देवा मेला की आख़िरी शाम! ऐसी भीड़ आई कि कार्यक्रम के बाद हम लोग डेढ़ घंटे बाद ही बाहर निकल सके. मेरा यही अनुभव है जो आपसे आज कहती हूँ, आगे की कुर्सियों पर तो माननीय और आभिजात्य वर्ग बैठ जाता है, लेकिन असली श्रोता तो घंटो पहले से आकर, दूर बहुत दूर बैठ जाता है. सीट नहीं मिलती, खड़ा रहता है. बैराकेडिंग के पार, मंच से बहुत दूर….. सिर्फ एक झलक के लिए, या शायद सिर्फ सुनने के लिए घनघोर गर्मी और अव्यवस्था में बैठा रहता है. यही श्रोता वर्ग रौनक़ होते हैं आयोजन की! असली श्रोता!
मैं प्रायः मंच से उन्हें देख सोचा करती हूं, कि यही श्रोता है जो कलाकार को कलाकार बनाते हैं, और त्रासदी, ये, कि ये कभी मंच के पास नहीं पहुँच पाते.
मुझे यह दूरी कभी अच्छी नहीं लगी, इसलिए, मैं उस दूरी को पाटते हुए श्रोताओं तक आती हूँ, बार बार जाती हूँ, अंतिम श्रोता के पास जाकर संवाद करती हूं. कई लोग इस बात की आलोचना कर सकते हैं, विशेष रूप से शुद्धतावादी, लेकिन यह लोकसंस्कृति है, लोक से ही न जुड़ पाई तो काहे की लोककलाकार!!

कल देवा शरीफ की भीड़, “देवा” रे”देवा”
मैं पीछे जाकर कुर्सी पर ही चढ गई, उनके लिए गाया, हाल पूछा, चुटकी ली, सेल्फियां भी, खिंचाई, और वापस मंच पर. ऐसे में हमेशा आयोजक घबरा जाते हैं, सुरक्षा को लेकर सचेत हो जाते हैं. लेकिन मैं उन्हें आश्वस्त ही करती हूं, आजतक भीड़ में मुझे कभी कोई समस्या नहीं आई. जनता बहुत समझदार होती है, भीड़ में भी अनुशासन का एक चरित्र होता है जो कभी उद्दंड नहीं होता.
लोकसंगीत इन्हीं का है, इनके लिए ही गाती हूँ, उस श्रोतावर्ग के लिए जो तकलीफ़ सहकर भी खड़ा रहता है, गायन सुनकर ही जाता है. इनके जज़्बे के आगे सब न्योछावर!
ये हैं, तो ही हम हैं!
– साभार लोकगायिका पद्मश्री मालिनी अवस्थी
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