किसी इंडस्ट्री को कहीं बिठाने के लिए क्या जरूरी शर्तें होती हैं? इनकी एक सर्वेयर टीम होती है जो वहाँ जा के इंडस्ट्री के मुतालिक लोकेशन का सर्वे करते हैं. “Factors Influencing the Location of Industries!” इंजीनियरिंग के स्टूडेंट्स ने इस क़वेस्चन पर ढेरों मार्क्स कमाए होंगे फाइनल ईयर में! तो वे कारक जो किसी इंडस्ट्री को कहीं बिठाने के लिए सबसे जरूरी होते हैं वो निम्नलिखित हैं…
मुख्य दो कारक हैं..
1. Geographical factor (भौगोलिक कारक)
2. Non-Geographical factor (अ-भौगोलिक कारक)
तो भौगोलिक कारक में निम्न कारक हैं..
1. Availability of Raw material (कच्चे माल की उपलब्धता)
2. Resources of Power (ऊर्जा/बिजली के स्रोत)
3. Labour (श्रम शक्ति)
4. Transport (यातायात)
5. Market (बाज़ार)
6. Availability of Water (पानी की उपलब्धता)
7. Site (निर्माण-स्थल)
8. Climate (जलवायु)
इन सारे फैक्टर्स पर जब सब खरे उतरते हैं तभी जा के कोई इंडस्ट्री कहीं बैठती है. एक उदाहरण पकड़िये कि सोलर प्लांट लगाना है तो उसके लिए राजस्थान, गुजरात सही रहेगा या उत्तर-पूर्व के राज्य? स्टील प्लांट पॉवर प्लांट के लिए झारखंड, ओडिशा बेहतर होगा या जम्मू कश्मीर? कॉटन-इंडस्ट्री महाराष्ट्र, गुजरात में बैठेगी या झारखंड में? ऑफकोर्स जहाँ जैसी उपलब्धता होगी उस अनुसार ही इंडस्ट्री बैठेगी.
इंजीनियरिंग के लौंडों 8-12 नम्बर इस पोस्ट के माध्यम से उठा लियो.
तो एक इंडस्ट्री को बिठाने के लिए इतने सारे फैक्टर्स के साथ गुणा-भाग-जोड़-घटाव करना पड़ता है तब जा के कोई इंडस्ट्री बैठती है.
तो सबसे पहले पहल किसी गाँव को बसाने के लिए किन-किन फैक्टर्स पे मत्था-पच्ची की जाती होगी कुछ अंदाज है? या बस हमारे बड़े-बुजुर्गों ने यूँ ही गाँव बसा दिए? क्या कोई ऐसा प्रमाण या क्रियाशीलता है जिसके माध्यम से ये जान सके कि गाँव बसाने के पहले किन-किन कारकों पे ध्यान दिया जाता था?? या हम उस चीज को भुला बैठे जिसका आधार किसी गाँव को बिठाना/बसाना होता था?? क्या कोई गाँव बसाने से पहले हमारे कोई सर्वेयर नहीं थे?
जी बिल्कुल सभी थे… और इसकी झलकियां अभी भी शेष हैं. .. और हम उसकी झलकी दिखाते हैं और हमें गर्व है कि हमने उसे आज तक सुरक्षित रखा है! अपने झारखण्ड में एक बहुत ही आम पूजा है ‘मुरहा या मुड़हा पूजा’! .. जो धान के खेतों में धान कटने के बाद अक्सर किया जाता है.
इसमें बंगवा मुर्गा काटा जाता है, खीर पानी चढ़ाया जाता है. हम अब तक इसे बस एक छोटा-छाटा पूजा समझते थे.. ढोंग, ढकोसला, अंधविश्वास वगैरह.. नाया/लाया/नाइके (पुजारी जो ज्यादातर संथाल होते हैं) को जब पूजा करते देखता था तो बस यही सोचते कि ये क्या मूरखपना है.. किस तरह की ये पूजा-पाठ है? कुछ खाने पीने के लिए बस बहाना चाहिए..
मुरहा पूजा, राइत पूजा फलाना ढिमकाना पूजा.. बस जैसे तो कोई बहाना चाहिए मीट मुर्गा दारू के लिए. .. लेकिन हम भी खुश, काहे कि हम खेत में बनने वाली प्रसाद के तौर पर खीर खूब खाते थे फिर बाद में काटा गया मुर्गा… तो ये मुरहा पूजा हम बस करते आ रहे हैं मतलब करते आ रहे हैं.. कब से किधर से क्यों से कुछ अता पता नहीं.. बस बूढ़ा-बुजुर्ग रूढ़ि थमा के गए हैं तो हम बस कैरी-फॉरवर्ड करते आ रहे हैं.. ऐसे भी हम पढ़-लिख रहे हैं तो क्या फर्क पड़ता है इन बकवास(?) के चीजों पे ध्यान देने की! और इसके पीछे जाने की… बस पूजा हो रही है मतलब हो रही है.. अगले साल भी मुर्गा काटेंगे और उसके अगले साल भी.. और ये बस चलता रहेगा.. और आगे कुछ वर्षों में कुछ ज्यादा ही पढ़ी-लिखी संतानें आई तो सब खत्म.
तो मुरहा पूजा पे आते है.. इसकी शुरुआत और महत्ता जानते है…
सिंधु घाटी सभ्यता के समाप्त होने के बाद ये कहानी है. जब सब कुछ नष्ट हो गया रहा सिंधु घाटी सभ्यता में.. बर्बरों द्वारा जला दिया गया सब कुछ तो जो भी थोड़ा मोड़ा बचा था उसको समेट कर हम दक्षिण की ओर पलायन किये एक नई आस और ठिकाने के लिए.. जब आगे बढ़े तो खूब घना और जंगलों से आच्छादित क्षेत्र था.. रहने के लिए ये घने जंगल अनुकूल है या नहीं है इसके लिए विचार-विमर्श करने बैठ जाते .. इन घने जंगलों के बीच हम गाँव बसाये या नहीं बसाये वो कैसे निर्धारण करे!? .. इसके लिए एक प्रोटोटाइप सर्वे का सहारा लिया गया.. और वो सर्वे लगभग हर नए गाँव के बसाहट के पहले लिया जाता था. .. और वो सर्वे था ‘मुरहा’ !!
इसमें क्या करते थे कि.. जहाँ कहीं भी गाँव बसाने की होती वहाँ एक मुर्गा, एक लोटा पानी, कुछ धान के बीज और बकरी के भेलान्डी (गोबर) का गोला बना के एक स्थान पे रख देते थे… फिर उसको एक दिन बाद मुआयना करते थे कि वहाँ क्या-क्या परिवर्तन हुआ हैं..
1. मुर्गा जिंदा है या मर गया?
2. लोटा का पानी कितना कम हुआ?
3. भेलान्डी के गोला में क्या परिवर्तन आया?
4. धान के बीज में क्या परिवर्तन आया?
अब इसके इम्पोर्टेंस ?? …
तो..
इम्पोर्टेंस नम्बर एक
मुर्गा जिंदा है या मर गया ? .. इससे अनुमान ये लगाते थे कि हम जहाँ गाँव बसाने वाले हैं वो जगह हमारे पालतू पशु-पक्षियों के लिए अनुकूल है या नहीं? शिकारी जानवर किस-किस तरह के है? .. आस पास हुए हलचल पदचिन्हों से जान जाते थे.
नम्बर दो
लोटा का पानी कितना कम हुआ? .. मने कि पानी उपलब्धता यहाँ कैसी है? .. चौबीस घंटे में पानी का लेवल कितना कम हुआ? इवापोरेशन(Evaporation) रेट क्या है इस जगह का? इवापोरेशन रेट से ये अनुमान लगाते थे कि इस जगह का वाटर लेबल कितना है ?? .. नहीं समझे ? … नागपुर रिजन का इवापोरेशन रेट और मुम्बई रिजन का इवापोरेशन रेट में क्या असमानता नहीं है? .. नागपुर रिजन बहुत ही शुष्क मौसम.. आद्रता बहुत ही कम वहाँ की हवाओं में क्योंकि पानी की उपलब्धता ज्यादा नहीं.. वहाँ का वाटरलेबल भी जान सकते हैं कि कितना है .. तो इवापोरेशन रेट बहुत ही हाई.. वहीं मुम्बई में इवापोरेशन रेट बहुत ही कम क्योंकि यहाँ समुद्री निकटता और हवाओं में आद्रता ज्यादा. .. मेकेनिकल इंजीनियर जो कूलिंग टावर/पावर प्लांट से संबंधित है उनसे पूछिये Wet bulb Temp. , Evaporation loss और Humidity से Relation के बारे में. .. इसको Calculate करने के बहुत सारे फ़ॉर्मूले हैं और अपेरेट्स भी.
तो तब हमारे बुजुर्ग लोटे में हुई इवापोरेशन रेट के चलते कम हुए पानी से अंदाज लगाते थे कि यहाँ का वाटरलेबल कितना है और किस तरह का है.
नम्बर तीन
भेलान्डी के गोला में क्या परिवर्तन आया ? .. अभी भी किसी का भी मल-मूत्र से उसके स्थिति के बारे में पता लगाया जा सकता है. .. भेलान्डी में हुई परिवर्तन से ये अंदाजा लगाया जाता था कि हमारे मवेशी इस जलवायु को झेल सकते है या नहीं? .. अगर झेलने लायक नहीं है तो उसके क्या उपाय किये जा सकते हैं जिससे कि हमारे मवेशी इस जगह के जलवायु के अनुरूप ढल सके… अभी भी बहुत से बैल हमलोग उत्तर भारत साइड के खरीदते हैं.. तो नए बैल जब हमारे प्रदेश में आते हैं तो निश्चित ही बीमार हो जाते हैं.. बहुतों के बैल मर भी जाते हैं.. पहली बारिश और नई घास को ये बैल ठीक से झेल नहीं पाते हैं… इन दिनों मवेशी डॉक्टरों की चांदी रहती हैं.. अभी भी.. फिर एक बार दवा सुइया के बाद नए बैल इस जलवायु में भी फिट बैठ जाते हैं.
तो मवेशियों के प्रिमिटिव क्योर के तौर पे भेलान्डी के गोले रखे जाते थे.
नम्बर चार
धान के बीज में क्या परिवर्तन आया ? .. चूंकि हमारा अब भी चावल सबसे मुख्य भोजन है तो धान की खेती इस जमीन पे कैसी होगी, कितनी होगी, जमीन इस बीज के लिए उपयुक्त है या नहीं ? इसका अंदाजा बस एक रात में हुई बीज में परिवर्तन से लगा लेते थे.. और इस आधार पे और भी बीजों के.
चूंकि हम एक बहुत ही उन्नत और वैज्ञानिक सभ्यता का हिस्सा थे तो इतना सहज अनुमान लगाना कोई मुश्किल न था… कलान्तर में हमने इस विद्या को खोया जरूर है.
तो इतने सारे कारकों का सूक्ष्म अध्ययन करके फिर निर्देश दिया जाता था कि ये जगह हमारे बसने लाइक है या नहीं? .. और जो इन मानकों पे खरा उतरता था उसे “बोर-ओत” कहा जाता था.. ‘बोर’ मने वर(बर) वरदान और ‘ओत’ मने भूमि .. मने कि ‘वरदानी भूमि’ .. और एक साथ ये कहलाता था “बोरोत” .. और बोरोत से ही बना भारत! .. और सम्पूर्ण भारत भूमि ही वरदानी भूमि कहलाती है… तभी तो सभी इस वरदानी भूमि की ओर खींचे चले आते थे और हैं.
तो उस वरदानी भूमि में गाँव बसता था.. जंगल काट-काट के खेत बनाये जाते थे. .. और जिसने सर्वे करके उस भूमि पे रहने को निर्देशित किया वो उस गांव का ‘नाया/लाया/नाइके’ कहलाता था.. और उसके ही वंशज आज भी नाया/लाया/नाइके हैं. .. आज भी मुरहा पूजा उन्हीं के हाथों सम्पन्न होता है.
तो ये मुरहा पूजा हमारे बसाहट का आधार है और नाया उस महान सर्वेयर के वंशज. .. जिसे आज केवल खाने-पीने तक ही सीमित कर के रख दिया गया है और देखा जाता है… अंधविश्वास के दायरे में रख के देखा जाता है जबकि इसके विज्ञान के पक्ष को नहीं देखते… भले ही आज इसकी उपयोगिता न हो लेकिन हमारी वरदानी भूमि (भारत भूमि) को समर्पित करती ये पूजा है और इसे गर्व के साथ मनाना चाहिए… और हमें गर्व है कि आज ये पूजा हम अनवरत मनाते आ रहे गाँव की बसाहट के साथ ही.
(और इधर झारखंड में कुछ जन हमारी प्राचीनता पे सवाल उठाते हैं!!) .. हम जैसे भी हैं ! .. हमने अपनी प्राचीनता को संभाल के रखा है .. और हमें गर्व है… हमें गर्व है कि हम वरदानी भूमि के वासी है, बोर-ओतियन (भारतीय) हैं.
जय बूढ़ा बाबा.. जय बूढ़ी माई
हर-हर महादेव।
जय भारत भूमि।