मायाजगत में मृत्यु भी मात्र छाया है
परन्तु छायाएं भी होती हैं दुःख का कारण…
कारण के निवारण के लिए ही तो
कनागत (श्राद्धपक्ष ) में ब्रह्माण्ड में व्याप्त
आंशिक विषाद नष्ट कर,
जीवन के नवशुभारम्भ का पूर्ण उद्घोष करने
प्रकट होती है स्वयं
जीवनीशक्ति योगमाया नवरुपों में
लेकिन उस अघोरी ने
अंगीकार नहीं किया जीवनीशक्ति को,
नर्मदा के साथ उल्टी चढ़ाई कर
मृत्यु सदृश्य यातनाओं के पाँव पखारे,
रोकता रहा उसके पावन जल को
आँखों में उतरने से…
जीवन की ऊंगलियां सूर्य की तपिश लिए फिर रही
उसकी छाती पर रखे अतीत के ‘हिम’ आलय पर,
और वो ऊंगली के नाखून पर भविष्य टिकाये
जता रहा है उसके टूटने की संभावना…
मौन को काया देने के हठ में
वो हठयोगी पकड़ कर बैठा है
अपने ही शब्दों की अस्थियाँ…
जबकि संवाद
तरंगों पर सवार हो
ब्रह्माण्ड में व्याप्त है निराकार होकर…
अब उसे कौन समझाए
कि ईश्वर निराकार अवश्य है
परंतु ‘दर्शन’ उसी रूप में देता है
जिसको तुम्हारी दृष्टि ने साकार किया…
वास्तविकता के भ्रम में
सरल है मायावी सच्चाई को झुठलाना
और शास्त्रार्थ से बुद्धि पर विजय पा जाना
इसलिए वो ‘दर्शन’ को भी शास्त्र से जोड़कर
अघोरी से ब्राह्मण होने की यात्रा पर है…
परन्तु वो नहीं जानता
योगमाया के अकल्पित संसार में
काल्पनिक पात्रों को भी मिल जाता है जीवन
फिर शास्त्र तो नियम से बंधे मुट्ठी भर शब्द हैं
जो रेत की मानिंद हाथ से फिसल जाते हैं…
ब्रह्माण्ड के स्वर्णिम नियमों को जानने के लिए
उसे जानना नहीं, जीना पड़ता है
खोलना पड़ती है भिंची मुट्ठियाँ
हे अघोरी! मुट्ठियों में अतीत की राख लिए
श्मशान में तपस्या कर
प्रसन्न कर लेना मृत्यु की देवी को
लेकिन जब कालरात्रि भी प्रसन्न होती है तो
दे जाती है जीवन का वरदान…
( मायावी दुनिया में छाया को पकड़कर जीने वालों के लिए)
{महामाया के अलिखित ग्रन्थ का पहला अध्याय – शुभ हो}
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