समंदर से जा रही करोड़ों मछलियों में से एकाध को बचा भी लें तो क्या फ़र्क पड़ता है?

फेसबुक के एक मित्र ने आज मुझे एक मैसेज किया कि उनका एक मित्र अपने किसी ईसाई मित्र के संसर्ग में आकर अपने पूरे परिवार समेत ईसाई मत में चला गया है. मेरे फेसबुक मित्र का कहना है कि मैं चूँकि ईसाईयत पर कुछ जानकारी रखता हूँ तो मुझे उनके घर-वापसी के लिये प्रयास करना चाहिये.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके तमाम सम-विचारी संगठनों की हमेशा से ये सोच रही है कि “वेटिकन की मदद से चलने वाले मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी और मदर के सेवा कार्यों के बीच सेवा पाने की पहली और अनिवार्य शर्त मत-परिवर्तन करना था”.

इस तथ्य को इसलिये बल मिलता है क्योंकि मदर और उनकी संस्था के साथ जुड़े इस सच का पर्दाफ़ाश किसी संघी-बजरंगी ने नहीं बल्कि ईसाई विद्वानों और ईसाई संस्थाओं ने ही किया है. मदर तथा उनकी संस्था के ऊपर इंसानियत को शर्मसार करती मत-परिवर्तन की ख़बरें और मत परिवर्तन नहीं करने वालों को मिशन के अंदर तिल-तिल कर मिलती मौत की ख़बरें आपको गूगल पर सर्च करने से मिल जायेगी पर यहाँ मौजूं मदर के संस्था के कामों की तफ्तीश करना या वेटिकन द्वारा उन्हें दिए जाने वाले संत की उपाधि पर चर्चा करना नहीं है बल्कि हमारे-आपके हृदय सम्राट द्वारा उनके “संत” सर्टिफिकेट पर गर्व महसूस करने की हालिया घटना है.

जो लोग भी बाईबिल के उत्तर भाग यानि नये-नियम से परिचित नहीं है उनके लिये ये बताना आवश्यक है कि बाईबल का नया-नियम जीसस और उनके शिष्यों के दुनिया भर के चमत्कार कार्यों से भरा हुआ है. वहां ये तक लिखा हुआ है कि सच्चा विश्वासी प्रभु के नाम से बीमारियां ठीक कर सकता है, लोगों को चंगा कर सकता है. इसलिये कैथोलिक चर्च अपने जन्म-काल से ही ऐसे चमत्कारों को मान्यता देता रहा है जिसमें प्रभु यशू का नाम लेकर हर तरह की बीमारी और पीड़ा दूर करने का दावा किया गया.

चंगाई सभा में यही सब तो होता है. चंगाई सभा का नाम अगर आपने नहीं सुना है तो मोटे-मोटे में बस ये समझ लीजिए कि वो “जादू देखो जादू” वाली जगह है. एक ऐसी जगह जहाँ रोगी, विकलांग, दुखी, दरिद्री सब जमा होते हैं और उनके लिए ईसा के शिष्य ईसा के नाम पर ऐसा जादू-टोना करते हैं कि रोगी बिना दवा के ही तुरंत रोगमुक्त हो जाता है, विकलांग चलने, बोलने, सुनने और देखने लगते हैं. माने दुनिया का ऐसा भी कोई भी रोग नहीं है जो चर्च के आध्यात्मिक डॉक्टरों के इस चंगाई सभा में शरीर पर ईसा का नाम लेकर हाथ फेरते ही न ठीक होता हो.

मदर भी यही दावा करतीं थीं. बकौल कैथोलिक चर्च, मदर का पहला चमत्कार था बंगाल की आदिवासी महिला गीता बसरा का बिना किसी इलाज के उसके पेट का टयूमर ठीक करना और उनका दूसरा चमत्कार था ब्राजील में ब्रेन ट्यूमर से पीड़ित किसी शख्स का ट्यूमर ठीक करना. उनके इसी दो चंगाई चमत्कार के उपलक्ष्य में वेटिकन ने उन्हें संत की उपाधि दी.

हमारा विरोध इस बात पर है कि चंगाई सभा और प्रार्थना से इलाज के झूठ को अब जब पश्चिमी जगत ही नकार रहा है और प्रगतिशील ईसाई लोग वेटिकन के इस आडम्बर और मूर्खतापूर्ण कृत्य की हँसी उड़ा रहे हैं तब ऐसे में हमारे साहब ‘मन की बात’ में अवैज्ञानिकता और अन्धविश्वास को बढ़ावा देने के इस कृत्य पर आह्लादित होते हुए गर्व क्यों महसूस कर रहे थे? फिर “संतई” के कार्यक्रम में अपनी ओर से आधिकारिक उपस्थिति दर्ज करवाना क्या असत्य और आडम्बर को सत्य और तथ्य रूप में स्थापित करना नहीं था कि मदर के चमत्कार को नमस्कार है? वो भी तब, जबकि ये साबित तथ्य है कि मदर जब कभी बीमार हुईं तो बजाये उन्हें प्रार्थना सभा में ले जाने के उनके अनुयायियों ने उन्हें बेहतरीन से बेहतरीन कार्पोरेट अस्पताल में भर्ती किया और आधुनिक चिकित्सा सुविधायें उन्हें दी.

इससे आगे एक तथ्य ये भी है कि ईसाइयों के सबसे बड़े धर्मगुरु पोप जॉन पॉल II जो ऐसे चमत्कार करने वालों को खोज-खोज के संत की उपाधि देते थे, अपने जीवन के अंत-काल में हर तरह के रोगों से ग्रसित थे. दुनिया का शायद ही कोई रोग रहा होगा जो पोप को न हुआ हो. वो चलने में असमर्थ हो गये तो उन्हें व्हील चेयर पर बिठा दिया गया, उनके आँखों में भी गंभीर समस्याएं थी जिसके कारण वे कुछ भी ठीक से देख नहीं पाते थे. उनके एक डॉक्टर ने बाद में यह भी रहस्योद्घाटन किया था कि पोप पर्किंसन से भी पीड़ित थे.

2001 में यह भी बात खुली थी कि उनका दिमाग भी ठीक से काम नहीं करता था. उनके अंतिम दिनों में उनका पूरा शरीर इन्फेक्शन के चलते सड़ने लगा था और उनके कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया था. शरीर का कोई छिद्र स्थान ऐसा नहीं बचा था जहाँ पाइप न लगा हो, डॉक्टरों की एक पूरी टीम उनके साथ थी पर वो नहीं बचाए जा सके और मर्मांतक कष्ट और शारीरिक पीड़ा के चलते 2 अप्रैल. 2005 को इस दुनिया से चले गए.

पोप के स्वास्थ्य और दु:खद मृत्यु तथा मदर के कॉर्पोरेट अस्पतालों में इलाज पर चर्चा करने का उद्देश्य उनका असम्मान नहीं है बल्कि केवल ये बताना है कि राष्ट्रवाद, वैज्ञानिकता और आधुनिकता की बात करते हुए भारत को विकसित राष्ट्रों के समकक्ष लाकर खड़ा करने का स्वप्न दिखाने वाले हमारे बुजुर्ग का यह कदम बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था, वो भी तब जबकि उनका विचार-परिवार सेवा की आड़ में मतान्तरण और चंगाई सभा के नाम पर भोले-भाले मासूम लोगों को बेवकूफ बनाने के खेल के सख्त खिलाफ है, हमेशा से.

सनद करे, संत बनाने के इस कार्यक्रम में कोई भी विकसित और आधुनिक देश अपना आधिकारिक प्रतिनिधि नहीं भेजता और न ही ऐसे अवैज्ञानिक कृत्यों को तवज्जो और बढ़ावा देता है, पर हमारे अपने राष्ट्रवादी जब सत्ता में आते हैं तो बार-बार यही गलती दुहराते हैं. पिछली बार की राष्ट्रवादी सरकार में हुआ पोप का भव्य स्वागत और फिर उनके निधन पर राजकीय शोक रखने के एवज़ में हमने क्या खोया है, इसे बताने की जरूरत नहीं है और दुर्भाग्य से फिर यही दुहराया गया.

ऐसे में सवाल ये है कि घरवापसी के लिये कि मेरे या किसी और की व्यक्तिगत कोशिशों का कोई मोल है? जबकि हमारे बुजुर्ग ही अंधश्रद्धा को बढ़ावा देते हुये चंगाई सभा के चमत्कार को नमन करते रहें हैं और चर्च को पुनः दुगुनी गति से भारत को अपना उन्मुक्त चारागाह बनने का आमन्त्रण दे रहें हैं?

बाकी राम की गिलहरी की तरह हम अपना काम करेंगे ही लेकिन ऐसे में, मैं या मेरे जैसा कोई और, समंदर से बाहर निकल कर मृत्यु की ओर बढ़ रही करोड़ों मछलियों में से एकाध को बचा भी लेते है क्या फ़र्क पड़ता है? ये सवाल मेरे लिये अनुत्तरित है.

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