राह चलते अगर कहीं “ख़य्याम साहब” की धुन कानों में पड़ जाये तो दिल करता है पूरा सुन के ही आगे बढ़ें. सबसे मधुर, सबसे अलग बंदिशें बाँधने वाले इस संगीतकार के ख़जाने में क्या क्या नहीं है “उमराव ज़ान” के सिवा भी.
मैने ख़य्याम साहब के जो गाने सबसे पहले सुने थे.. “ठहरिये होश में आ लूं तो चले जाइयेगा(मोहब्बत इसको कहते हैं)” ,
“जाने क्या ढूंढती रहती हैं ये आँखे मुझमें, राख के ढे़र में शोला है ना चिंगारी है (शोला और शबनम),
तुम अपना रंज ओ गम, अपनी परेशानी मुझे दे दो (शगुन)
“कहीं एक मासूम, नाजुक सी लड़की, बहुत खूबसूरत मगर साँवली सी” (शंकर हुसैन)…
“आप यूं फासलों से गुजरते रहे, दिल से कदमों की आवाज आती रही” (शंकर हुसैन)
“बहारों मेरा जीवन भी सवांरो” (आखरी ख़त)
“हम पे जो गुजरती है तन्हा किसे समझाये, तुम भी तो नहीं मिलते जायें तो कहाँ जायें (मोहब्बत इसको कहते है- सुमन कल्याणपुर)
“सिमटी हुवी ये घड़ियाँ” (चंबल की कसम)
इन गानों मे एैसा जादू था जो एक बार चढ़ा तो फिर कभी ना उतरा.
अपने फन के माहिर ख़य्याम साहब एक किस्से का जिक्र करते हुवे बताते हैं – “राजकपूर ने एक बार बुलाकर कहा ‘ख़य्याम इम्तिहान दोगे’, हमने कहा- ज़रूर देंगे बताईये. फिर राज कपूर ने कहा…. एक फिल्म शुरू कर रहे हैं, “फिर सुबह होगी”.. साहिर गाने लिख रहे है आप कुछ धुनें बनाकर लाओ, देखते है.
कुछ दिनों की सिटींग के बाद ख़य्याम साहब कुल छह धुनें बनाकर राजकपूर के पास गये. अपनी संगीत परख और समझ के लिये ‘जाने’ जाने वाले राज कपूर को सारी धूनें इतनी पसंद आयी कि उन्होनें वो सारी धुनें फिल्म में रखी… याद करिये… “वो सुबह कभी तो आयेगी, वो सुबह कभी तो आयेगी”….”आसमाँ पे है ख़ुदा और जमीं पे हम”….
साहिर लुधियानवी के साथ यहाँ से शुरू हुआ सफर साहिर की आखरी साँस तक चला… “फिर सुबह होगी”, “त्रिशूल” और क्लासिक “कभी-कभी” तक.
‘कभी कभी’, ‘उमराव ज़ान’ और ‘बाज़ार’ के लिये “फिल्म फेयर” भी मिला. आशाजी से जैसा आपने ‘उमराव जान’ में गवाया वो कोई सोच भी नहीं सकता था.
जितनी गहरी, जितनी गाढ़ी शायरी होती है उतना ही गहरा रंग वो अपनी धुनों में घोलते हैं. साहिर, कैफी आज़मी, मजरूह, शहरयार, मीर तकी मीर, मकदूम, नीदा फाजली, अली सरदार जाफरी और गुलज़ार साहब की नज्मों और गज़लों को वो बड़ी आसानी से आपके होठों पर सजा देते है और आप उसमें खो जाते हैं.
“मोहब्बत इसको कहते है”, “शगुन”,
“शोला और शबनम”, “शंकर हुसैन”,
“फिर सुबह होगी”, “आख़री ख़त”,
” फुटपाथ”, “त्रिशूल”,
” कभी कभी ” “रजिया सुल्तान”,
“थोड़ी सी बेवफाई”, “दर्द”,
“दिल ऐ नादान”, ” आहिस्ता आहिस्ता”,
” बाजा़र”, “उमराव जान”
“नूरी”, ” परबत के उस पार”
“चंबल की कसम”
ये सिर्फ एक लिस्ट नहीं है हिंदी फिल्मी संगीत का वो खजाना है जिसे आप सुनना चाहेंगे बरसो तक.
आज हम “इयर फोन” लगाकर शायद “रेडियो युग” से भी ज्यादा संगीत सुन रहे हैं तो क्यूं ना हम ऐसा कुछ सुने जिनके लिये हमारे कानों के साथ साथ हमारी “रूह” भी हमारी शुक्रगुज़ार हो… “ख़य्याम” साहब का संगीत हमें उसी रूहानी सफर पर ले जाता है.
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