प्राचीनकाल में भारतवर्ष में एक राजा हुआ था. अब राजा था तो उसकी रुचियाँ भी भिन्न थी- सामान्य मानव की बुद्धि से 10 सीढ़ी ऊपर.
एक दिन एक बहेलिया पिंजरे में उसके दरबार में आया. राजा ने पूछा – इस तोते को मेरे समक्ष क्यों लाये हो ?
बहेलिए ने कहा – महाराज की जय हो. महाराज, यह तोता वेद मंत्रों का उच्चारण करता है और यह एकादशी के दिन केवल गंगाजल पान करता है. यदि मेरे वचन असत्य हुए तब इस बहेलिए का बाहु-मूल भङ्ग कर दिया जाये महाराज ! बहेलिया यह कहकर करबद्ध हो गया. सभी सभासद हतप्रभ रह गए. किंतु तोता वेद पाठ करने में सफल रहा तो उस सभा में चहुँओर हर्षोउल्लास की सहस्त्र तरंगें नृत्य कर उठीं.
राजा ने उस बहेलिए को पुरुस्कार स्वरूप दस सहस्र स्वर्ण मुद्राएं प्रदान की.
अब राजा भीम भोरे उठकर तोता के मुख वेद मंत्रों का पाठ सुनकर बड़ा ही प्रसन्न होता था. वह तोता का बड़ा ध्यान रखता था. वह तोते को शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की एकादशी को अपने हाथों से गङ्गाजल का पान करवाता था. तोता प्रसन्न और राजा भी प्रसन्न.
शुक्ल पक्ष एकादशी की रात्रि के तृतीय पहर में जब राजा एकांत में स्वंय से अन्तर्संवाद कर रहा था तब उसे एक बोलता हुआ कृष्ण काग दिख पड़ा.
राजा कुछ बोलने ही वाला था कि काग ने कहा – महाराज, यदि आप एकादशी के दिन केवल गङ्गाजल पिलाते हैं तो यह तोता आपको एक पक्ष तक वेद मंत्रों का पाठ श्रवण करवाता है.. यदि एक मास तक इसे केवल गङ्गाजल पान करवाया जाये तो यह तो आपको स्वर्गलोक के समाचारों से अवगत करवाएगा.
राजा ने कहा – ऐसा ?
काग ने कहा – जब यह तोता वेद मंत्र का पाठ कर सकता और मैं मानव की भाषा में आपसे संवाद कर सकता हूँ तब मेरी वाणी असत्य कैसे ?
राजा ने कहा -अस्तु. (राजा के यह कहते ही काग विलुप्त हो गया)
अब राजा नित दिन तोता को केवल गङ्गाजल पान करवाता रहा. क्षुधाग्नि से आहत होकर पांचवे दिन ही प्राण त्याग दिए.
राजा ने राजशिल्पी को आदेश देकर उसकी स्मृति में एक उत्तम श्रेणी के हीरे का तोता और उसका पिंजरा गढ़वा दिया. अब इस दुर्लभ कृति को राजकीय संग्रहालय में विशिष्ट स्थान मिल गया था. प्रजा हीरक-तोते के दर्शन हेतु आती और हीरे के तोते पर गङ्गाजल ढार देती. वह हीरे का तोता था जो केवल गङ्गाजल पान करके ही सन्तुष्ट था, यदि जीवित तोता होता तब उसकी आयु मात्र पांच दिनों की होती.