राबर्ट वाड्रा के केस में सरकार ने जो जाँच के आदेश दिए थे, वो वाड्रा की लैंड डील्स के थे. हरियाणा और राजस्थान में बीजेपी सरकारों ने इस बात की जाँच की कि वाड्रा ने पहले ज़मीन खरीदी, फिर ज़मीन को इस्तेमाल करने के नियम बदले गए (गुडगाँव में हॉस्पिटल से रेजिडेंशियल बिल्डिंग). जिसे वाड्रा ने आगे DLF को बेचा.
वाड्रा करप्शन चार्जेज़ से इसीलिए बचे क्योंकि सरकारी जमीन उन्होंने डायरेक्ट नहीं ली थी. पहले किसी शेल कंपनी को एलॉट हुई. उस कंपनी ने वाड्रा की स्काई लॉर्क कंपनी को बेचा और स्काई लॉर्क ने आगे DLF को बेचा.
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वाड्रा से ज्यादा दिक्कत हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता भूपिंदर सिंह हुडा और सरकारी अफसरों को थी जिन्होंने लैंड यूज़ के नियम बदले थे.
जमीन खरीदने के लिए वाड्रा ने DLF से ही लोन लेकर वही ज़मीन कई गुने दाम पर DLF को वापस बेची. लेकिन ये कानून की किसी किताब में अपराध नहीं है. न सरकार DLF से वाड्रा की कंपनी को मिले लोन की जाँच कर रही थी.
जय शाह के केस में विपक्ष, सेकुलर लिबरल कम्युनिस्ट किस बात की जाँच करवाना चाहते हैं. करप्शन का आरोप क्या है आखिर.
वाड्रा बच भले गए हों लेकिन साफ़ ज़ाहिर था कि किसे फायदा पहुँचाने के लिए लैंड डील्स हुई. अंतिम फायदा किसे मिला.
जय शाह के केस में कम्पनी को लोन मिला, लेकिन वो कंपनी लोन देने के बिज़नेस में ही थी. उसका लोन चुक गया. बमय ब्याज़ के. कंपनी का काम चला नहीं, नुकसान हुआ. कंपनी बंद हुई.
कंपनी प्राइवेट लिमिटेड थी. उसका ऑडिट भी हुआ. इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को रिटर्न्स गयी, सेल्स टैक्स में रिटर्न गयी. अगर कोई घोटाला होता तो क्या इन्हे मालूम होगा या नहीं.
द वायर ने ROC में सब्मिट दस्तावेजों के आधार पर रिपोर्ट पब्लिश की. उन्होंने ऑडिट रिपोर्ट, सेल्स टैक्स, इनकम टैक्स में कुछ मालूम करने की कोशिश क्यों न की?
क्योंकि उनका काम सही रिपोर्ट देना कभी था ही नहीं. उन्हें प्रोपेगेंडा चलाना था गुजरात चुनाव के पहले. उनका काम मिस-रिपोर्ट करके ही हल हो जाना था.