हिंदुस्तान में आज़ादी के बाद से कायदे का साहित्यकार सिर्फ उसी को माना गया जो मार्क्सवाद से प्रभावित होकर लिखे. गरीबी, उत्पीड़न, हिन्दुओं के कर्मकांड, अंधविश्वास, जातिगत असमानतायें और बुराईयों पर जमकर लिखे, जिससे उसके वामपंथ के सेवक होने की पुष्टि हो सके. ऐसे ही लेखकों को बढ़ावा मिला और नवलेखक भी गाहे ब गाहे इस टोली में शामिल होने पर मजबूर हुए, या जो सहमत नहीं भी थे वो वामपंथ में ‘कनवर्ट’ कर दिये गये क्योंकि इस क्षेत्र में आप कुछ करना चाहते हो, तो इसके सिवा कोई रास्ता भी नहीं था.
साहित्य अकादमी से लेकर हर प्रदेश की बड़ी से बड़ी साहित्यिक संस्थाओं पर, विश्वविद्यालयों में इन्हीं लोगो के हाथ में बागडोर होने से रेवड़ी सिर्फ वामपंथी ‘अंधों’ को ही मिली. ना जाने कितने राष्ट्रवादी या लीक से हटकर लिखने वाले लेखक हाशिये पर ढकेल दिये गये. इनके वफादार ही इतिहास से लेकर शिक्षा तक सारी किताबें लिखते रहे और देश को सांस्कृतिक रूप से कमजोर करते रहे. नास्तिकों की एक लंबी-चौड़ी जमात जो आपको नज़र आती है, ये इनकी 65 साल की मेहनत का ही नतीजा है. इन्हें जीसस से लेकर पैगम्बर तक सब पर विश्वास है, केवल हिंदू धर्म को छोड़कर.
अब जाकर इसमें सुधार की उम्मीद जगी है. जिन्होंने मोदीजी को वोट देकर ये सरकार बनवायी थी, उनसे विनती है कि तिल के दानों बराबर मुद्दों के दम पर मोदी सरकार पर कम से कम आप लोग उंगली उठाना बंद करो. कुछ लोग ये काम पिछले 15 साल से अच्छे से कर रहे है. आप लोग समर्थन नहीं कर सकते तो कम से कम चुप रहो. बहुत से काम हो रहे हैं और होने हैं जो पिछले 65 साल से रूके हुए थे.
दो साल पहले पुरस्कार वापस करने वालों की गिनती जो 20-30 तक पहुंची थी, वो 2000 या 20 हजार तक भी पहुंच जाये तो आश्चर्य मत कीजियेगा क्योंकि सारे पुरस्कार तो इनके अपनों में ही बंटे हुए थे, जो इनकी वामपंथी कसौटी पर खरे उतरे थे.
वामपंथी राजनीति से खत्म होने को है… अब साहित्य, कल्चर का नम्बर है. ये जो हर बात में ‘तिल का ताड़’ बनाते हैं इसकी वजह भी यही है. गजेन्द्र चौहान के नाम पर इन्होंने बहुत बवाल किया… अब अनुपम खेर को FTTI का अध्यक्ष बना दिया तो भी ये चुप नहीं रहेंगे… जल्दी ही कोई मुद्दा पकड़ कर चीखेंगे-चिल्लाएंगे. अब इन वामपंथियों से कोई ये पूछे कि गजेन्द्र चौहान ने दो साल में क्या नुकसान कर दिया FTTI का? जरा विस्तार से बताएं और दो साल में यहाँ के स्टूडेंट्स ने क्या झंडे गाड़ दिये देश के लिये, ये भी बताएं!
जेएनयू में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि वाले कुलपति के बनने के बाद इनको काउंटर अटैक कहीं तो करना ही था… सो बीएचयू में इन्होंने अपनी भड़ास निकाली.
किसी भी राज्य की, किसी भी स्तर की, किसी भी किताब में, चाहे वो प्राथमिक स्तर की हो या महाविद्यालय स्तर की… कहीं भी अगर राष्ट्रवादी नायकों को जोड़ा जाता है या किसी वामपंथी की कहानी या कविता पाठ्यक्रम से हटायी जाती है तो ये बिलबिलाने लगते हैं… क्योंकि इन्हें खुद की असलियत पता है कि इन्होंने इतिहास की कैसे धज्जियां उड़ाकर सिर्फ ‘सॉफ्ट हिंदू विरोध’ ही लिखा और पढाया है.
केन्द्र सरकार से यही उम्मीद है कि बिना शोर शराबे के सारी विसंगतियों को धीरे-धीरे दूर करने की कोशिश होनी चाहिये और राष्ट्रवादी लेखकों को संरक्षण भी मिलना चाहिये इन वामपंथी माफियाओं से.