मानस गान से रोकने वाले कॉमरेड में न तब थी, न आज है नमाज़ पर सवाल उठाने की हिम्मत

2004 की सर्दियों में SFI के संसद मार्च में जाने का मौका मिला था. हुमायूँ के किले के पास के एक कैंप में दो दिन और दो रातें गुजारनी थी. बिहार, केरल और कर्नाटक के कॉमरेडों के रहने के लिये एक बड़ा हॉल आरक्षित था. जितने भी कॉमरेड वहां बिहार से उपस्थित थे उनमें शायद दस प्रतिशत ही ऐसे रहे होंगे जिन्हें SFI का फुलफॉर्म भी पता रहा होगा.

मतलब सब मुफ्त में दिल्ली घूमने आ गये थे तो जब शाम हुई तो सारे बिहारी (उस तीन दिन के कॉमरेड) आपस में इधर-उधर की बातें करने लगे. किसी ने आकर कहा कि बाहर बड़ी अच्छी किसी ने आग सुलगाई है तो ठिठुरन को कम करने हम भी आग के पास चले गये.

हमारे साथ गया एक उत्साही लड़का रामचरित मानस की चौपाई गाने लगा तभी वहां एक अर्ध-विक्षिप्त सा युवक जो दिल्ली यूनिवर्सिटी से SFI का कोई बड़ा नेता था भागता हुआ आया और रामचरितमानस गाने वाले पर जाहिल, सांप्रदायिक, बेवकूफ जैसे शब्दों के साथ बुरी तरह चीखने लगा. फिर कहा, “तुम लोग को शर्म नहीं आती है उधर देखो उन कॉमरेडों को जो क्यूबा की क्रांति के किस्से सुना रहा हैं, वो केरल वाले चे-गुएरा के तराने गा रहे हैं, उधर वो लडकियाँ ‘दास कैपिटल’ पर बात कर रही हैं और तुमलोग संघी की तरह रामचरितमानस गा रहे हो.”

वो चीख-चिल्ला कर चला गया तो मैं केरल के कामरेडों के खेमे में टहलने चला गया. वहां देखा कि हल्की कतरी हुई दाढ़ी और तुर्की टोपी पहने रेहान नाम का एक लड़का ‘अयोध्या का सच’ नाम की किताब हाथ में लिये हर संभव साबित करने की कोशिश कर रहा था कि अयोध्या के उस विवादित स्थल पर कभी कोई मंदिर थी ही नहीं और 2002 में एक ‘संघ परिवार’ के ‘प्रलय रथ’ पर बैठा एक ‘राक्षस’ कैसे कत्लेआम मचा रहा था.

अगले दिन दोपहर में मैंने उसी कॉमरेड रेहान को कैम्प में नमाज़ पढ़ते भी देखा. दैनिक उपयोग का कुछ सामान खरीदने के लिये उस कॉमरेड रेहान ने कैम्प के बाहर के कुछ किराना दुकानों को छोड़कर निज़ामुद्दीन स्टेशन के आसपास के अपने इलाके के दुकानों में जाना पसंद किया. रात को हम लंगर खाने गुरुद्वारा दमदमा साहिब जाते थे पर उसे शायद करीम के ढ़ाबे की रोटी ज्यादा पसंद आती थीं.

ये घटना सिर्फ ये बताने के लिखा है कि ‘कॉमरेड रेहान’ वामपंथी खेमे में रहते हुए भी अपनी तुर्की टोपी पहनना नहीं भूलता, अपने कॉमरेड साथियों से वो ईद की मुबारकबाद भी कबूलता है और उसे धर्म को अफीम कहने वालों की ओर से इफ्तार की दावत भी दी जाती है, सामान लेने के लिये उसे अपने पास के हिन्दू दुकानदार नज़र नहीं आते, उसे वामपंथ के बैठकों से जुमे की नमाज़ के लिये छुट्टी भी मिल जाती है और मीटिंग स्थल पर नमाज़ पढ़ने के लिये अलग से जगह भी दी जाती है. इंशाअल्लाह-इंशाअल्लाह के नारे गुंजाने से भी उसे नहीं रोका जाता, माँ दुर्गा को गाली देने और महिषासुर उत्सव में बड़े आनंद से उसे सहभागी बनाया जाता है और ‘बीफ फेस्टिवल’ तो खैर उसका फेवरिट है ही.

उस दिन 12 साल पहले SFI के शिविर में कोई ‘रेहान’ था, आज सिम्मी के संस्थापक का बेटा, इंशाअल्लाह का नारा गुंजाने वाला और इफ्तार सजाने वाला ‘उमर खालिद’ है. तब रामचरितमानस गाने वाले को दुत्कारने वाला हिन्दू कुल में जन्मा दिल्ली यूनिवर्सिटी वाला वो कामरेड था, आज ‘कन्हैया कुमार’ है. यानि उस खेमे में सब वैसा ही है जैसा 2004 की सर्दियों में हमने देखा था, कुछ भी नहीं बदला. रामचरितमानस गाने वाले को दुत्कारने वाले में तब भी उतनी हिम्मत नहीं थी कि वो रेहान से मीटिंग छोड़ नमाज़ पढ़ने जाने पर सवाल पूछ सके, आज भी नहीं है.

तस्लीमा नसरीन के कालजयी उपन्यास ‘लज्जा’ के नायक कॉमरेड सुरंजन दत्त को जब वामपंथ के इस दोहरेपन और अपनी सारी जिन्दगी की मूढ़ता समझ आई थी तब संयोग से बहुत देर नहीं हुई थी, बस उसकी बहन का रेप कर नाले में फेंक दिया गया था.

‘दास-कैपिटल’ और मैक्सिक गोर्की की ‘माँ’ को जलाने के बाद सुरंजन दत्त के पास अपने ‘सोनार बांग्लादेश’ को छोड़कर अपने पैरलाइज़्ड बाप के साथ कम से कम ‘इंडिया’ आने का तो विकल्प खुला था, पर सवाल है कि कन्हैया कुमार, अनिर्बान और दोपदी जैसों के पास कहाँ जाने का विकल्प है?

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