भारत में पटाखों का इतिहास बहुत पुराना है. पुणे स्थित भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टिट्यूट के प्रो० परशुराम कृष्ण गोडे ने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ कल्चर (बेंगलुरु) के ट्रांज़ेक्शन सं० 17 (1953) में एक लेख प्रकाशित किया था जिसमें उन्होंने प्राचीन भारत में आतिशबाजी के इतिहास का विवरण दिया है.
प्रो० गोडे लिखते हैं कि सन 1443 में देवराय द्वितीय के शासनकाल में सुल्तान शाहरुख़ का एक दूत विजयनगर के दरबार में रहता था. इसने लिखा है कि रामनवमी के उत्सव पर उसने वहाँ आतिशबाजी देखी थी. ऐसे ही बहुत से उल्लेख मिलते हैं जो बताते हैं कि चौदहवीं, पंद्रहवीं शताब्दी में कश्मीर, उड़ीसा और गुजरात में न केवल उत्सव बल्कि विवाह समारोह आदि में भी आतिशबाजी होती थी.
डॉ सत्यप्रकाश (डी०एस०सी०) अपनी पुस्तक ‘प्राचीन भारत में रसायन’ में उड़ीसा के गजपति प्रताप रुद्रदेव की पुस्तक कौतुक चिंतामणि को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कि पन्द्रहवीं शताब्दी में राजा के दरबार में विभिन्न प्रकार के अग्निक्रीड़ायें की जाती थीं: कल्पवृक्ष बाण, चामर बाण, चन्द्रज्योति, चम्पा बाण, पुष्पवर्त्ति, छुछंदरी रस बाण, तीक्ष्ण नाल और रस बाण.
ऐसे ही उल्लेख आकाशभैरवकल्प नामक पुस्तक में है जिसमें यह बताया गया है कि बांस के बने पिंजरों से अग्निबाण (राकेट कह सकते हैं) छोड़े जाते थे जो आकाश में फूटने के बाद मोरपंख का बना हुआ चँवर या आजकल के ‘अनार-पटाखा’ जैसी रंग-बिरंगी आतिशबाजी करते थे.
प्रो० गोडे के अनुसार भारत में आतिशबाजी की कला चौदहवीं शताब्दी में चीन से आई किन्तु इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि रसायनों के प्रयोग से विस्फोट करने का ज्ञान भारतीयों को चौदहवीं शताब्दी के पहले से था क्योंकि प्रो० गोडे ने अपने लेख में तेरहवीं शताब्दी के फ़ारसी इतिहासकार शेख मुसलिदुद्दीन सादी का उल्लेख किया है जिसने अपनी रचना गुलिस्तान में एक स्थान पर लिखा था कि एक हिन्दू (अर्थात् तत्कालीन ‘गुलाम’) किसी से ‘नाफ्था’ फेंकना सीख रहा है. यह नाफ्था एक प्रकार का ज्वलनशील तरल पदार्थ है जिसे आज नाफ्थालीन कहा जाता है. इसे बोतल में भरकर चिंगारी लगाकर शत्रु पर फेंकने से शत्रु जल जाता है.
शुक्रनीति में भी अग्निचूर्ण का उल्लेख है किन्तु शुक्रनीति का रचनाकाल निश्चित नहीं है. महत्वपूर्ण यह है कि प्रो० गोडे अपने लेख में आकाशभैरवकल्प पुस्तक को उद्धृत करते हुए दीपावली पर्व का उल्लेख भी करते हैं जिसमें राजा को रात्रि में बाणविद्या (अर्थात् आज के समय का राकेट) देखने के लिए आमंत्रित किया गया है.
उपरोक्त ऐतिहासिक प्रमाणों से स्पष्ट है कि भारत में दीवाली पर पटाखे छुड़ाना कोई नयी परम्परा नहीं है. दीवाली पर पटाखे छुड़ाना कोई ‘धार्मिक कर्मकांड’ भी नहीं है बल्कि यह तो उत्सव मनाने का एक तरीका मात्र है. उत्सव हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग इसलिए हैं क्योंकि वे हमारी जीवनशैली में रंग भरते हैं. भारत का हिन्दू अपने पर्व, उत्सव कैसे मनाये अथवा न मनाये इसपर प्रश्न करना न्यायालय के कार्यक्षेत्र में कैसे आता है यह समझना कठिन है.
उच्चतम न्यायालय ने यह कहकर कि पटाखे छुड़ाने का उल्लेख किसी हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ में नहीं लिखा है और उसके पश्चात उपजे जनमानस के आक्रोश से व्यथित होकर अपनी ही बात काट दी है. दरअसल न्यायालय ने ही हिंदुत्व को जीवनशैली कहकर परिभाषित किया था और आज जब इनके तुगलकी निर्णय पर जनता ने आक्रोश व्यक्त किया तो माननीयों को हिन्दू एक ‘रिलिजन’ समझ में आया. यक्ष प्रश्न यह है कि माननीय पटाखे छुड़ाने की परम्परा को धार्मिक ग्रंथों में खोज ही क्यों रहे थे? उन्हें तो इसके लिए ऐतिहासिक प्रमाणों में जाना चाहिए था.
दरअसल विगत कुछ दशकों में हिन्दू पर्व उत्सवों को लेकर इस देश में जिस प्रकार का प्रोपैगैंडा खड़ा किया गया है उससे युवा और बच्चे बहुत प्रभावित होते हैं. कुछ वर्ष पहले तक मैं ‘ग्रीन दीपावली’ का पक्षधर था. परन्तु हमारे बड़े हो जाने पर भी हमारे पिताजी दीपावली पर लावा-लाई मिठाईयों सहित दो फुलझड़ी अवश्य लाते हैं.
मैंने एक बार पूछा तो बोले, “यह शुभ होता है.” मैंने हँसकर पूछा “इन पटाखों से वातावरण प्रदूषित होता है और आप कहते हैं कि शुभ होता है?” इस पर उन्होंने कहा, “दीपावली प्रकाश का पर्व है, यह सत्य है. किन्तु ये भी तो सोचो कि होली, दशहरा और अन्य पर्वों पर इतना प्रकाश क्यों नहीं किया जाता. कार्तिक मास की अमावस्या को हमारे राजा राम अयोध्या लौटे थे. उन्होंने उस राक्षसराज का वध किया था जो आर्यावर्त की प्रजा को त्रास देता था, ऋषियों को मारकर खाता था, स्त्रियों का शीलहरण करता था. चौदह वर्षों के उपरांत यदि राजा शत्रु का वध कर अपने राज्य में लौटे तो उसके स्वागत में प्रजा आतिशबाजी नहीं करेगी तो क्या करेगी? सदा से हमारे देश में राजा होने का अर्थ यही रहा कि जो प्रजा का कल्याण करे. दीपावली का प्रकाश और उल्लास भगवान राम के प्रति हमारी कृतज्ञता का परिचायक है.” पिताजी की बात सुनकर मैं निरुत्तर हो गया.
विश्वभर में प्रदूषण को लेकर जहाँ तक प्रोपैगैंडा खड़ा करने की बात है तो ज्ञातव्य है कि ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के हौव्वे के विरोध में वरिष्ठ अमरीकी भौतिकशास्त्री हेरोल्ड लेविस ने 2010 में प्रतिष्ठित अमेरिकन फिजिकल सोसाइटी की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था. उन्होंने ग्लोबल वार्मिंग को सर्वाधिक सफल अवैज्ञानिक धोखे के संज्ञा दी थी. अगले ही वर्ष 2011 में इसी मुद्दे पर नोबेल पुरस्कार से सम्मानित प्रो० इवार गिएवर ने भी APS की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था.
विदेशी कम्पनियां किस प्रकार सिगरेट के धुएं को बेचती थीं इसका एक उदाहरण तब सामने आया था जब 1996 में बायोकेमिस्ट जेफ्री वाइगैंड ने ब्राउन एंड विलियमसन तम्बाकू कम्पनी के राज़ उजागर किये थे. यह कम्पनी सिगरेट में अमोनिया जैसे हानिकारक रसायन मिलाती थी जिससे निकोटीन का प्रभाव बढ़ाया जा सके. आज भारत को पेट्रोल का उपयोग कम करने की नसीहत देने वाले अमरीका में नब्बे के दशक तक पेट्रोल में लेड (सीसा) का प्रयोग होता था. पेट्रोल में सीसा के विरुद्ध क्लेयर पैटरसन ने लम्बी लड़ाई लड़ी थी जिसके फलस्वरूप दुनियाभर में सीसा रहित पेट्रोल उपलब्ध हो सका.
सिगरेट जैसा मादक पदार्थ हो अथवा पेट्रोल जैसी उपयोगी वस्तु ये सभी आज मानव जीवनशैली के अभिन्न अंग हैं. हम लाख प्रयास कर के भी इनका प्रयोग एकदम समाप्त नहीं कर सकते. इसी प्रकार एक स्थान विशेष में पटाखों की बिक्री पर प्रतिबन्ध लगा देना हिन्दू जनमानस के उल्लास का मर्दन है. अब प्रश्न है कि किया क्या जाये? कम या ज्यादा किन्तु पटाखों से प्रदूषण तो होता ही है.
इसका उत्तर विज्ञान में है क्योंकि समस्या मूलतः विज्ञान जनित है. शिवकाशी तमिलनाडु स्थित आतिशबाजी अनुसंधान एवं विकास केन्द्र (FRDC) वाणिज्य उद्योग मंत्रालय के अधीन एक छोटा सा संस्थान है जिसे 2013 में CSIR से संबद्ध करने पर विचार किया गया था. यह दुर्भाग्य है कि जो विभाग विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन होना चाहिए था वह वाणिज्य उद्योग में चला गया. अभी यह संस्था इको-फ्रेंडली पटाखों के विकास में कितनी सफल हुई है या इसने कौन से उत्पाद बनाये हैं जो बाजार में उपलब्ध हैं इसकी कोई विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है.
प्राचीन भारत में आतिशबाजी में जिन रसायनों का प्रयोग होता था उनका उल्लेख डॉ सत्यप्रकाश (स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती) की पुस्तक ‘प्राचीन भारत में रसायन’ और प्रो० गोडे के शोधपत्र The History of Fireworks in India में भी है. विचित्र विडम्बना है कि जिस देश में गन्ना, चावल, सब्जी, चमड़ा आदि के लिए भारी अनुदान प्राप्त पृथक वैज्ञानिक शोध संस्थान हैं उस देश में पटाखों से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण को किस प्रकार कम किया जाये इस पर शोध होने कि अपेक्षा प्रदूषण से उत्पन्न प्रोपैगैंडा का समर्थन और विरोध अधिक किया जाता है.
हिंदुत्व के पैरोकारों को यह समझना होगा कि समस्या का निदान मात्र हाय-तौबा करना नहीं है. जिसे हम मानव के लिए उपयोगी विज्ञान कहते हैं कि वह आज के समय में दो हैं: कम्प्यूटर विज्ञान और रसायन विज्ञान. यही कमर्शियल साइंस भी है. कम्प्यूटर विज्ञान में तो हम आगे निकल गए किन्तु रसायन में शोध को पीछे छोड़ गए. यही कारण है कि कभी देवि प्रतिमा को गंगा में विसर्जित करने से रोका जाता है तो कभी पटाखों की बिक्री पर प्रतिबन्ध लग जाता है. यदि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे उतने ही उल्लास से कल भी दिवाली मनाएं तो यह स्वीकार करना होगा कि आज विज्ञान को राष्ट्रवाद से जोड़ने की आवश्यकता है.