बच्चा जब माँ के पेट में होता है वो तभी से माँ की भाषा समझने लगता है क्योंकि प्रकृति का नियम है कि संवेदनाएं बाहर से अन्दर की ओर प्रवाहित होती है. लेकिन माँ काश इस प्रवाह के नियम के विपरीत जाकर गर्भ में पल रहे बच्चे की भाषा भी समझ पाती तो वो बता पाती कि तुम्हारे गर्भ में जीवन के नाम पर सिर्फ मांस का टुकड़ा पल रहा है. जो बाहर आने के बाद चलना फिरना तो दूर बोल भी ना सकेगा.
और जब ऐसा बच्चा जन्मा तो माँ की ममता भी न जाने कहाँ खो गयी. बच्चा अपाहिज वो भी एक लड़की!!! न जाने कितने उपाय बताये गए उससे पीछा छुड़ाने के लेकिन कहते हैं ना जब अस्तित्व ने जन्म दिया है तो कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है उस जीवन का.
तो बचपन की सारी यातनाओं का वर्णन करते हुए झमक घिमिरे अपने पुरस्कार प्राप्त उपन्यास जीवन काँटा कि फूल (Jiwan Kada ki Phool (Life is a thorn or a flower) ) में जो लिखती हैं उसको पढ़ने के बाद आपको लगेगा ये जो झमकती नदी सी झमक है उसके चेहरे की ये हंसी उतनी उन्मुक्त न होती यदि उसने ये पीड़ा न सही होती.
एक अपाहिज लड़की, बचपन में जिसकी शौच तक कोई धोता नहीं था तो उसी में लोट-पोट होती पड़ी रहती… भूखी प्यासी… और यही झमकती नदी बड़ी होने लगी तो… बच्ची से किशोरी होती लड़की के फटे कपड़ों से झांकते यौनांगों पर स्कूल जाने वाला शिक्षित समाज कंकर मारता था.. लेकिन उन सारी यातनाओं के बावजूद उसने हार नहीं मानी… भाई को पढ़ता देखती तो उसके मन में भी लिखने पढ़ने की इच्छा जागी. स्कूल भेजने का तो सवाल ही नहीं उठता तो वो उसके लिखे की नक़ल करते हुए कोयले से ज़मीन पर कुछ कुछ लिखती रहती.
एक दिन उसकी इस हरकत पर भी उसकी बहुत पिटाई हुई. फिर किसी रिश्तेदार (शायद नानी) के अन्दर कुछ ममता जागी तो उसने उस झमकती नदी को संभाल लिया. उसे उन्मुक्त बहने के लिए अपनी दो बाहों के किनारे दिए. फिर झमक का प्रवाह कभी बाधित नहीं हुआ. उसके प्रवाह ने प्राकृतिक बाधाओं को भी अपने आत्म विश्वास और हौसले से दूर किया. अस्तित्व ने हाथ नहीं दिए तो उसने पैरों को ही अपने हाथ बनाकर काम लिया. खाने-पीने, लिखने सबके लिए उसके दो पाँव जैसे दो हाथो की तरह हो गए.
नेपाल में जन्मी झमक घिमिरे ने जब लिखना शुरू किया तो उसके उपन्यास को वहां का प्रसिद्ध मदन पुरस्कार ( Madan Puraskar – the most popular award given to the writer for his or her contribution in Nepalese Literature) दिया गया.
मैंने जब पहली बार उसकी तस्वीर में चांदी की पायल पहने दो पाँव देखे तो रोशनी की दो किरणें मेरी आँखों में उतर गयीं. अपने हाथों की लकीरों में हल्की सी भी टूटन बर्दाश्त न करने वाली मैं, कैसे उसके दोनों पैरों को मंत्रमुग्ध होकर देखती रही… लगा जैसे मेरे दो हाथों जैसे हज़ारों हाथ होंगे जो उसके पैरों को कभी आशीर्वाद स्वरूप तो कभी प्रेम स्वरूप ऊर्जा दे जाते होंगे. और यही ऊर्जा आज वो अपने पैरों से दुनिया को बाँट रही हैं.
जो छोटी मोटी तकलीफों में ही जीवन से निराश हो जाते हैं, उनको आशा की नई किरण देने के लिए इस झमकती नदी की ये उन्मुक्त हंसी ही काफी है.
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