दो चीजों को जोड़कर देखे जाने की जरूरत है. फेसबुक पर श्री भगवान सिंह जी की एक पोस्ट घूम रही है जिसमें वे पूछते हैं कि संघ ने नब्बे साल में करोड़ो स्वयंसेवकों की ऊर्जा को बर्वाद करके कुछ अच्छे चिंतक, कलाकार, चित्रकार, भाषाशास्त्री, समाजशास्त्री, साहित्यकार, वैज्ञानिक तो पैदा किया होता.
पर क्या दोषी सिर्फ संघ है या हिंदू समाज ने सारी ठेकेदारी संघ को सौंप रखी है? क्या मीडिया और विश्वविद्यालयों में बैठे लोगों ने कसम खा रखी है कि जो वामपंथी पढ़ाएंगे हम वही रटेंगे? अपने बौद्धिक आलस्य का जिम्मेदार किसी और को क्यों ठहराएं?
द वायर की फर्जी खबर पर गुस्सा फूट रहा है फेसबुकिया राष्ट्रवादियों का, पर थ्योरेटिकली कितने राष्ट्रवादी पत्रकारों ने इसकी पड़ताल की है कि वायर, स्क्रॉल, कारवां, क्विंट या तमाम अंग्रेजी अखबारों में हमेशा वामपंथी विचार और उदगार ही क्यों प्रकट होते हैं?
मुख्य धारा का मीडिया हमेशा से लिबरल रहा है और इसके ‘Liberal Bias’ का पोस्टमार्टम अमेरिका में आज से नहीं 1928 से किया जा रहा है. हमारे देश के दक्षिणपंथी पत्रकारों ने शायद कभी यह शब्द सुना ही नहीं और अगर सुना भी हो तो लिखा कुछ नहीं. इतने शोध, इतनी किताबें उपलब्ध हैं, बस जरूरत उन पर एक नजर मारने की है.
अगर कोई चाहे तो वाशिंगटन पोस्ट में छपा एरिक वेम्पल (Erik Wemple) का लेख “Dear Mainstream Media: Why So liberal?” पढ़ ले. यह एक प्रस्थान बिंदु हो सकता है. इसके बाद संभावनाओं के द्वार खुल जाएंगे, खबरंडी या प्रेस्टीटयूट कह के काम चला लेने के बजाय यह ज्यादा कारगर हथियार होगा.
अमेरिकी शोधों और वहां के मीडिया समीक्षकों के हवाले से कहें तो मुख्यधारा की मीडिया में लिबरल बायस इस कदर है कि अगर सिर्फ पत्रकारों को वोट देना हो तो अमेरिका में डेमोक्रेट उम्मीदवार हर बार कम से कम 80 फीसद से ज्यादा वोटों से जीत कर सत्ता में आएंगे.
भारत में अगर अंग्रेजी अखबारों के संपादकों, पत्रकारों को वोट देना हो तो शायद सीधे 100 फीसद वोट राहुल सोनिया जी को जाएं.
ऐसे देखें : 1972 में जब 60 प्रतिशत से ज्यादा मतदाताओं ने रिचर्ड निक्सन को वोट दिया तब भी 80 प्रतिशत पत्रकारों ने उनके प्रतिद्वंद्वी मैकगवर्न को वोट दिया. 1964 में जब डेमोक्रेटिक जॉनसन भारी बहुमत से जीते तब उनके पक्ष में इन संस्थानों के 94 फीसद पत्रकारों ने मतदान किया था.
लॉस एंजिलिस टाइम्स ने 1992 के अपने चुनावी सर्वे में पाया था कि वाशिंगटन स्थित विभिन्न अखबारों के ब्यूरो प्रमुखों व कांग्रेस कवर करने वाले 139 शीर्ष पत्रकारों में से 89 प्रतिशत ने बिल क्लिंटन को वोट दिया.
और भी बहुत से मनोरंजक तथ्य हैं. पर बहुत खोज लिया अपने भारत देश में इस तरह का कोई शोध उपलब्ध नहीं है. कुछ जातीय वीरों ने मेहनत की है कि मीडिया में कितने दलित, कितने मुसलमान हैं. ये तो अपना प्रिय शगल रहा ही है.
इसके बावजूद दोनों लोकतंत्रों में रोना है कि मुख्यधारा की मीडिया में दक्षिणपंथी वर्चस्व बढ़ रहा है. अपने यहां वायर, क्विंट और स्क्रॉल वाले तो खुद को वैकल्पिक मीडिया बता कर, और श्रेष्ठ बन जाते हैं. इस कथित वैकल्पिक मीडिया की विशेषज्ञता दूसरों पर कीचड़ उछालने, उन्हें हेय साबित करने की है. ये सब करते हुए भी ये खुद को पीड़ित और अन्याय के खिलाफ संघर्षरत योद्धा साबित कर लेते हैं.
और हमारी वैचारिक दैन्यता यह है कि एक अखलाक और दादरी की वजह से हम चुनाव हार जाते हैं जबकि उधर एक वामपंथी सरकार है जो कतई तैयार नहीं है कि लव जेहाद की कोई जांच भी हो. वो कहेंगे कि लव जेहाद बस एक कल्पना है, अल्पसंख्यकों को डराने की फासिस्ट ताकतों की कोशिश है. पर राष्ट्रवादी तथ्य बटोरते रहें.