ये जो हमारे बीच संवाद है,
वो और कुछ नहीं
हमारे मौन के व्रत का टूट जाना है
संयम की घड़ी का
बेवक्त रुक जाना
और सब्र का सरे राह लुट जाना है
अतीत की कड़वाहट
और भविष्य की मीठास पर
वर्तमान के नमक का गिर जाना है
माथे पर लिखी
किस्मत की इबारत का
आँखों के पानी से मिट जाना है
फिर भी तुम संवाद को
मिटने ना देना
गिरने ना देना
लुटने ना देना
क्योंकि भाषा के जन्म से पहले
जो मौन जन्मा था
वो हमारे प्रेम की गर्भनाल से
आज भी जुड़ा है
आज भी वो प्रेम
यदा कदा भोगता है
प्रसव की पीड़ा
आज भी वो प्रेम
हमारी मुखर अभिव्यक्ति के समय
सहम कर छुप जाता है मौन के पीछे
और मैं ?
मैं छुप जाती हूँ
तुम्हारे विस्तृत अर्थों की चेतना में
जब नहीं समा पाती
अपने सीमित शब्दों की देह में..
और फिर तुम्हीं तो कहते हो ना अक्सर…
सबसे अच्छी मौन की भाषा…
गीत – अंखियों के झरोखों से
अंखियों के झरोखों से, मैंने देखा जो सांवरे
तुम दूर नज़र आए, बड़ी दूर नज़र आए
बंद करके झरोखों को, ज़रा बैठी जो सोचने
मन में तुम्हीं मुस्काए, बस तुम्हीं मुस्काए
इक मन था मेरे पास वो अब खोने लगा है
पाकर तुझे हाय मुझे कुछ होने लगा है
इक तेरे भरोसे पे सब बैठी हूँ भूल के
यूँ ही उम्र गुज़र जाए, तेरे साथ गुज़र जाए
जीती हूँ तुम्हें देख के, मरती हूँ तुम्हीं पे
तुम हो जहाँ साजन मेरी दुनिया है वहीं पे
दिन रात दुआ माँगे मेरा मन तेरे वास्ते
कहीं अपनी उम्मीदों का कोई फूल न मुरझाए
मैं जब से तेरे प्यार के रंगों में रंगी हूँ
जगते हुए सोई रही नींदों में जगी हूँ
मेरे प्यार भरे सपने कहीं कोई न छीन ले
दिल सोच के घबराए, यही सोच के घबराए…