प्रकृति के कुछ रहस्य सात तालों में बंद हैं, कुछ रहस्यों के दरवाजों पर ताले ही नहीं है, और कुछ रहस्यों पर केवल पर्दा पड़ा हुआ है. लेकिन इन सब तालों की चाबियाँ, उन रहस्यों तक पहुँचने का रास्ता और परदे को उठा देने का ज्ञान और हौसला सबकुछ आपकी अपनी आत्मा में संचित है.
शरीर विज्ञान की खोज के अनुसार हमारी सोच, संरचना, ज्ञान और संस्कार सब कुछ हमारे जींस में संकलित है, जो माता-पिता से उनके बच्चों में स्थानांतरित होते हैं. ये चीज़ें केवल एक शरीर से दूसरे शरीर के जन्म के दौरान ही स्थानांतरित नहीं होती बल्कि किसी एक आत्मा के एक शरीर छोड़कर दूसरे शरीर में जन्म लेते हुए भी साथ आ जाती है.
Past life regression theory से जो लोग गुज़रे हैं, उन्होंने साक्षात प्रमाण हासिल किए हैं. लेकिन ये साक्षात प्रमाण उनके अनुभवों की पुष्टि करते हैं इसलिए वह बहुत निजी होते हैं. वो किसी और को इसका स्थूल प्रमाण देकर समझा नहीं सकते इसलिए अधिकतर लोग इसे मनोविज्ञान या अंधविश्वास से जोड़ लेते हैं.
कुंवर शक्तिनाथ जब मुझसे पहली बार फेसबुक से जुड़े थे उन्होंने मुझे देखते ही कह दिया था- माँ मिल ही गयी आखिर तू मुझे. इसके बाद भी वो ऐसी ही कुछ बातें मुझसे कहते रहे लेकिन मैं समझ नहीं पाती थी कि क्यों मुझे वो ऐसे संबोधित करते हैं, जैसे कोई शिशु अपनी माँ को करता है. लेकिन 2015 में मेरी शिमला यात्रा का जब उन्हें पता चला तो सिर्फ मुझसे मिलने के लिए वो शिमला तक आए और अपने अनुभव बताए. अपने सपनों और खुली आँखों से दिखने वाले “visions” के बारे में बताया. मैं बहुत अचंभित थी क्योंकि उनमें से मेरे बारे में कुछ बातें हूबहू वही थीं जो स्वामी ध्यान विनय ने मुझे अपने पूर्वजन्म की बातें बताते हुए कही थी.
लेकिन हम तीनों ही इसका कोई प्रमाण नहीं दे सकते. ये हमारे निजी अनुभव हैं जिसके लिए हम ऊपरवाले के प्रति कृतज्ञ होते हैं जो हमें ये सन्देश दे रहा है कि जीवन यात्रा केवल एक शरीर तक सीमित नहीं होती वो जन्मों की यात्रा है और हर जन्म में अपनी आत्मोन्नति का प्रयास जारी रखना है.
बात शिमला यात्रा की निकली है, तो बता दूं मुझे कविता पाठ के लिए आयोजक द्वारा आमंत्रिक किया गया था. दैहिक रूप से देखा जाए तो वह दो दिन की यात्रा बड़ी कष्टप्रद थी. दिल्ली से शिमला की ओर जाते हुए बस जैसे जैसे ऊंचाई पर बढ़ती गयी, मेरी तबियत बिगड़ने लगी. मुझे पता नहीं क्यों ऊंचाई पर जाकर बहुत अजीब सा भाव आने लगता है. हमारे दो मंजिला घर की सबसे ऊपरवाली छत से भी झांककर मैं नीचे नहीं देख सकती. बहुत अधिक ऊंचाई से नीचे देखती हूँ तो पता नहीं क्यों लगता है बस यहाँ से कूद जाऊं.
मुझे अक्सर … लगभग हफ्ते में एक या दो बार ऐसा सपना अवश्य आता है कि मैं किसी ऊंची सीढी या छत या बालकनी या ऊंचे पहाड़ पर फंस गयी हूँ, और मुझे वहां से नीचे उतरने में बहुत भय लग रहा है. बाकी सबलोग बहुत आसानी से उतर पा रहे हैं लेकिन मैं हिम्मत नहीं जुटा पा रही. कभी कभी यह भय इतना अधिक होता है कि सपने में रोते हुए जागती हूँ तो सच में रो रही होती हूँ. जानकारों का कहना है पिछले किसी जन्म में ऊंचाई पर कोई दुर्घटना मेरे साथ हुई है जिसका भय मेरी चेतना में अंकित हो गया है. खैर इसके लिए भी स्वामी ध्यान विनय ने कुछ ध्यान की विधियाँ बताई हैं लेकिन अभी तक उसे मैंने शुरू नहीं किया है.
तो दिल्ली से शिमला के रात भर के बस के सफर में सुबह तक उल्टियां करते हुए पहुँची थी और पहुंचकर पता चला था मेरे ठहरने के लिए कोई त्वरित व्यवस्था नहीं है. जिस होटल में इंतज़ाम था वो 11 बजे के बाद ही check -in करने देते हैं और मैं पहुँच गयी थी सुबह 6 बजे.
जिस जगह बस से उतर कर डेरा जमाया वो ऊंचाई पर था जहां तक कोई वाहन नहीं जाता, अपना 20 किलो का बैग घसीटते हुए ऊपर तक पहुँची, रास्ते में बनी बेंच पर बैठ गयी, आयोजक को फोन लगाया तो उन्होंने बड़ी सरलता से कह दिया, अभी आसपास किसी होटल में रूम ले लीजिये, मैं 11 बजे किसी को लेने भिजवा दूंगा. शारीरिक अक्षमता, रातभर की थकान और शरीर की सामान्य आवश्यकताओं से निवृत्ति की पुकार लिए भी फोन पर इत्मीनान से बात कर रही थी. चूंकि वहां पर सड़कें बहुत संकरी होती है, इस पार खड़ा आदमी उस पार खड़े आदमी की बात आसानी से सुन सकता है. तो मेरी आवाज़ सामने होटल के चौकीदार के कानों में पहुँची तो वो वहीं से हँसते हुए बोला, सीज़न में आपको किसी होटल में कमरा नहीं मिलेगा, और यहाँ आसपास होटल है उनका कुछ घंटों का किराया भी पांच से छ: हज़ार रुपये हैं.
मैं उसके इस जवाब पर भी बिलकुल विचलित नहीं थी. बैठकर प्रकृति से बतियाती रही यहाँ तक पहुँचाया है तो आगे की योजना भी तुमने तय की ही होगी. तभी वो चौकीदार मेरे पास आकर बोला, मैं एक परिचित होटल वाले से बात करता हूँ लेकिन थोड़ा दूर है वो.
मानवीय स्वभाव है इसलिए थोड़ी शंका भी हुई भला ये आदमी मुझे क्यों मदद कर रहा है. अनजाना शहर, पहली बार आई थी, न किसी को जानती थी न पहचानती थी, सिर्फ एक फोन नम्बर था वो भी आयोजक का जिसे कभी मिली नहीं. लेकिन एक विश्वास प्रकृति के प्रति और स्वामी ध्यान विनय की निश्चिन्तता के प्रति कभी डगमगाया नहीं, जो मुझे हमेशा अकेले यात्रा करने के लिए प्रेरित करते हैं.
सो घंटे भर उस बेंच पर बैठे रहने के बाद और उस चौकीदार के तीन चार बार फोन लगाने के बाद एक लड़का आया. चौकीदार ने उसे मेरा बैग उठाने को कहा और मुझसे बोला आप इनके साथ चले जाइए, तीन घंटे के 1000 रुपये देना होंगे, आपको कमरा मिल जाएगा.
मैंने उस चौकीदार को कृतज्ञता पूर्वक धन्यवाद दिया और उस लड़के के साथ बीस-पच्चीस मिनट पैदल चलते हुए होटल तक पहुँची. वहां पता चला कमरा अभी खाली नहीं हुआ है, 10-15 मिनट में खाली हो जाएगा. तब तक आप रिसेप्शन पर बैठिये. उन्होंने चाय पिलाई, रिसेप्शन पर बैठकर वहां लगे टीवी पर पंजाबी गाने देखती रही फिर करीब 40-45 मिनट बाद कमरा खाली हुआ.
कमरे में पहुंचकर आयोजक को फोन लगाया तो जवाब मिला आप तक कोई वाहन तो आ नहीं सकता, मैं यहाँ से किसी को भेजूं इससे तो आप ही वहां से कुली करके जहां कार्यक्रम आयोजित किया है वहां तक पहुँच जाइए. 11 बजे के करीब तैयार होकर रिसेप्शन पर पहुँची उनहोंने एक कुली का इंतज़ाम किया फिर करीब आधे पौन घंटे की चढ़ाई के बाद मैं गतव्य तक पहुँच पाई. वहीं पर मिले मुझे कुंवर शक्तिनाथ, जो उस दिन पूरे समय मेरे बैग को संभाले रहे, मेरे खाने पीने का इंतज़ाम किया और कार्यक्रम के बाद दोनों दिन जब तक मैं सुरक्षित होटल जाने वाली कार तक नहीं पहुँच गयी तब तक मेरे साथ रहे. एक पुत्र की ही भांति वो पूरे समय मेरा ख़याल रखते रहे और कहते रहे माँ तुम जानती हो ना मुझसे मिलवाने के लिए ही आपकी शिमला यात्रा तय हुई और आपने मेरे लिए ही इतना कष्ट उठाया, तो मुझे तो आपकी मदद करना ही है.
सच यात्राएं हमें कितना कुछ सिखा जाती हैं, क्योंकि जिस कार्यक्रम में मुझे कविता पाठ के लिए बुलाया गया था, समयाभाव के चलते उसके लिए मुझे मात्र पांच मिनट मिले, लेकिन जो अनुभव मिले वो वर्णन करते हुए भी मुझे अवर्णनीय लगते हैं.
शिमला से लौटने के बाद एक दिन शक्तिनाथ का सन्देश आया, माँ आप मुझे कोई नाम दे दो. मैं उलझन में थी, मैं कैसे कोई नाम दे दूं और क्या नाम दे दूं…
फिर कई दिनों बाद सुबह-सुबह आधी जागी, आधी सोई अवस्था में मैंने अपनी ही आवाज़ सुनी – आज से तुम्हारा नाम संगम हुआ….. इसे मैं सपना नहीं कहूंगी क्योंकि नींद में होते हुए भी मुझे ये पूरा अहसास था कि मैं जाग रही हूँ… उस दिन शक्तिनाथ को मैंने सन्देश लिखा…. “आज से तुम्हारा नाम संगम हुआ.”
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