कन्हैया माणिकलाल मुंशी : इनकी कहानियां क्यों नहीं कोर्स में?

इधर कई बार देखा है कि लोग पूछते हैं कि अच्छी किताबों या लेखकों के नाम बताइये, मैंने भी 2-3 बार पूछा है. लोग अक्सर ही आचार्य चतुरसेन या महापंडित श्री राहुल सांकृत्यायन का नाम लेते हैं. एक बार भी ‘कन्हैया माणिकलाल मुंशी’ का नाम नहीं सुनाई देता.

के एम मुंशी का साहित्यिक परिचय थोड़ी देर में, पहले उनका राजनैतिक परिचय जान लेते हैं.

मुंशी जी गुजरात से ताल्लुक रखते हैं. स्वतन्त्रता सेनानी रहे, गांधी और पटेल के अनन्य भक्त. पटेल के बारडोली और गांधी के दांडी और असहयोग, भारत छोड़ो आंदोलनों की पहली पंक्ति में शामिल. जेल यात्राएं भी की. आज़ादी के पहले की सरकारों में मंत्री रहे. धर्म के आधार पर राष्ट्र-विभाजन के खिलाफ खड़े हुए और कांग्रेस के लिए अहिंसा छोड़ गृह-युद्ध के विचार का समर्थन किया. अहिंसा त्यागने का सैद्धान्तिक समर्थन इन्हें कांग्रेस से दूर ले गया, गांधी जी ने ही निकाला फिर कुछ ही समय में वापस भी बुला लिया.

संविधान निर्माण के लिए बनाई गई विभिन्न समितियों में से सबसे अधिक 11 समितियों के सदस्य थे मुंशी जी. प्रारूप समिति में ‘हर व्यक्ति को समान संरक्षण’ के सिद्धांत का मसविदा इन्होंने और श्री अम्बेडकर ने मिलकर तैयार किया था. गुजराती होते हुए भी हिंदी भाषा को राजभाषा का दर्जा दिलाने में इन्होंने ही सबसे प्रमुख भूमिका निभाई, जिसकी वजह से अभी कुछ दिन पहले हम सबने ‘हिंदी दिवस’ मनाया था. जुलाई में मनाया जाने वाला वन महोत्सव भी इन्हीं की देन है.

हैदराबाद राज्य (प्रिंसली स्टेट) के लिए ये भारत सरकार के प्रतिनिधि (एजेंट जनरल) थे. जब राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपति बने तो उनकी जगह पर इन्हें ‘खाद्य एवं कृषि’ मंत्री बनाया गया.

जूनागढ़ के भारत में विलय होने पर पटेल ने जनसभा को कहा था कि भारत सरकार सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराएगी. जब पटेल और मुंशी जी मंदिर हेतु गांधी जी का आशीर्वाद लेने गए तो गांधी ने खुलकर समर्थन तो दिया पर मंदिर निर्माण में लगने वाले खर्च को सरकार के बजाय जनता से वहन करवाने के लिए कहा. खैर, मंत्रिमंडल ने 47 में फैसला लिया, पर जनवरी 48 में गांधीजी और दिसम्बर 50 में पटेल के स्वर्गवासी होने के बाद नेहरू जी पर दबाव खत्म हो गया था.

एक कैबिनेट मीटिंग में नेहरू ने कृषि मंत्री मुंशी जी को कह दिया कि आप मंदिर निर्माण पर जोर मत दीजिये, ये हिन्दू नव जागरणवाद है. मुंशी जी बिना बोले वापस आ गए और अगले दिन एक दमदार और मार्मिक चिठ्ठी लिखी जो उनकी लिखी किताब ‘पिलग्रमीज टू फ्रीडम’ में भी है. इस चिठ्ठी को पढ़कर राज्यों के मामले में पटेल के अनन्य सहयोगी वी पी मेनन ने कहा था कि आपके इन शब्दों के लिए मैं जीवित और आवश्यकता पड़ने पर मरने को तैयार हूं.

अगर मुंशी जी ना होते तो शायद सोमनाथ भी ‘अयोध्या’ होता. रूस की आयातित विचारधारा ‘सामूहिक खेती’ के विरोध में इन्होंने कांग्रेस छोड़ राजगोपालाचारी की ‘स्वतंत्र पार्टी’ फिर ‘भारतीय जनसंघ’ ज्वाइन कर ली थी. हालांकि फिर जल्द ही राजनीति से संन्यास ले लिया.

इन्होंने गांधी के साथ ‘यंग इंडिया’ और प्रेमचन्द के साथ ‘हंस’ का सहसम्पादन किया था, पर ये जाने जाते हैं ‘भारतीय विद्या भवन’ की स्थापना हेतु. इन्होंने गुजराती और इंग्लिश में 50 से अधिक किताबें लिखी.

मेरा इनसे परिचय इनकी रचनाओं के माध्यम से हुआ. पहली रचना मैंने “कृष्णावतार” पढ़ी और मुझे इनसे मुहब्बत हो गई. कृष्णावतार मूलतः गुजराती में हैं पर इसका हिंदी अनुवाद बड़े बड़े हिंदी लेखकों से अधिक उत्तम है. कृष्णावतार 6 भागों में है और इन्हें पढ़कर आपको अलग-अलग भावनात्मक अनुभूति होती है.

पौराणिक पात्रों पर लांछन लगा देते हैं लोग आपके सामने और आप चुप रह जाते हैं क्योंकि आप सुनते आए हैं कि कृष्ण लम्पट थे और द्रौपदी ने 5 शादियां की और युधिष्ठिर अपनी पत्नी को जुए में हार गए. कृष्णावतार पढ़िए और जानिये/समझिये कि क्यों था ऐसा, एक दलित मछुआरिन का बेटा कैसे वेदव्यास बनता है, एक साधारण यादव युवक कैसे भगवान बन जाता है. ‘रुक्मिणीहरण’ आपके दिल में इतना प्रेम भर देता है कि आप रो देते हैं, ‘महाबली भीम’ हँसा-हँसा कर पेट में दर्द कर देता है.

इनके अलावा परशुराम, लोपामुद्रा, लोमहर्षिणी, ‘गुजरात के नाथ’ सीरीज की 4 किताबों समेत सभी किताबें पठनीय हैं. कहते हैं कि इनकी ‘जय सोमनाथ’ से स्पर्धा करने के लिए आचार्य चतुरसेन ने ‘सोमनाथ’ लिखी थी. दोनों ही किताबें पढ़िए और आप देखेंगे कि चतुरसेन जी कितने चतुर हैं.

प्रश्न है कि क्यों हम इन्हें नहीं जानते? साहित्यिक प्रतिभा में ये किसी से कम तो बिल्कुल भी नहीं है. तो क्या इनका गुजराती होना कारण है या राष्ट्रवादी होना?

इनकी कहानियां नहीं हैं कोर्स में जबकि राहुल सांकृत्यायन हाईस्कूल से लेकर यूनिवर्सिटीज तक में पढ़ाये जाते हैं. चलिए माना कि मुंशी जी ने जो ये पौराणिक पात्रों की कहानी लिखी वो सब काल्पनिक हैं, तो साहित्य तो काल्पनिक भी होता है ना. और इसमें कम से कम सकारात्मकता तो है. मानव मूल्यों का श्रेष्ठ चित्रण तो है.

कल्पना भी हो तो सकारात्मक तो हो, कुछ गुण तो सिखाये. ‘वोल्गा से गंगा’ में सांकृत्यायन 6000 BC में ऐसे परिवार का जिक्र करते हैं जिसमें मातृसत्तात्मक परिवार में एक बुढ़िया का राज है और सभी बलिष्ठ जवान पुरुषों पर उसका अधिकार है. जवान लड़कियों को बूढ़े पुरुषों से सन्तुष्ट होना पड़ता है. और ये सभी आपस में पिता, पुत्री, माता, भाई, बहन हैं. आचार्य चतुरसेन भी ‘वैशाली की नगरवधु’ में पिता-पुत्री, भाई-बहन के बीच ये गन्दगी दिखा जाते हैं.

ये कैसी कल्पनाशीलता है जो सिर्फ अश्लीलता ही चित्रित करवाती है. माना कि 8000 साल पहले इंसान सभ्य नहीं होगा पर सभ्य तो शेर और हाथी भी नहीं होते, वे भी ये सब नहीं करते, हाँ कुत्ते और सियार जरूर करते हैं. जाने क्यों कुत्तों में हीं इंसान देखे इन विद्वानों ने.

खैर,
कुछ सकारात्मक पढ़ना हो, रोना हो, हँसना हो, प्रेम करना हो, नतमस्तक होना हो, गर्व करना हो तो कन्हैया माणिकलाल मुंशी जी को पढ़िए. इनकी किताबें बहुत महंगी भी नहीं है. खुद पढ़िए, मित्रों को गिफ्ट कीजिये.

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