“चार रोज से घर में किसी ने कुछ भी नहीं खाया था. धनिक लोगों की मवेशी चराने से कुछ खाना मिल जाता था, लेकिन दुर्गा पूजा की वजह से मवेशी चराने का काम भी नहीं मिल पा रहा था. पहले संतोषी को स्कूल में मिड-डे मील से एक समय का खाना मिल जाता था. लेकिन पूजा की छुट्टी के कारण वह भी नहीं नसीब था.
28 सितंबर की रात को संतोषी हमसे भात मांगने लगी. वह कह रही थी कि आंख के सामने अंधेरा छा रहा है. वह कांप रही थी. संतोषी बोली कि भात नहीं है, वह तो माड़ ही दे दो. मगर गाँव में कौन भात देता, मांड भी कौन देता. उसकी हालत खराब हो रही थी, फिर हम उसको गाँव के वैद्य के पास ले गये. वैद्य ने कहा कि भूख से पेट तन गया है. उसे भात खिला दो. चाय पिला दो. लेकिन संतोषी के घर में चावल नहीं था. इस्तेमाल किया हुआ चायपत्ती बचा था, वही उबाल कर पिलाये. लेकिन उसको बचा नहीं पाये. रात साढ़े दस बजे उसने दम तोड़ दिया. मरते समय भी वह भात-भात कह रही थी.”
यह बयान सिमडेगा जिले के कारीमाटी गांव की 11 वर्षीय संतोषी की मां, कइली देवी ने भोजन का अधिकार कमिटी से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं के समूह के सामने दिया, जिसकी रिपोर्ट सबरंग इंडिया के पोर्टल पर 14 अक्तूबर को प्रकाशित हुई. इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद झारखंड की राजनीति में भूचाल आया हुआ है.
पिछले दो दिनों से राष्ट्रीय मीडिया में छाये 11 वर्षीय संतोषी के मुद्दे में मीडिया से लेकर सरकार तक और सोशल मीडिया के हर पोस्ट में एक ही बात कही जा रही है कि आधार नहीं था, इसलिए राशन कार्ड कैंसल हो गया, इसलिए भात-भात करती संतोषी मर गयी. मगर हैरत-अंगेज़ रूप से सच्चाई कुछ और है. सच्चाई यह है कि संतोषी की मां कइली (कोयली नहीं) देवी के पास आधार कार्ड तो था, राशन कार्ड ही नहीं था. उसने भोजन का अधिकार कमिटी के सदस्यों के सामने खुद कहा था कि वह अपने आधार की कॉपी लेकर डीलर के पास भी गयी थी और 21 अगस्त को डीसी के जनता दरबार में भी गयी थी.
कमिटी की सदस्य और सामाजिक कार्यकर्ता तारामणि साहू, जो संभवतः आजसू की प्रवक्ता भी हैं, ने अपनी रिपोर्ट में खुद स्वीकार किया है कि 21 अगस्त को जब वे कइली देवी के साथ डीसी के जनता दरबार में गयी थी, तब उसके पास आधार कार्ड था. तारामणि साहू, आकाश रंजन और धीरज कुमार द्वारा संयुक्त रूप से तैयार की गयी जांच रिपोर्ट 14 अक्तूबर को सबरंग इंडिया पोर्टल पर प्रकाशित हुई, जिसका लिंक यह है- https://hindi.sabrangindia.in/article/11-year-girl-died-by-hunger-jharkhand
जांच कमिटी की रिपोर्ट के मुताबिक कइली देवी ने पूरे मामले का जिक्र करते हुए उनसे कहा कि जुलाई महीने में उसके परिवार को राशन मिलना बंद हो गया था. तारामणि साहू की मदद से कइली देवी 21 अगस्त, 2017 को डीसी के जनता दरबार में पहुंची और मामले की शिकायत की. शिकायत के बाद परिवार को ग्राम अन्न कोष से 5 किलो चावल दिया गया. अधिकारियों का कहना है कि इसके बाद पंचायत स्वय सेवक द्वारा संतोषी कुमारी के परिवार का आधार कार्ड बनवाया गया.
हालांकि कइली देवी और जांच समिति से जुड़ी सामाजिक कार्यकर्ता तारामणि साहू का कहना है कि कइली देवी के पास पहले से ही आधार कार्ड था, उसने राशन बंद होने पर डीलर को आधार कार्ड की फोटो कॉपी जमा की थी. 21 अगस्त को जब उपायुक्त के जनता दरबार में शिकायत की गयी थी, उस वक्त भी परिवार का आधार कार्ड बना हुआ था. उन्हें ऑपरेटर द्वारा बतलाया गया कि परिवार का आधार सीडिंग नहीं हुआ है. 23 अगस्त को उन्हें यह बताया गया कि राशन कार्ड रद्द हो गया है.
इस मामले में संबंधित डीलर का बयान बिल्कुल अलग है, डीलर भोला साहू कहता है कि कइली देवी के परिवार के नाम से कोई राशन कार्ड उसके पास दर्ज नहीं था. अब तक वह किसी और राशन संख्या के नाम पर गलती से उसे राशन देता रहा था. मगर जब प्रक्रिया ऑनलाइन हुई तो उसे अपनी गलती का पता लग गया और उसने राशन बंद कर दिया. वहीं कारीमाटी स्कूल के शिक्षक जिनकी भूमिका राशन कार्ड बनवाने में थी, ने कहा कि कइली देवी का राशन कार्ड छप कर नहीं आया था.
दिलचस्प है राष्ट्रीय मीडिया में प्रकाशित इस मुद्दे से संबंधित ज्यादातर रिपोर्ट तारामणि साहू के बयान के आधार पर ही लिखी गयी है, मगर हर रिपोर्ट में यह महत्वपूर्ण पहलू गायब है. वजह साफ है कि इस पूरी स्टोरी का इस्तेमाल हर कोई आधार बैशिंग के लिए करना चाहता है और लोग जानबूझकर इस मसले से आंखें चुरा रहे हैं. मगर भोजन का अधिकार का मसला कोई आधार बैशिंश से कमजोर मसला नहीं है.
साल 2013 में बने भोजन का अधिकार कानून को लागू करने के लिए पिछले तीन-चार सालों में तकनीकी काम तो खूब हुए. जैसे नया राशन कार्ड बना, उपभोक्ताओं को ऑनलाइन किया गया और अब उन्हें आधार से जोड़ा जा रहा है. इससे पीडीएस सिस्टम के भ्रष्टाचार में भी कमी आयी, मगर दुर्भाग्यवश इसका सबसे बड़ा कुप्रभाव यह हुआ कि जेनुइन लाभुक इस व्यवस्था से छंटते गये. क्योंकि वे इतने जागरूक नहीं थे कि बदलाव के हर मौके पर अपना नाम जुड़वाने की सजगता दिखा सकें.
यही वजह है कि पिछले तीन-चार सालों में मैं जिस-जिस गांव में गया वहां वंचित समूहों ने शिकायत की कि उनका नाम पीडीएस सिस्टम से छंट गया है. सरकारों ने इस मामले में रत्ती भर संवेदनशीलता नहीं दिखायी. आज संतोषी की मौत की वजह इसी संवेदनशीलता की कमी है. आधार लिंकिंग नहीं.
पुष्यमित्र की ब्लॉग पोस्ट से साभार