श्रीमद्भागवत गीता और श्रीकांत बोला- भारत की अनसुनी कहानियों में से एक कहानी है श्रीकांत की कहानी. ये वो क्रिकेट वाले नहीं इसलिए श्रीकांत बोला अज्ञात हैं. खेत मजदूरी और ऐसे ही छोटे मोटे रोजगार से गुजरा करके जो ग्रामीण परिवार साल के बीस हज़ार रुपये में गुजारा करते हैं, वैसे ही अनगिनत परिवारों में से एक में श्रीकांत भी जन्मे. जन्म से ही ये नेत्रहीन थे. कुछ पड़ोसियों ने उनके माँ बाप को सलाह दी कि गरीब का अँधा बच्चा क्या जीकर करेगा? नमक की डली चटाने, तकिया रख देने, या रात भर बाहर छोड़ देने जैसी मूर्खतापूर्ण सलाह उनके माँ-बाप ने नहीं मानी.
बच्चा बड़ा होने लगा तो उसे पास के ही एक स्कूल में भी डाल दिया. अंधे बच्चे से ना कोई बात करता, ना कक्षा का कुछ ख़ास उसे समझ आता तो वो सबसे आखिर में कोने में दुबका बैठा होता था. कुछ दिन बाद उसके पिता को हैदराबाद के एक नेत्रहीनों के स्कूल का पता चला तो उन्होंने श्रीकांत को वहां डाल दिया. जैसे ही श्रीकांत को मौका मिला वो ना सिर्फ पढ़ाई में अव्वल आने लगे, बल्कि क्रिकेट और शतरंज के भी अच्छे खिलाड़ी निकले. उसी दौर में भारत के पूर्व राष्ट्रपति, महर्षि कलाम का लीड इंडिया प्रोजेक्ट भी आया. श्रीकांत को उसमें महर्षि कलाम के साथ काम करने का मौका भी मिला.

“खुद की जिम्मेदारी पर” विज्ञान विषय चुनने की इजाजत
दसवीं में भी श्रीकांत नब्बे फीसदी से ऊपर नंबर ले आये. मगर अब समस्या ये थी कि भारत में नेत्रहीनों को विज्ञान विषय चुनने की इजाज़त ही नहीं! श्रीकांत अदालत जा पहुंचे और मुकदमा ठोक दिया. काफी खींच तान के बाद उन्हें “खुद की जिम्मेदारी पर” विज्ञान विषय चुनने की इजाजत मिली. अजीब ही बात है, बिहार वगैरह में लाखों बच्चों के फेल होने पर किसी सरकार, किसी शिक्षक या व्यवस्था को जवाबदेह तो नहीं देखा. मुझे पता नहीं कि “अपनी जवाबदेही पर” श्रीकांत के विज्ञान पढ़ने का क्या मतलब निकला जाए ? वैसे बारहवीं में श्रीकांत के 98% नंबर थे.
आई.आई.टी. और बी.आई.टी.एस. जैसे संस्थान भी नेत्रहीनों को अपनी प्रवेश परीक्षा नहीं देने देते थे. मजबूरन श्रीकांत पहले अंतर्राष्ट्रीय नेत्रहीन छात्र बने जो एम.आई.टी., शायद अमेरिका के विख्यात एम.आई.टी. स्लोन का नाम आपने सुना हो, वहां चले गए. वहां से पढ़ाई करने के बाद किस किस्म की नौकरियाँ मिलती है, उनका अंदाजा लगाया जा सकता है. श्रीकांत पढ़ाई पूरी कर के अमेरिका में नहीं रुके, वो वापस भारत काम करने आ गए. उन्होंने उपभोक्ता उत्पादों के लिए इको-फ्रेंडली पैकेजिंग का काम शुरू किया. फिलहाल उनके चार प्रोडक्शन प्लांट हैं और एक पूरी तरह सौर उर्जा से संचालित प्लांट आंध्रप्रदेश में बन रहा है.
उनके पास काम करने वाले लोगों में से सत्तर फीसदी लोग दिव्यांग हैं और उनका सेल्स टर्नओवर 500 करोड़ रुपये का है. उनसे पूछे जाने पर वो अपनी कामयाबी के बारे में कहते हैं कि जब दुनिया उनसे कहती कि तुम कुछ नहीं कर सकते तो उनका जवाब होता कि मैं कुछ भी कर सकता हूँ. कुछ भी!
यहाँ तक आ गये हैं तो बता दें कि धोखे से इस बार भगवद्गीता का केवल एक श्लोक पढ़ाया है. भगवद्गीता के अट्ठारहवें अध्याय का चौदहवां श्लोक कहता है, पांच हेतु यानि उपयुक्त देश, उद्यमशील कर्ता, समस्त इन्द्रियों का प्रयोग, बार बार चेष्टा और दैव एक साथ मिलते हैं तो कार्य में सफलता मिलती है. ये भगवद्गीता के अट्ठारहवें अध्याय का चौदहवां श्लोक है :-
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्.
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्..18.14..
ध्यान रहे कि भगवद्गीता में सात सौ ही श्लोक होते हैं, उसमें ना तो फ़ालतू शब्द हैं, ना काफ़िया मिलाने के लिए अक्षर-मात्राएँ जोड़ी गई हैं. इस वाक्य में भी समस्त इन्द्रियां लिखा हुआ है, “पांच ज्ञानेन्द्रियाँ या कर्मेन्द्रियाँ” नहीं लिखा हुआ. उपयुक्त देश लिखा है, जन्मभूमि या विदेश जैसे अंतर भी नहीं किये गए. क्रम देखेंगे तो आपके हिस्से के चारों पहले आते हैं, दैव या भाग्य आखरी है तो इन कर्मों से भाग्य बनेगा, बना बनाया नहीं मिलता, वो भी याद रखिये.
अगर खुद पढ़ने की कोशिश में दिक्कत होती हो तो भगवद्गीता को पढ़ने का एक तरीका ये भी है कि उसे आस पास, किसी सामने की जगह पर रखिये और साथ में एक पेंसिल रखिये. जब भी आते-जाते समय मिले उसमें से एक दो श्लोक उठा कर पढ़ लीजिये. क्रम या कहाँ से पढ़ा उसका ध्यान भी रखना जरूरी नहीं, बस जिसे एक बार पढ़ लिया उसे पेंसिल से मार्क कर दीजिये. थोड़े दिन में ही किताब पूरी ख़त्म हो जायेगी. कोई गुरु सिखा रहा हो तो एक बार में एक दो श्लोक ही सिखा कर छोड़ता है. ढेर सारा एक ही बार में नहीं परोसा जाता. धीरे धीरे शब्दों का पक्का अर्थ, उनके क्रम (पहले कौन बाद में क्यों?), व्याकरण जैसी चीज़ों का असर भी समझ में आने लगेगा.
बाकी ये नर्सरी लेवल का है, और पीएचडी के लिए आपको खुद पढ़ना पड़ेगा ये तो याद ही होगा?
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