुझे लगा शायद अनजाने में डिज़ाइन ऐसी बन गयी है. मैंने सोचकर तो बनाई नहीं थी. जो समझ आया आड़ी तिरछी रेखाएं खींच दी थी. मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया.
फिर दिवाली वाली रात एक ऐसे फेसबुक मित्र का फोन आया, जिससे पहले केवल कुछ एक या दो बार फेसबुक पर औपचारिक बात हुई थी. मुझे लगा दीपावली की शुभकामनाएं देने के लिए औपचारिक फोन किया होगा. लेकिन हम जो सोचते हैं वैसा कहाँ होता है. मेरे लिए तो हर अगला क्षण किसी न किसी अचम्भे से भरा होता है. तो उस व्यक्ति ने सीधे सवाल दागा. मैंने सिर्फ यह पूछने के लिए फोन लगाया है कि आपने यह रंगोली कैसे बनाई? मतलब किसी चित्र को देखकर बनाई?
मैंने उन्हें उतने ही सामान्य अंदाज़ में जवाब दिया जैसे फेसबुक पर आए कमेन्ट को दिया था. लेकिन कहाँ जनाब वो तो कहने लगे आपको पता है आपने क्या बनाया है? तो मैंने फेसबुक पर आए कमेन्ट के बारे में बताया कि हाँ कुछ लोग इसे तंत्र पूजा या माँ काली से जोड़ कर देख रहे हैं.
तो आप नहीं देख पा रही कि आपने पूरा ब्रह्माण्ड इस रंगोली में खींच कर रख दिया है. बीच में जो गोला बना है वो जो चौकोर और गोल आकृतियों का जो संयोजन है वो… और आपको पता है 64 यागिनियों का महत्त्व?
अब इस रंगोली में कहाँ 64 योगिनियाँ? लेकिन जिस तरह से वह पूरी रंगोली का चित्रण कर रहा था मैं फोन पर बात करते करते ही आँगन में बने उस रंगोली के सामने खड़ी हो गयी. अब तक वो पूरी तरह सूखकर कुछ ठीक ठाक सी उभर कर आ गयी थी…
आप गिनिये उन लाइन्स को जो आपने चारों तरफ बनाई है… हर हिस्से में 16 लाइन्स आई हैं… और टोटल 64 लाइन्स बनी है. मैंने फोन हाथ में पकड़े पकड़े ही लाइन्स गिन डाली… 64 योगिनियां… उसके बाद जो कुछ भी संवाद हुआ वो कम से कम दुनियावी नहीं था. मैंने बस इतना कहा, अब मैं यकीन से कह सकती हूँ ये रंगोली मैंने नहीं बनाई, मुझसे बनवाई गयी है. मैंने सिर्फ हाथों में ब्रश पकड़ा है इसको बनानेवाले हाथ किसी अज्ञात शक्ति के हैं. और वो अज्ञात शक्ति खुद इस रंगोली के माध्यम से अपना रूप दर्शा चुकी है.
ये वही शक्ति है जो मुझे एक दिन जबलपुर के उस प्रसिद्ध तांत्रिक मंदिर बाजना मठ पहुंचा देती है जिसका नाम तक इन नौ वर्षों में जबलपुर में रहते हुए मैंने नहीं सुना था… और जब मैं वहां पहुँचती हूँ तो ऐसा लगता है जैसे मैं ऐसी ही किसी तंत्र (System) का हिस्सा हूँ अपनी ही भूमिका से अनजान … उस चौंसठ योगिनी मंदिर में पहुंचा देती है जिसका नाम सुनते ही मुझे लगने लगता है जैसे मैं इन 64 योगिनियों में से ही एक हूँ… और मेरा पूरा जीवन जैसे उथल पुथल हो जाता है. एक अद्भुत आध्यात्मिक यात्रा का प्रारंभ… उस तंत्र (system) में मेरी भूमिका के दर्शन और मेरे पुराने स्वरूप की मृत्यु… एक नए जीवन का जन्म… बकौल स्वामी ध्यान विनय – “विनाश और विध्वंस नए सृजन के लिए”… एक बार फिर मैं उस माँ काली के चरणों में अहोभाव से समर्पित थी, जिसने इस जीवन को पुनर्जन्म दिया है.
उसके बाद हमारी किसी विशेष व्यक्ति से मुलाक़ात से लेकर मोदीजी के प्रधानमंत्री बनने तक में सर्वोच्च सत्ता और ब्रह्माण्ड की योजना को लेकर जो बातचीत हुई वो लिख पाना मेरे लिए संभव नहीं.
लेकिन हाँ इस बीच उसने अपने किसी गुरु की बात बताई.. कमरू गुरु… कहने लगा, ये सैकड़ों साल से ज़िंदा है. इन्हें महादेव का ही रूप माना जाता है. मुझे लगा वो अपने किसी गुरु की बात बता रहा है. इतनी श्रृद्धा होगी इसलिए महादेव का रूप कह रहा है. हर शिष्य को अपने गुरु के प्रति इतनी ही अगाध श्रद्धा होती है.
फोन से अलविदा लेने के बाद उसने मुझे एक फोटो भेजी… मैं फोटो देखकर हंस दी… – “आ गए ये?”
उसने कहा – ये है कमरू गुरु…
अब मैं अचंभित…. क्या! ये तुम्हारे कमरू गुरु है?
उसने कहा – हाँ…
अरे यही तो मेरे भी परमगुरु है… महाअवतार बाबा… मैंने चहकते हुए कहा….
कहने लगा ये सैकड़ों वर्षों से ज़िंदा है… लोग अलग अलग नामों से जानते हैं…
मैंने कहा हाँ हज़ार डेढ़ हज़ार वर्ष उम्र मानी जाती है इनकी, और आज भी ये देह में ही है… जहाँ इनकी आवश्यकता होती है ये पहुँच जाते हैं…. अब सोचो किसने मिलवाया हमें?
जिन तरंगों ने हमें मिलवाया और जिस दुनिया की हम लोग बात कर रहे थे, यह संकेत स्पष्ट था कि अज्ञात शक्ति किसी न किसी रूप में समान तरंगों पर रह रहे लोगों का आपसी संपर्क करवाकर अपने ऊर्जा क्षेत्र को और अधिक विस्तृत और मजबूत करती रहती है.
लोग न जाने इस अज्ञात को किस किस नाम से बुलाते हैं.. कोइ ईश्वर कहता है, कोई ब्रह्म कहता है… लेकिन मैं इसे कहती हूँ इश्क़… और फिर एक ही गीत याद आता है मुझे…
जिनको जिनको भी मिलना है लिखा इश्क़ मिलवाएगा….
दूर दूर से ढूंढ ढूंढ के पास ले आएगा….
कहीं भी जाके छुपो इश्क़ वहीं आएगा…
कितना भी ना ना करो उठाके ले जाएगा…
मानो या ना मानो ये सारी ही दुनिया इसी के दम से चले …
लेकिन तुम्हें पता है इस इश्क़ ने एक रंगोली से ज़रिये किससे मिलवाया है…
तुम्हारे बड़े भाई के उस बिन माँ के आठ-दस साल के बच्चे से जिसका पहली बार जब तुम्हारी फेसबुक वाल पर फोटो देखा था तो ह्रदय में न जाने कैसी हूक उठी थी… कि हो न हो इस बच्चे से मेरा अवश्य कोई रिश्ता है और एक दिन मैं उससे ज़रूर मिलूंगी… कई दिनों तक उसका फोटो मेरे कम्प्युटर पर डेस्कटॉप वॉलपेपर के रूप में सजा रहा… फिर ये सोचकर हटा दिया कि पता नहीं मैं भी कहाँ कहाँ जाकर कनेक्शन जोड़ लेती हूँ… मेरे मन का वहम होगा…
लेकिन फिर तुम्हारा फोन आना… ये रंगोली… और तुमसे वार्तालाप…. ये सब तो बस एक माध्यम है हम दो बिछड़ों को मिलवाने का… और माँ काली की उस कृपा की याद दिलाने का जिसके आशीर्वाद का सौभाग्य मुझ पर सदा रहता है… जिसकी शक्ति पर यह ब्रह्माण्ड टिका है… और जो बहुत सूक्ष्म संकेत प्रेषित करती हैं. और जैसा कि मैं हमेशा कहती हूँ प्रकृति के सूक्ष्म संदेशों को समझने के लिए ह्रदय के द्वार हमेशा खुले रखना होते हैं…
कामना कृतज्ञता और जादू के अन्य भाग