लीडरशिप-2 : अनुयायियों को प्रेरित करता है नेतृत्व का चरित्रगत करिश्मा

4 March 1971 को जब जनरल नियाज़ी ढाका आया तो तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान यानि आज के बांग्लादेश में हालात बहुत खराब थे. जनरल टिक्का खान ने पूर्वी पाकिस्तान में ऑपरेशन सर्च लाइट शुरू किया हुआ था… जिसमें खोज खोज के बंगाली विद्रोहियों को मारा जा रहा था. ऐसे माहौल में नियाज़ी से पहले जनरल बहादुर शेर ख़ाँ को ढाका में पोस्टिंग दी गयी थी… पर उन्होंने वहां के सामाजिक राजनैतिक हालात और कत्लों ग़ारत देखते हुए ये पोस्टिंग ठुकरा कर दी… ऐसे में नियाज़ी को ये पोस्टिंग ऑफर हुई और उसने लपक ली.

लपक इसलिए ली क्योंकि उन दिनों ढाका की पोस्टिंग बड़ी मलाईदार पोस्टिंग मानी जाती थी जहां पाकिस्तानी जनरल और हुक्मरान सरेआम लूट मचाते थे और और अपने निजी विमानों में भर के माल पश्चिमी पाकिस्तान ले जाते थे… नियाज़ी को भी जब पोस्टिंग मिली तो उसका ध्यान सिर्फ लूट की तरफ गया… उसने ये ध्यान नहीं दिया कि वो किस भारी मुसीबत में फंसने जा रहा है.

[लीडरशिप-1 : पाकिस्तानी सेना का आत्मसमर्पण, विफल नेतृत्व हो तो यही होता है]

तत्कालीन पाकिस्तानी मिलिट्री नेतृत्व का क्या स्तर था… इसका अंदाज़ा आप इस किस्से से लगा सकते हैं कि नियाज़ी ने ढाका में बैठे-बैठे इस्लामाबाद स्थित अपनी सरकार को एक प्लान भेजा… जिसके तहत उसने ऐसे खयाली पुलाव बनाये थे… जिसमें पाकिस्तानी सेना ढाका से कूच करेगी और कलकत्ते पे कब्जा कर लेगी… फिर वहां से कूच करेगी तो दिल्ली होते हुए लाहौर, कराची चली जायेगी जिससे उसको वो कॉरिडोर हासिल हो जाएगा जिस से दोनों पाकिस्तान जुड़ जाएंगे.

जिस दिन नियाज़ी ने इस्लामाबाद को ये प्लान पेश किया, उसके छः महीने बाद वो वाकई कलकत्ते में था… अलबत्ता एक कैदी के रूप में… 16 दिसंबर के बाद उसे कलकत्ते के फोर्ट विलियम में युद्ध बंदी के रूप में रखा गया था…

16 दिसंबर 1971 को सरेंडर समारोह होते होते शाम के 5 बज गए थे. आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ पर दस्तखत करने के बाद सबसे पहले जनरल नियाज़ी ने जनरल अरोड़ा को अपना रिवाल्वर सौंप के सरेंडर कर दिया… पाकिस्तानी फौज ने अपनी लोडेड राइफल्स से भारत के आर्मी कमांडर को सलामी (Guard of Honour) दी थी.

सुदूर पूर्वी बंगाल में दिसंबर में शाम 5 बजे धुंधलका होने लगता है… सरेंडर के बाद पाकिस्तानी फौज की सुरक्षा की जिम्मेवारी भारतीय सेना के ऊपर थी और उधर मुक्ति वाहिनी उनके खून की प्यासी थी… इसलिए ये निर्णय हुआ कि रात में पाकिस्तानी सेना को नि:शस्त्र न किया जाए… वो रात सकुशल बीत गयी… अगले दिन प्रात:कालीन परेड में पाकिस्तानी सेना ने अपने हथियार जमीन पर रख दिये… इसका वीडियो जो उस समय BBC ने बनाया था Youtube पर उपलब्ध है. 16 दिसंबर के बाद बाकी बांग्लादेश में फैली पाक सेना ने 17 और 18 दिसम्बर तक हथियार सौंपे.

सरेंडर की शर्तों में ये कहा गया था कि समर्पित पाकिस्तानी फौज को जिनेवा सम्मलेन में निर्धारित मानदंडों के अनुरूप व्यवहार होगा… they will be treated with dignity… भारतीय सेना ने अपना वादा निभाया.

उन्होंने अपना वो वादा भी निभाया कि हम किसी भी हालत में 3 महीने से अधिक बांग्लादेश में नहीं रहेंगे. सरेंडर के 90 दिन के अंदर भारतीय सेना ने बांग्लादेश की नई सरकार को बागडोर सौंप बांग्लादेश खाली कर दिया.

71 के युद्ध में पूरी दुनिया मे पाकिस्तान की बहुत बेइज़्ज़ती हुई… दुनिया के सैनिक इतिहास में कभी भी किसी इतनी बड़ी 93,000 सशस्त्र सेना ने इस तरह से अपमानजनक आत्मसमर्पण नहीं किया था….

पाकिस्तान में इस शिकस्त के लिए जस्टिस हमूदुर रहमान के नेतृत्व में जांच कमीशन बैठाया. उसमें पाया गया कि एक लीडर के रूप में नियाज़ी में वो हर कमी थी जिस से लीडरशिप कमजोर होती थी. नियाज़ी लंगोट का कच्चा था… उसकी रंगीन मिजाज़ी के किस्से पूरे कैंटूनमेंट में मशहूर थे.

नियाज़ी पर सबसे बड़ा आरोप था कि तब जबकि पूर्वी पाकिस्तान जल रहा था… नियाज़ी अपने सैन्य विमान में भर के ढाका से पान का पत्ता भेजता था… पान पाकिस्तान में पैदा नहीं होता और यूपी बिहार से गये मुसलमान पान खाने के शौकीन थे. सो पान में बड़ा तगड़ा मुनाफा होता था… मौका देख जनरल साहब सैन्य विमान से पान की ही तस्करी करने लगे.

युद्ध में हार जीत लगी रहती है. इतिहास में बहुत सी सेनाएं हारीं पर उनकी बहादुरी के चर्चे इतिहास में दर्ज हैं… 71 की लड़ाई पाकिस्तान के इतिहास का एक बदनुमा दाग है. सैन्य विशेषज्ञ कहते हैं कि जितनी सेना और जितना अस्लाह पाकिस्तानी सेना के पास मौजूद था, उस से वो कम से कम 3 हफ्ते तक बड़े आराम से लड़ सकते थे पर…

पर… युद्ध 3 दिसंबर को शुरू हुआ और नियाज़ी 6 या 7 दिसंबर को ही बौखलाने लगा था… उसने शुरू में ही हार मान ली थी… जूझने के लिए, लड़ने के लिए एक व्यक्तित्व चाहिए. लड़ती तो टीम है… एक सेना लड़ती है, सिपाही लड़ते हैं, पर लड़ाने वाला जो सेनापति होता है न, उसका एक विराट व्यक्तित्व होता है…

उसके उस विराट व्यक्तित्व के प्रभाव में ही उसकी सेना लड़ती है. लीडर के अंदर का करिश्मा… वो जिसे Carishmatic Leadership कहते हैं… वो करिश्मा जो चरित्र से पैदा होता है, वही अनुयायियों को प्रेरित करता है.

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