इधर मेरा कैमरा और मोबाइल फिर से चार्ज होने लगे हैं. बैग की धूल झड़ चुकी है. जूते के फीते कस लिए गए हैं. घूमने के नाम से पेट में तितलियाँ सी उड़ने लगती हैं. घूमने का मुझे बेहद शौक शुरू से ही है. अब ये शौक लत बन चुका है, लत एक कठिन एवम् निर्मम शब्द है. दिखने मे भले ही छोटा हो पर जब लग जाए तो knowledge के K की तरह जिंदगी साइलेंट हो जाती है. हर 3 या 4 महीनों में मुझे मेरी इस लत से जंग लड़नी पड़ती है और जब हार जाता हूँ तो अपने आप को कहीं घुमा ही लाता हूँ.
एक तरह से देखा जाये तो ये मेरा खुद को एक गिफ्ट है जो हर 3 या 4 महीने बाद देना ही पड़ता है. कई बार सोचा इस घुमककड़ी पर चंद लाइनें लिखी जाये. पर यकीन से कह सकता हूँ चाहे जितने भी दिन का टूर कर के लौटा होऊं पर किस्से नहीं सुनाने आते, पता नहीं लोग अपने एक ही जगह घूम कर आने के बाद पूरी किताब कैसे लिख देते हैं. मेरे लिए ये किसी आशचर्य से कम हरगिज नहीं है, खैर आज फिर बैग पैक हो गया है.
बिजली के करंट की तरह कई जगहों के नाम दिमाग में झटके मार रहे थे, असम और मेघालय समेत पूरा ईस्ट इण्डिया मेरा हमेशा से ही पसंदीदा भाग रहा है पर अभी तक जा नही पाया हूँ. वहां एशिया का सबसे क्लीन गांव देखना है, और वो नेचुरल ट्री रुट ब्रिज भी, पर जून में तो काजीरंगा बंद हो जाता है. असम का सबसे खास attraction मेरे लिए बस काजीरंगा ही तो है. अब वही बंद है तो जाकर क्या करूंगा.
आख़िर में सिक्किम जाना फाइनल किया. क्या पता वहाँ थोड़ी बहुत ट्रैकिंग भी कर लूं. नेट पर सर्च किया तो कुछ लोग भी मिल गए जो बाइक रेंट पर देते हैं दार्जलिंग और आस पास के एरिया में, हम्म्म ये ही ठीक रहेगा. दार्जीलिंग से गंगटोक बाइक से जाया जाए. बाइक का नाम आते ही आँखों के सामने तुरंत बैलेंस शीट घूम गयी, दिमाग के कैलकुलेटर ने सारी गुणा भाग कर के बटुए की औकात को रेड लाइन पर ला पटका. बाइक का प्लान केंसल कर के पब्लिक ट्रांसपोर्ट के सहारे ही आगे बढ़ने का फ़ैसला किया. मन कसमसा कर रह गया. मिडिल क्लास आदमी और कर भी क्या सकता है. खैर अपना तो हुनर ही है पैसे की वजह से कोई टूर कभी रद्द नहीं किया, इस बार भी देख लेंगे. जब तक टूर में परेशानी ना आये तो कैसा टूर, लिमिटिड बजट मेरी पहली परेशानी थी.
जगह आख़िर क्षण मे फाइनल हुई तो रेल की टिकट के लिए सुबह 5 बजे से नई दिल्ली की तत्काल बुकिंग की लाइन मे लगना पड़ा. गुरुद्वारे के लंगर के जैसे लाइन हर पल लंबी ही होती गयी, सुबह 10 बजे जब तत्काल बुकिंग की टिकेट विंडो ओपन हुई तो नई दिल्ली – डिब्रूगढ राजधानी की टिकट मिल गयी.
अगले दिन सुबह 9.35 पर मैं और मेरा दोस्त अक्ष नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर 16 पर अपने अपने बैग के साथ हाज़िर थे. ट्रेन अभी प्लेटफॉर्म पर लगी नहीं थी तो हम दोनों इधर उधर नज़र घुमा कर आस पास के मुसाफिरों को अपनी अपनी नज़रों से तौलने लगे. अभी मैं अपना निरीक्षण कर ही रहा था कि एक गूँज सुनाई दी. कान की इंद्रियों ने दिमाग़ को तुरंत अलर्ट मैसेज भेजा. इधर आँखो ने भी अपनी दूरबीन को गूँज की दिशा मे मोड़ा. सामने एक विशालकाय लड़की घुटने से उपर तक का काले रंग का भद्दा सा फ्राक पहन कर खड़ी दिखाई दी. पैरों पर एक जालीदार गाउन जैसा कुछ कपड़ा सा चढ़ाया हुआ था, सर पर जालीदार कपड़े का एक फूल सा बनाकर उसको एक साइड मे तिरछा सा कर के टीकाया हुआ था. एक छोटा टुकड़ा उसी जालीदार कपड़े का आधे चेहरे को घूँघट की तरह ढंका हुआ था और वो गूँज उसी लड़की के द्वारा मारे गये एक झन्नाटेदार तमाचे की थी जो उसने अभी अभी एक मनचले लड़के को जड़ा था.
थप्पड़ खा कर लड़का सर नीचे कर के चलने लगा तो लेडी सिंघम ने पीछे से एक जोरदार लात भागते लड़के के पीछे जमा दी. ठुकाई करवाने के बाद लड़का शरीफ गाय सा हो गया और पूंछ उठा कर वहाँ से चुपचाप निकल लिया. इधर लेडी सिंघम का रौद्र रूप जारी था, उसने तुरंत फोन निकाला ओर किसी को फोन कर ऑर्डर से देने लगी. मन में कुछ शंका हो इस से पहले उसके हाथ में पकड़ी इनस्पेक्टर टाइप की पुलिसिया कैप दिखाई दी. लड़की ने तुरंत अपने बैग से काले रंग का चमकता हुआ पुलिसिया डंडा भी निकाल लिया और लगी इधर उधर तेज़ी से घूमने, ऐसा लग रहा था उसकी भुजाएँ अभी भी फड़क रही थी, मन में सोचने लगा अगर वो लड़का अभी इसको मिल गया तो ये कहीं आज उसको मृत्यु लोक के दर्शन ही ना करा दे.
इससे पहले कि मैं अपने रायचंद वाले मोड में आकर अपने आप को लड़की के एक्शन पर कोई राय देता चमकती हुई साफ सुथरे डब्बों वाली राजधानी के हॉर्न ने मेरे उड़ते विचारों पर रोक लगाई. लेडी सिंघम और मैं दोनो ही अपना अपना समान समेट कर राजधानी मे सवार हो चुके थे.
लगभग 30 घंटों के राजधानी के सफ़र ने उबा दिया. अक्ष इस पूरे समय के दौरान ट्रेन की लोअर बर्थ पर पड़े पड़े कंबल को अपने चारों तरफ लपेट कर उसको सुरंग का रूप दे चुका था. वो जब कभी कभार बाथरूम जाने के लिए सुरंग से बाहर निकलता तो मैं उतनी देर उसकी बनाई हुई सुरंग मे घुस जाता. मैं पूरे रास्ते में पड़ने वाले स्टेशनों के नाम याद करने की असफल कोशिश करता हुआ अपना टाइम पास करता रहा. बीच बीच में राकेश तिवारी की लिखी हुई “सफ़र एक डोंगी मे डगमग” पढ़ता रहा. राकेश जी ने इस किताब में बड़े ही शानदार तरीके से अपनी एक डोंगी से दिल्ली से कोलकाता तक पूरी की गयी यात्रा का कदम दर कदम वर्णन किया है. यह यात्रा पूरी करने मे उन्हे जहाँ 62 दिन का समय लगा वहीं यह किताब लिखने मे पूरे 30 साल लग गये. यात्रा वृतांत पर लिखी गयी यह एक अच्छी किताब है. उधर राकेश जी की डोंगी हिचकोले खाते हुए और इधर मेरी राजधानी धड़क धड़क करते हुए आगे बढ़ रही थी. बीच बीच में अक्ष के करवट बदलने से मेरी निगाहे डोंगी से हट कर खिड़की पर लग जाती.
पीठ पर लदे बैग को देखते ही न्यू जलपाईगुडी स्टेशन पर टैक्सी और ट्रेवल एजेंसियों के राजदूतों ने अपने पूरे प्रतिनिधिमंडल के साथ हमे घेर लिया. अभिमन्यु की तरह चक्र व्यूह को भेदते हुए हम स्टेशन से बाहर निकले और फिर वहीं दोपहर का खाना खाकर आगे का सफ़र तय करने का निर्णय लिया. ज़्यादा बजट नहीं था तो शुरुआत से आख़िर तक पब्लिक ट्रांसपोर्ट ही प्रयोग करने का फ़ैसला पहले ही हो चुका था.
न्यू जलपाईगुडी स्टेशन से शेयर्ड ऑटो पकड़ कर सिलिगुड़ी बस स्टैंड पहुँचा. बस स्टैंड पहुंचते पहुंचते 3 बज चुके थे इसलिए दार्जीलिंग की सभी बस निकल चुकी थी. ट्रैवल एजेन्सी के राजदूत यहाँ भी आ धमके, बड़ी मुश्किल से उनको चीरते हुए शेयर्ड टैक्सी स्टैंड पहुँचा. प्रति सवारी 130 रुपये मे सौदा तय होने के बाद टाटा सूमो की आगे की सीट पर काबिज हो गया. इस से पहले कि टाटा सूमो चले आपको ड्राइवर का परिचय दे दूं. लगभग 35 वर्षीय खेल बहादुर दार्जीलिंग के ही रहने वाले हैं. गुस्सैल स्वभाव के, खैर रास्ते में हमे थोड़ा बहुत बताते हुए भी चलते हैं.
जल्दी ही हमारी टैक्सी सिलिगुड़ी शहर की भीड़ को पार करते हुए शहर से बाहर पहुँच गयी. सुकना आर्मी ज़ोन शुरू होते ही मनमोहक हरियाली का दर्शन पूरे सफ़र मे पहली बार हुआ, 20 मिनिट के एक ब्रेक के साथ ही खेल की ख़टारा टाटा सूमो ने लगभग 5.30 हमें दार्जीलिंग पहुँचा दिया. एक राजदूत से बात करने पर उसने 700 रुपये में हमें एक ठीक ठाक से होटेल में एक कमरा दिलवा दिया. दार्जीलिंग घूमने का ज़्यादा प्लान नहीं था सो रात का खाना खाकर अक्ष और मैं अपनी अपनी सुरंग मे घुस गये. अक्ष को देख देख कर अब तक मैं भी सुरंग बनाना सीख चुका था.
सुबह दार्जीलिंग की प्रसिद्ध टॉय ट्रेन की एक राइड पूरी कर के माल रोड का एक चक्कर लगाया और गंगटोक तक का सफ़र तय करने के लिए दोपहर मे लगभग 1 बजे टॅक्सी स्टैंड जा पहुँचे. किस्मत से रास्ते में ही एक खाली बोलेरो टैक्सी मिल गयी, ड्राइवर से बातें शुरू की तो उसने अपना नाम जेम्स बताया. लगभग 25 वर्षीय जेम्स सिक्किम के लाचूंग कस्बे का रहने वाला है. गाड़ी काफ़ी नयी थी पर ये उसकी खुद की नहीं थी.
जेम्स बहुत ही कम बोलने वाला एक खुशमिजाज सा लड़का है. गाड़ी के दार्जीलिंग से बाहर निकल कर गंगटोक वाले हाइवे पर आते ही मनमोहक नज़ारे शुरू हो गये, ऐसा लगा जैसे हरियाली का कोई ज़बरदस्त विस्फोट हुआ हो और चारों तरफ हरियाली बिखर गयी हो. सामने शैतान बादल और ऊपर नीला आसमान, जैसे किसी ने एक बाल्टी में नीला पेंट घोल कर उस आसमान को रंग दिया हो.
एकदम शानदार सड़कें, हरे भरे जंगल और पहाड़, हल्की हल्की बारिश, बादलों के झुंड और ऊपर से जेम्स की नयी गाड़ी. दिल झूमना शुरू हो चुका था पेट की तितलियाँ ज़ोर ज़ोर से फड़फडाने लगी थी. चेहरे पर एक अनदेखी सी चमक तैरने लगी, रास्ते भर इतने शानदार नज़ारे थे कि मैंने लगभग 4 घंटे के पूरे रास्ते मे अक्ष से एक भी बार बात करने की कोशिश नहीं की. वो शानदार चीज़ें मैं बातों में लग कर मिस नहीं करना चाहता था.
कभी पेड़ों से भरे पहाड़ शुरू हो जाते तो कभी चाय के खेत, चाय के बागानों मे काम करते हुए लोग बड़े खुशनसीब से लगने लगे. कार में बैठ कर इन सबके बीच से यूँ निकल जाना मुझे कुछ अखरने लगा तो मैंने जेम्स को कुछ देर कार रोक देने को बोला. वैसे तो वो शेयर्ड कार थी पर उसमें हम दोनों के अलावा कोई और सवारी नहीं थी तो जेम्स ने भी जगह देख कर एक चाय के बागान के पास कार रोक दी.
मैं और अक्ष कैमरा लेकर चाय के खेतों मे कूद पड़े, लगभग 20 मिनट जी भर कर कूद फाँद करने के बाद थोड़े भीगे हुए हम कार में वापिस आ बैठे. थोड़ी ही देर में हमारा कारवाँ वेलकम टू सिक्किम का रंगबिरंगा गेट पार कर गया. रास्ते में एक छोटे से ढाबे पर चाय ब्रेक लेने के बाद तीस्ता नदी के किनारे किनारे फ़र्राटे मारती हुई जेम्स की बोलेरो ने शाम को 5.30 बजे मुझे मेरी सपनों की नगरी गंगटोक में पहुँचा दिया.
शायद मैं दिखने में कुछ ज़्यादा ही ग़रीब दिखता हूँ इसलिए जेम्स ने ही एक सस्ता सा होटेल भी दिला दिया. होटेल के मैनेजर से बात करने पर 500 रुपया प्रतिदिन का सौदा तय हुआ. दिमाग़ फिर से गुणा भाग वाले रास्ते पर चला गया. आर्यभट्ट को भी पीछे छोड़ते हुए मेरे दिमाग़ ने तुरंत अलर्ट भेजा कि अगर 4 दिन भी रुका तो सिर्फ़ 2000 होटल के हो जाएँगे. धत्त तेरी की थोड़ी और कूटनीति से काम लेता तो बात 400 में फाइनल हो जाती.
दिमाग़ के जासूसी विभाग ने बेचारे जेम्स को भी शक की निगाहों से देखा, क्या पता इसका भी कमीशन हो इसमें. अगर खुद से आता तो 100 रुपये तो पक्का बचा सकता था, जेम्स की नेकी का बदला जासूसी विभाग ने शक से दिया. समान रूम में फेंक कर तुरंत बाहर भागे, रास्ता पूछते पूछते मशहूर एम जी रोड पर पहुँचा. अगले दिन नाथुला पास घूमने का निर्णय हुआ था इसलिए पर्मिट का इंतज़ाम आज ही करना ज़रूरी था.
कल इतवार है अगर कल नहीं जा पाए तो सोमवार और मंगलवार को नाथुला पास विज़िटर के लिए बंद हो जाता है. ऐसी परिस्थति में हम 2 दिन गंगटोक में ही बैठे रह सकते थे जिसकी इज़ाज़त मेरी जेब बिल्कुल नहीं दे रही थी. ट्रेवल एजेंसियों के राजदूत लगातार मक्खियों की तरह भीनभिनाते रहे. छोटी गाड़ी का रेट 5500 और 10 सीट वाली बड़ी गाड़ी का रेट 7500 फिक्स था. 2 लोगों के लिए पूरी गाड़ी बुक करना किसी भी नज़र से किफायती नहीं लगा तो मैंने मेरे जैसे ग़रीब से दिखने वाले कुछ और लोगों को साथ चलने के लिए तैयार कर लिए.
बड़ी गाड़ी का किराया 3 हिस्सों में बराबर बाँटने के बाद मेरे और अक्ष दोनों के हिस्से में कुल 2500 रुपये आए. अगले दिन सुबह 8 बजे टैक्सी स्टैंड पर मिलने का तय कर के हम सब वाहन से अपने अपने रास्ते चल दिए. मैं और अक्ष थकने के बाद भी घंटों वहीं टहलते रहे, गंगटोक शहर की खूबसूरती को शब्दों में बयान करना यहाँ लगभग नामुमकिन है.
बेहतरीन साफ सफाई, बड़े ही कायदे से चलता यातायात और कदम कदम पर मुस्तैद पुलिस के जवान इस शहर के सबसे बड़े आकर्षण का केंद्र हैं. 4 दिनों तक पूरे शहर मे लेंस लेकर खोजने से भी मुझे एक कागज का टुकड़ा कहीं सड़क पर नहीं मिला. वहीं एक कोने की दुकान पर पूड़ी, सब्जी और मोमोज़ खाने के बाद रूम में पहुचें और अपनी अपनी सुरंग तैयार कर उसमें घुस गये.
दिमाग़ पूरे दिन नज़रों के सामने से गुज़री तस्वीरों को एक एक कर याद करने लगा, क्या शानदार दिन था. सुबह 6 बजे से शाम के 9 बजे तक घूमने के बाद भी एकदम फ्रेश फील कर रहा था. क्यूँ नहीं मैं यही कहीं कोने में एक छोटा सा घर ले लेता हूँ, दिन में मोमोज़ बेचता रहूँगा और शाम को वहीं सो जाया करूँगा. थोड़े से पैसे जोड़ लेने के बाद एक छोटी गाड़ी लेकर उसको टूरिस्ट के लिए चलाया करूँगा. सुबह रोज एक घंटे ताजी हवा में योग करना और शाम को रोज एक घंटे कुछ किलोमीटर की ट्रेकिंग, वाह क्या जिंदगी होगी. अच्छा मेरे दिमाग़ अब ऐसा करो सो जाओ, बाकी के सपने कल देख लेना. गुड नाइट!!
सुबह तय समय पर हम सभी लोग एम जी रोड पर एकट्ठे हो गये. पिछले दिन ज़्यादा सर्दी नहीं थी सो हमने अपनी जैकेट ना लेकर एक हल्की सी स्वेटर साथ ले ली. कैमरा और फोन पूरे चार्ज थे. गाड़ी आते ही बेशरमों की तरह अक्ष ने कूदकर सबसे आगे वाली सीट घेर ली. बाकी लोग मन ही मन कुढ कर रह गये. मैंने आखों ही आखों में अक्ष को एक महान जंग जीतने के लिए बधाई दी. जब सब लोग गाड़ी मे जॅंच गये तो 8 बजे गाड़ी निकल पड़ी.
इससे पहले की गाड़ी कहीं पहुँचे मेहमानों का परिचय कुछ यूँ है – 2 दोस्त सोनू और रौशन, राँची से आए हुए हैं. दोनो टाटा स्काई कंपनी मे कार्यरत हैं. सोनू घर घर जाकर टाटा स्काई इनस्टॉल करता है इसलिए पूरे सफ़र के दौरान उसका फोन बार बार बजता रहता है. दूसरा परिवार जलज का है. जलज राजस्थान का मारवाड़ी व्यवसायी है. जलज अपनी पत्नी, एक 2 साल की बेटी और सास ससुर के साथ गंगटोक घूमने आए हैं. और आख़िर मे हमेशा की तरह मेरा पसंदीदा व्यक्ति दोरजी सूमो का ड्राइवर. मृदु स्वभाव का दोरजी नाथुला पास से 4 किलोमीटर दूर रहने वाला एक सिक्कीमी युवा है. गाड़ी उसकी खुद की ही है.
एक जगह चेकिंग और 10 रुपये की एंट्री टिकेट लेने के बाद गाड़ी सपाट सुंदर सड़कों पर सरपट दौड़ पड़ी. बीच बीच में बारिश होती फिर बंद हो जाती. चारों तरफ घनघोर हरे भरे जंगल, भाँति भाँति के रंग बिरेंगे फूल, पहाड़ों की ये ऊंची-ऊंची चोटियाँ और बादलों के छोटे छोटे गुच्छे पहले ही शरीर के रोंगटे खड़े कर चुके थे. लगभग डेढ़ घंटा चलने के बाद पहला पड़ाव सिक्किम की मशहूर सोमगो लेक पर हुआ. स्थानीय लोग इसको छान्गू लेक बोलते हैं.
चारों तरफ से पहाड़ों से घिरी पानी से लबलब भारी एक अति सुंदर झील चारों तरफ से बौध धर्म के रंग बिरंगे कपड़ों के झंडों से ढंकी हुई है. बादलों के छोटे छोटे गुच्छे झील में डुबकी लगा रहे थे. शायद सुबह का स्नान करने आए हों. जगह जगह बॉर्डर रोड ऑर्गनाइज़ेशन (BRO) और सिक्किम सरकार के द्वारा लगाए गये बोर्ड लोगों को कचरा ना फैलाने के लिए प्रेरित कर रहे थे. आधे घंटे मे कोई 2 दर्जन फोटो खींचने के बाद हमारा जत्था अपने दूसरे पड़ाव के लिए चल दिया.
बाबा मंदिर
रोंगटे खड़े कर देने वाले इतिहास और वर्तमान को समेटे हुए यह मंदिर भारतीय सेना के लिए किसी धाम से कम नहीं है. बाबा हरभजन सिंह का मंदिर सैनिकों और लोगों दोनों की ही आस्थाओं का केंद्र है. इस इलाके में आने वाला हर नया सैनिक सबसे पहले बाबा का आशीर्वाद लेने ज़रूर आता है. भारतीय सेना के स्वर्गीय सैनिक हरभजन सिंह 24वे पंजाब रेजिमेंट के जवान थे जो कि 1966 में आर्मी में भर्ती हुए थे. पर मात्र 2 साल की नौकरी करके 1968 में, सिक्किम में एक दिन जब वो खच्चर पर बैठ कर नदी पार कर रहे थे तो खच्चर सहित नदी में बह गए. नदी में बह कर उनका शव काफी आगे निकल गया. दो दिन की तलाशी के बाद भी जब उनका शव नहीं मिला तो उन्होंने खुद अपने एक साथी सैनिक के सपने में आकर अपनी शव की जगह बताई.
यह मंदिर गंगटोक में जेलेप्ला दर्रे और नाथुला दर्रे के बीच, 13000 फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है. पुराना बंकर वाला मंदिर इससे 1000 फ़ीट ज्यादा ऊंचाई पर स्थित है. मंदिर के अंदर बाबा हरभजन सिंह की एक फोटो और उनका सामान रखा है. मंदिर में बाबा का एक कमरा भी है जिसमें प्रतिदिन सफाई करके बिस्तर लगाए जाते है. बाबा की सेना की वर्दी और जूते रखे जाते हैं. कहते हैं कि रोज़ पुनः सफाई करने पर उनके जूतों में कीचड़ और चद्दर पर सलवटे पाई जाती है. सैनिको का कहना है कि हरभजन सिंह की आत्मा, चीन की तरफ से होने वाले खतरे के बारे में पहले से ही उन्हें बता देती है.
और यदि भारतीय सैनिकों को चीन के सैनिकों का कोई भी मूवमेंट पसंद नहीं आता है तो उसके बारे में वो चीन के सैनिको को भी पहले ही बता देते हैं ताकि बात ज्यादा नहीं बिगड़े और मिल जुल कर बातचीत से उसका हल निकाल लिया जाए. आप चाहे इस पर यकीन करें या ना करें पर खुद चीनी सैनिक भी इस पर विश्वास करते हैं. इसलिए भारत और चीन के बीच होने वाली हर फ्लैग मीटिंग में हरभजन सिंह के नाम की एक खाली कुर्सी लगाईं जाती है ताकि वो मीटिंग अटेंड कर सके. आर्मी की तरफ से बाबा की सेलरी आज भी उनके अकाउंट मे जमा की जाती है. बाबा मंदिर के दर्शन किए बिना गंगटोक की यह यात्रा कैसे पूर्ण मानी जाती मैं सारे रास्ते यही सोचता रहा.

नाथुला पास
परमिट लेने के बाद गाड़ी शानदार पहाड़ी रास्तों से होते हुए दिन के आख़िरी गनतव्य की तरफ दौड़ चली. BRO के द्वारा किए गये अद्भुत काम को देख कर मन सम्मान से भर उठा. जगह जगह लैंड स्लाइड होने की वजह से पूरी की पूरी पहाड़ी तक खिसकी हुई दिखाई दी पर इनके साहस और काम को सलाम जो उसने रोड बंद नहीं होने दिया और तुरंत नये नये रास्तों का निर्माण किया. कैप्टन स्ट्रीट डागर गेट पर परमिट चेक कराने के बाद हमें नाथुला पास के लिए 4 किलोमीटर का रास्ता और तय करना था.
बारिश और उँचाई की वजह से ठंड पहले ही काफ़ी बढ़ चुकी थी और मैं अपनी स्वेटर पहनने के बाद भी कांपना शुरू कर चुका था. गाड़ी के शीशे उपर कर लिए गये. अक्ष ने पहले ही रास्ते में एक छोटी सी दुकान से 100 रुपये में एक हेवी जैकेट किराए पर ले ली थी. उसको पहाड़ के नाम से ही ठंड लगनी शुरू हो जाती है. तभी तो ट्रेन में भी पूरे रास्ते कंबल से बाहर नहीं निकला.
बेहद खूबसूरत नज़ारों को चीरते हुए दोपहर 1.30 बजे हम नाथुला पास पहुँचे. दोरजी ने सख्त हिदायत दी कि यहाँ ऑक्सिजन की कमी महसूस हो सकती है. इसलिए ऐसा होने पर ऊपर जाने की बजाय जितना जल्दी हो सके नीचे गाड़ी में आकर बैठना है. दोरजी को अनसुना कर मैं तुरंत गाड़ी से कूदा और उपर चढ़ने के लिए सीढ़ियों की तरफ भागा. मुझे भागते हुए देख अक्ष भी मेरे पीछे ही लपका.
जहाँ गाड़ी रुकती है वहाँ से करीब 50 सीढ़ियाँ उपर चढ़कर नाथुला पास को बिल्कुल सामने से देखा जा सकता है. पर ये क्या, मुश्किल से 5 सीढ़ी चढ़ने के बाद ही हम दोनो बुरी तरह हाँफने लगे. बढ़ती उम्र, खराब खाना, बेहद खराब स्टेमिना सब कुछ दिमाग़ मे कौंध गया. लगा कि घर जाते ही एक्सर्साइज़ शुरू करूँगा. मुझे अपने आप पर विश्वास नहीं हो रहा था कि किसी जमाने का स्टेट लेवल का एथलीट सिर्फ़ 30 की उम्र मे 5 सीढ़ियाँ चढ़ते ही कैसे हाँफने लगा. थोड़ी देर रुकने के बाद फिर धीरे धीरे ऊपर बढ़ने लगे. अबकी बार 10 फिर 5 करके किसी तरह लगभग 20 सीढ़ियों तक पहुँच कर आँखों के आगे अंधेरा छा गया. मुँह पूरा खुला हुआ था. सांस लेने के समय मुँह से घें घें की आवाज़ आने लगी.
दोनों आखें बड़ी बड़ी फूल कर बाहर को आ गयीं. नाक पूरा लाल हो गया. ऐसा लग रहा था शरीर का हर हिस्सा सांस लेने के लिए तड़प रहा है. सिर्फ़ दिल ही नहीं पूरी छाती धड़कने लगी. बाहर से ठंड लग रही थी पर अंदर से पसीने की वजह से शर्ट पूरी भीग चुकी थी. दोनों खड़े होकर हाँफने लगे. मेरा ध्यान अक्ष की तरफ गया तो उसको देख मैं बुरी तरह से चौंका. उसके होठ नीले पड़ चुके थे और मुँह घें घें की आवाज़ के साथ पूरा खुला हुआ था. अक्ष ने हाथ खड़े कर दिए और बोला कि बस अब और नहीं चल सकता. मुझे उसी पल समझ आया की ये स्टेमिना की कमी नही है, दरअसल ये कम ऑक्सिजन लेवल का असर है.
आस पास के लोगों को देखा तो सभी हाँफते हुए दिखे. अक्ष की हालत देख कर अजय सोडनी की “दर्रा दर्रा हिमालय” याद आ गयी. अजय जी ने इसमे बताया है कि कैसे हिमालय चढ़ने के दौरान उनकी पत्नी को लो ऑक्सिजन की वजह से मेंटली डिसॉर्डर होने का ख़तरा बढ़ गया था. इस किताब मे साथ ही अजय जी ने यह भी बताया है कि अगर ऐसा होता है तो इसका एक ही इलाज है कि जितनी जल्दी हो सके प्रभावित व्यक्ति को तुरंत नीचे की तरफ लेकर भगाया जाए. मैं सोच में पड़ गया. मैं ये नहीं चाहता था कि अक्ष बिना पास देखे ही नीचे लौट जाए और साथ ही मैं कोई रिस्क भी नहीं लेना चाहता था.
मैंने अक्ष को तुरंत सारी बात समझाई और आख़िरकार 14200 फीट की उँचाई पर पहुँच कर कुदरत के निर्णय का सम्मान करते हुए मैंने अक्ष को नीचे लौट जाने को बोला. बीच रास्ते में ही एक छोटी सी चाय की दुकान थी. अक्ष को थोड़ी देर दुकान में आराम कर के नीचे जाकर गाड़ी में बैठ जाने का समझा कर मैं उदास मन से ऊपर की तरफ चला. अब तक मैं समझ चुका था कि मुझे हर 2 सीढ़ी चढ़ने के बाद कुछ सेकेंड के लिए रुकना है. और फिर जल्दी ही मैं पहुँच चुका था अपने जीवन में चढ़ी गयी अब तक की सबसे उँची जगह पर. जी हाँ ये है नाथुला पास.
शानदार-जिंदाबाद-ज़बरदस्त. चाइना और इंडिया के बॉर्डर के गेट, बॉर्डर के दोनों ओर दोनों देशों की एक एक बिल्डिंग, सैनिक चौकियाँ, बीच में एक हल्का सा काँटों वाला तार और दोनों ओर दोनों देशों के बहादुर सैनिक…. वाह, अद्भुत, सलाम मेरे देश के इन बहादुरों को. देश से की गयी सारी वफ़ादारी, गद्दारी, प्यार, गुस्सा, मोहब्बत सब याद हो आई. हम जब मीलों दूर बैठ कर सर्दी गर्मी, भीड़, यातायात, कम ज़्यादा बारिश का रोना रो रहे होते हैं उस समय भारत माँ के ये लाल यहाँ प्रहरी बने खड़े होते हैं. एक जवान चौहान साहब से कुछ देर बात हुई. उनसे हाथ मिलाया और उनके कदम चूम लेने का मन हुआ पर संकोच वश ऐसा कर नहीं सका. जिंदगी में पहली बार साक्षात मौत और भगवान दोनों को फील किया. चौहान जी को उनकी बहादुरी भरी ड्यूटी के लिए थैंक यू बोला और नियमों को तोड़ते हुए बॉर्डर की एक फोटो खींच ली. वापिस उतरते हुए अपने आप को बेहद छोटा और शर्मिंदा महसूस कर रहा था. एक बार फिर से भारत माता और उसके उन बहादुर बेटों को दिल से सलाम बोला और तेज़ी से गाड़ी मे लौट आया जहाँ अक्ष पहले से ही वेट कर रहा था.

गंगटोक साइट सीन
गंगटोक के आस पास बेहद खूबसूरत जगह हैं जहाँ सैलानी बड़ी संख्या मे घूमने जाते हैं. सिक्किम की सबसे बड़ी रूमटेक मोनेस्ट्री, गणेश टोंक, हनुमान टोंक इत्यादि इनमें से प्रमुख हैं. हर जगह के लिए प्राइवेट टैक्सी बड़ी आसानी से उपलब्ध हैं.
अगले दिन रूमटेक मोनेस्ट्री और कुछ और जगहों पर घूम कर एक दिन बाद गंगटोक को अलविदा कहने का समय आ गया था. उदास मन से रात को पैकिंग कर के सुबह सुबह सिलिगुड़ी के लिए शेयर्ड टैक्सी पकड़ कर चल दिए. रास्ते में बादलों के झुंड के झुंड तीस्ता नदी में नहाते हुए दिखाई दिए. चलती गाड़ी में खिड़की से बाहर निकल कर मुँह खोल कर पहाड़ों की ताज़ी हवा मुँह में भर कर खाने की कोशिश करने लगा. उस हवा को दोनों मुट्ठियों में और खूबसूरती को नज़रों में हमेशा के लिए बसा लिया. गीले बादल गाड़ी के आगे से उमड़ घुमड़ कर गुजर रहे थे. तभी बादलों ने एक गीली सी थपकी मेरे गालों पर दी और मुझे अलविदा कहा. ए सिक्किम प्यार है या नशा है तेरा ये रूप, अजब गजब सिक्किम, लोंग लिव सिक्कीमीस.
क्यूँ जाएं
अगर आपको हर छोटे बड़े काम के लिए सिस्टम या सरकारों को कोसने की आदत है तो एक बार सिक्किम जाकर ज़रूर देखना चाहिए. सिक्किम का हर छोटा बड़ा आदमी कितनी शिद्दत से एक नागरिक का होने का फ़र्ज़ निभाता है ये देख कर आप शर्मिंदा भी हो सकते हैं. पहाड़ों में चौड़ी, सपाट और शानदार सड़कें, बेहतरीन साफ सफाई, फ्लौरा एंड फियोना, दिलकश मौसम, दिलदार लोग, चाइना बॉर्डर और कुछ अच्छी छुट्टियाँ बितानी हैं तो सिक्किम ज़रूर जाएँ.
कब जाएँ
गंगटोक एरिया का सबसे पीक सीज़न दिसंबर से मार्च तक होता है. इस समय चारों तरफ आपको बर्फ के अलावा शायद ही कुछ दिखाई दे. एमजी रोड के टैक्सी स्टैंड से पीक सीज़न में जहाँ 1500 टैक्सी चलती हैं वहीं ऑफ सीज़न में मात्र 40 से 50. अगर भीड़, लंबे ट्रैफिक जाम और महंगे होटलों से बचना है तो मई के बाद जाना बेहतर होगा. साथ ही चाहे जिस मौसम में जाएँ एक जैकेट, अच्छा कैमरा, कुछ फोटो ओर एक आइडेंटिटी प्रूफ ले जाना ना भूलें.