सिनेमा के बहाने : Kazuo Ishiguro का कल्पना संसार, नोबल पुरस्कार और सिनेमाई दख़ल

Kazuo Ishiguro

सरहदों का अपना मज़ा है. सरहद पार करना एक तरह से दूसरे जन्म में हो आना है. काज़ुओ इशिगुरो जापान की सरहद से निकलकर बचपन में ही ब्रिटेन पहुँच गए थे. पर जापान उनकी रूह में बसा रहा. एक तरह की यात्रा में बने रहकर वह समय के उन छोरों तक पहुँचते रहे जहां उनके ‘रूट्स’ या पहचान के धागे हैं. और यही बात उनके अपने कथन में रही जब साहित्य के नोबल पुरस्कार को जीतने के बाद उनके रेशे-रेशे में बसा जापान वो याद करते रहे.

फिर एक बार यह यक़ीन पुख्ता हुआ कि जड़ में ही जीवन है. उनके शुरुआती दो उपन्यास जापानी पृष्ठभूमि पर रहे. और सबसे ख़ास यह भी कि पैदा होने के बाद और पाँच साल की उम्र में अपने माता-पिता के साथ ब्रिटेन जा बसने के कई सालों बाद भी वो जापान नहीं लौटे पर जापान बराबर उनकी स्मृतियों में बना रहा. घर का परिवेश, बोलचाल और रहन-सहन पारंपरिक ही रहा. और फिर लिखते-रचते वक़्त एक आभासी जापान उनके शब्दों और भावनाओं का हिस्सा रहा.

एक लेखक जो किसी जगह पैदा हो कर एक दूसरे ही महाद्वीप में पलता-बढ़ता है और फिर लिखने के लिए अपने वतन को अपनी स्मृतियों और कल्पना के सहारे खोजता है; उसकी यह कल्पना ही अपने आप में प्रेरक और जादू से भरी है. फिर नोबल जैसा पुरस्कार जिस पर वाद और विवाद की उंगली तो रखी जानी तय ही है, केवल इस विचार के ऊपर स्वीकार्यता का ठप्पा ही मान लिया जाये तब भी वह उस विचार के आगे कमतर ही है.

एक ऐसे समय में जब दुनिया ग्लोबल और कॉस्मिक होने की चाह में कहाँ से कहाँ भागी जा रही है, उस दुनिया में इशिगुरो के इस विचार का स्वागत होना चाहिए. अचानक ख़याल आया है कि क्या अपने देश में अपनी जड़ों से हम कट नहीं गए हैं जिसके परिणामस्वरूप हमारी अपनी कोई मौलिकता ही नहीं रह गई है? मगर केवल कोरी भावुकता से इस विचार की ज़मीन नहीं बनाई जा सकती. बात तो यह है कि इस विचार के पीछे उनके जतन क्या और कैसे रहे होंगे? हालांकि, कला को हमेशा ही तर्क से छूट मिलती रही है और ‘एक्स्प्रेशन’ को ही उसने मुख्य माना है. इशिगुरो के जीवन के लगभग पैंतीस सालों तक फैले साहित्यिक जीवन में स्मृति, कल्पना, इतिहास, रिश्ते और भावनाएं उनके लेखन को अलग तरह से समृद्ध करते हैं. यही बात उनके लिखे सिनेमा में भी साफ़ देखी और महसूस की जा सकती है.

कुल मिलाकर अगर देखा जाये तो पूरी दुनिया में बस भाषा ही अलग है पर इसके ‘एक्स्प्रेशन’ और उसके अनुभव एक ही हैं. हिन्दी साहित्य व्याकरण में मौजूद तमाम भाव-अनुभाव-विभाव-संचारी भाव के अलावा भी कुछ और उत्प्रेरक अनुभव हो सकता है, इसमें मुझे संदेह है. मतलब और इशारा यही कि सात सुरों से ही संगीत है. ऐसे में आदमी क्या अलग करे और कहे कि वह ‘विशिष्ट हो? कहा तो यही जाता है कि दुनिया में सब कुछ अच्छा पहले ही लिखा और रचा जा चुका और हम केवल उसका अनुकरण कर रहे. मौलिक भी क्या बचा इस पर भी संदेह है.

अंतरिक्ष भी खोजा जा चुका पहले ही. हमारी मान्यताओं के देवी-देवता ब्रहमाण्ड के चर-अचर हर जगह विद्यमान हैं. ऐसे में नोबल को अगर हम ‘साइड’ कर केवल व्यक्ति विशेष पर ध्यान केन्द्रित करें तो सहज ही पाते हैं कि क़िस्सों-कहानियों और फंतासियों को सुलझाने से ज़्यादा रहस्य के पीछे जाने और उसके अनसुलझे रह जाने में ही बहुत कुछ छिपा है और यही इशिगुरो के काम की ख़ूबी भी. इस बात में संदेह नहीं कि भिन्न कला माध्यमों में आवाजाही से विचार को एक शक्ल मिलती है, उसकी एक मुकम्मल तस्वीर भी बनती है और फिर स्वीकार्यता का समीकरण भी बनता है. इन्हीं सब के मिले-जुले में इशिगुरो का चिंतन और लेखन है.

मैंने सबसे पहले उनका नाम आज से लगभग छह-सात साल पहले सुना था जब उनके उपन्यास ‘Never Let Me Go’ पर इसी नाम से एक फ़िल्म बनी थी. भारत में आज के दौर का नया सिनेमा तब बनना शुरू ही हुआ था और किसी फ़ेस्टिवल में भारत की ‘धोबी घाट’ के साथ इस फ़िल्म का ज़िक्र हुआ था. ‘नेवर लेट मी गो’ जीवन के रहस्यों की ओर इशारा करती है जहां वही बुनियादी तत्त्व हैं – प्रेम, जीवन, मृत्यु, रिश्ते, स्वार्थ और भावनाएं. पर इसका कथानक कुछ जटिल है जिसमें कैथी नामक किरदार अकेले रह जाने की पीड़ा का बयान देते हुए बचपन की स्मृतियों में टहलती है जब वह अपने दो मित्रों टॉम और रुथी के साथ हैलशम नाम के बोर्डिंग स्कूल में पढ़ती थी.

हैलशम को सबसे बेहतरीन स्कूल बताते हुए वहाँ का स्टाफ़ एक आर्ट गैलरी की स्थापना और बच्चों के आर्टवर्क प्रैक्टिस पर ज़ोर देते हुए इस रिसर्च के आसपास आगे बढ़ता है कि मनुष्य का जीवन सौ साल के बाद भी बना रहता है. पर कुछ समय बाद ही यह खुलासा होता है कि दरअसल यहाँ पढ़ने वाले बच्चे इसलिए विशिष्ट हैं कि आगे चलकर ये बच्चे अपने अंग दान कर देते हैं और उनके क्लोन बनाए जाते हैं. पर एक पेंच यह भी कि अगर कोई दो विद्यार्थी अपना प्रेम संबंध साबित कर दें तो उन्हें अस्थायी रूप से इस अंगदान की प्रक्रिया में भागीदार नहीं बनना होगा.

आगे की कहानी दिलचस्प होती है जब कैथी और टॉमी के बीच प्रेम के बावजूद टॉमी और रुथी के बीच प्रेम हो जाता है और कैथी अकेली रह जाती है. कुछ समय की यात्रा के बाद कहानी इनके वयस्क जीवन तक पहुँचती है. एक बार फिर तीनों मिलते हैं जहाँ रहस्यमय तरीके से रुथी और टॉमी के अंगदान की प्रक्रिया में भागीदार होने और शरीर से कमज़ोर हो जाने का पता चलता है. इस बार रुथी अपने स्वार्थ और कैथी के प्रति दुर्भाव को स्वीकार कर लेती है. अब जा के कैथी और टॉमी मिलते हैं और टॉमी कैथी को यहाँ से आज़ाद कराना चाहता है पर उसे पता चलता है कि बचपन की उस आर्ट गैलरी में आत्मा या रूह की खोज का मतलब क्या है. हताश और कमज़ोर टॉमी की भी मृत्यु हो जाती है और कैथी एक बार फिर अकेली रह जाती है. पाने और खोने का यही द्वंद्व एक रहस्यमय तरीके से हमारे सामने होता है और पूरी प्रक्रिया में यह फ़िल्म हॉरर न होकर भावनात्मक रूप से ज़ेहन के भीतर की तहों में उतर जाती है.

इशिगुरो के साहित्येतर दस्तावेज़ों में टेलीविज़न धारावाहिकों की पटकथा तो है ही, कई गायक-संगीतकारों के लिए गीत लेखन का काम भी है. वे कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल की जूरी में भी रहे हैं. इशिगुरो की एक और कमाल की फ़िल्म ‘द सैडेस्ट म्यूज़िक इन द वर्ल्ड’ है जो कि तीस के दशक में आई वैश्विक मंदी के समय बाज़ारवाद के प्रभाव में दुनिया के सबसे दुखद संगीत की खोज की पृष्ठभूमि पर चलती है.

यहाँ भी इशिगुरो वर्तमान में रहते हुए गुज़रे समय से ही टकराते हैं. ख़ास तरह के एक्सप्रेशनिस्ट प्रभाव और कथानक वाली इस फ़िल्म का स्क्रीनप्ले इशिगुरो का ही था जिसे गाय मैडिन ने निर्देशित किया. रोचक यह भी कि इशिगुरो अपने सच को ढूँढने बहुत पीछे जाते हैं और नैतिकता को किनारे ही रखते हैं. मर्चेन्ट आइवरी की एक और कमाल की फ़िल्म ‘द व्हाइट काउंटेस’ भी इशिगुरो की लिखी है जिसे एशिया की ‘कासाब्लंका’ माना जाता है. मानव मन की परतें समुद्र की लहरों के समान अनंत हैं, बस यही अहसास होता है. इसलिए सब कुछ हो जाने के बाद भी कला और कलाकार बचे हैं इस उम्मीद में कि समय उनसे आगे क्या करवाने वाला है?

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