अलविदा कुंदन : Making of Jane Bhi Do Yaro

Kundan Shah

कुंदन शाह ने ही साल 1983 को क्रिकेट के अलावा भी याद किये जाने की एक और वजह दी. इसी साल ही तो हिन्दी सिनेमा में जाने भी दो यारों नाम की एक घटना हुई थी जो थोड़ा-थोड़ा हम सभी में आज तक घटित होती रहती है. इस एक फिल्म के बाद कुंदन कुछ और न भी बनाते तो भी क्या ज्यादा फर्क पड़ जाता पर उसे कभी हां कभी नां बनानी ही थी. हम सभी के अंदर जिन्दा एक लूजर को सहलाने के लिए कि अपनी इच्छाओं और सपनों से लड़ते-झगड़ते, कभी गिरते-पड़ते, हर ओर से रुआंसे हो और कोई कंधे पर हाथ रख के कह ही दे- वो तो है अलबेला, हज़ारों में अकेला, सदा तुमने ऐब देखा, हूनर तो न देखा. इन दो फिल्मों की तरह की कुंदन लंबे समय तक टिमतिमाएँगे.

जाने भी दो यारों हमे थिएटर की याद दिलाती है. जैसे और जिस तरह से शौकिया थिएटर मजबूरियों के बावजूद ठसक से होता है, ये फिल्म भी इसी ठसक में बनी है. फिल्म में रिहर्सल के दिनों की मस्ती झलकती है. दोस्ती और एक दूसरे को उत्साहित करने की गरमाहट दिखती है. खुद ही अभिनेता और खुद ही पोस्टर चिपकाने वाला बनने का थिएटर का समर्पण दिखता है. इस फिल्म को बनाने में किसी बड़े निर्माता का हाथ नहीं था. एनएफडीसी के सहयोग से बनी इस फिल्म को बनाने में लगे सात लाख रुपये जुटाने में भी टीम को पसीना आ गया.

सभी कलाकारों ने अपनी ओर से फिल्म को सहयोग दिया. फिल्म में फोटोग्राफर बने नसीर का कैमरा नसीर का ही था और शूटिंग के दौरान ही चोरी हो गया था. आज कौन यकीन करेगा कि इस फिल्म के लिए नसीर को केवल पंद्रह हजार रुपये मिले. जब नसीर को पंद्रह हजार ही मिले तो पंकज कपूर, रवि वासवानी, ओम पुरी, सतीश शाह को कितने कम पैसे मिले होंगे, अंदाजा लगाना आसान है.

फिल्म को थिएटर की मशहूर सख्शियत रंजीत कपूर ने अभिनेता सतीश कौशिक के साथ मिलकर लिखा था. जब रंजीत कपूर ने सतीश कौशिक को इस फिल्म में अपने साथ लिखने को कहा तो सतीश कौशिक का कहना था कि उन्होंने अपने जीवन में चैक साइन करने के अलावा कभी कुछ नहीं लिखा पर रंजीत कपूर को उसके ऊपर विश्वास था. रंजीत कपूर ने अपने मिले छह हजार रुपये में से सतीश को लिखने के तीन हजार दिए और इस तरह अभिनय के दो हजार मिलाकर कुल पांच हजार रुपये उसे मिले. कुछ इसी तरह की आपसी सहूलियत से फिल्म बनकर तैयार हुई.

फिर आया प्रीमियर का दिन. कुंदन शाह ने फिल्म के प्रीमियम के फ्री पास किसी भी कलाकार को नहीं दिए माने हर अभिनेता और तकनीशियन को अपनी ही फिल्म को देखने के लिए टिकट खरीदनी पड़ी. प्रीमियर के बाद कोई पार्टी नहीं हुई, जैसा कि आम तौर पर होता है. सब खाना खाने अपने अपने घर को ही गए.

सतीश कौशिक बताते है कि वो उस रात स्टेशन के पास एक छोटे से ढाबे में गए और कहते भी है कि उस रोटी जैसा स्वाद उन्हें फिर न आया. रंगमंच और रंगकर्म संस्कारित करता है. ऐसे उदाहरण आदमी की गहराई को बताता है. इस गहराई और कमिटमेंट को फिल्म देखते हुए हम साफ तौर पर महसूस कर सकते है.

ये फिल्म यारी दोस्ती में बनी थी. एक दूसरे को उत्साहित करते हुए बनी थी. नसीर और रवि के किरदारों के नाम तक फिल्म के दो सहायक निर्देशक विधु विनोद चौपडा और सुधीर मिश्रा के नाम से विनोद-सुधीर रखे गए थे.

आज इस गुणी टीम का कप्तान भी चला गया है. ओमपुरी और रवि वासवानी पहले ही जा चुके है. इन सभी बड़े शहरी से दिखने वाले लोगो में अभी भी कस्बा जिन्दा है. ये कस्बाई जमीन के लोग इस एक एक करके हो रहे बिछोह को किस तरह देखते होंगे. संघर्ष के दिन और उन दिनों के साथी हमें बेहद अजीज होते है और विदा तो हमेशा से दुखदाई होती है. हर विदाई व्यक्तिगत आख्यानो की अनुगूंज से भरी होती हैं.

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