कभी थर्मामीटर तोड़ा है बचपन में? फिर उससे निकले पारे की बूंद को जमा करके हथेली पर लिया है? कागज़ के पन्ने पर नचाया है? उसे बिल्कुल छोटे-छोटे कणों में तोड़कर फिर एक बड़ी बूँद में जोड़ा है?
फेसबुक पर हम सभी वैचारिक स्वतंत्रता के वो प्रहरी हैं जिन्होंने 2008-09 के आसपास पहली बार मीडिया की बौद्धिक तानाशाही के विरुद्ध मोर्चा खोला था. मुझे याद है, उस लड़ाई की शुरुआत में परिचित-अपरिचित मिलाकर इस सोशल मीडिया क्षितिज पर 50 से ज्यादा सहधर्मा नहीं दिखाई दिए थे.
फिर धीरे-धीरे एक दूसरे से संपर्क बनता गया. पारे के बिखरे बिखरे कण जुड़ कर बूँद बनते गए. आज हम लोग विषय उठाते हैं, एजेंडा सेट करते हैं, मीडिया के दलालों को नंगा करते हैं और उनका मुँह काला करके बाज़ार में घुमा कर उनके कोठे पर छोड़ आते हैं.
पर यह शक्ति हमारे शस्त्रों और युद्धकौशल की शक्ति नहीं है. यह अप्रत्याशित आक्रमण की शक्ति है. “ब्रेवहार्ट” फ़िल्म याद है? अपनी पहली लड़ाई में विलियम वॉलेस जब सशक्त अंग्रेज़ घुड़सवार सेना से लड़ता है तो बड़े बड़े नुकीले बल्लम जमीन पर छुपा कर रखता है.
दुश्मन की घुड़सवार सेना सीधा उसके नुकीले बल्लमों के घात में फँस जाती है, और पैदल सिपाही, सुसज्जित आर्टिलरी को घोड़े से उतार कर काट डालते हैं. किसी भी युद्ध में सरप्राइज़ एलिमेंट सबसे बड़ी ताकत होती है. मीडिया के धुरंधर इसलिए धूल में जा मिले क्योंकि इधर से हमला होगा इसकी उन्हें उम्मीद नहीं थी.
पर हम पैदल सिपाही ही हैं. हमने यह मोर्चा लिया है, लड़ाई नहीं जीती है. अब सोशल मीडिया सरप्राइज़ नहीं रहा. वे घुड़सवार इस मैदान में कुछ समय के लिए निहत्थे थे, पर उनके युद्ध कौशल को कम मत आंकिये. वे प्रोफेशनल मर्सिनरी हैं. उनका काम ही यही है.
युद्ध सिर्फ शौर्य से नहीं, छल-बल से जीता जाता है, और छल का कौशल उनके पास बहुत है. उनके पास एक स्ट्रेटेजिक सोच है जो हमारे पास नहीं है. उन्हें पता है कि इस सोशल मीडिया के स्नायु-केंद्र कहाँ हैं… वहाँ से वे इसे कब्ज़े में लेंगे. किस विलियम वॉलेस को कौन सा रॉबर्ट ब्रूस गिरायेगा, उन्हें पता है. कहाँ जाल बिछाना है, कहाँ घात लगाना है, वे जानते हैं.
हम अपरिपक्व सैनिक हैं. सिर्फ साहस के बल पर खड़े हैं. भावनाओं के शस्त्रागार में हमारे पास वो हथियार नहीं हैं जो उनके बुद्धि के शस्त्रागार में हैं. हमें शस्त्रसज्जित होना होगा. समय निकाल कर मूल विषयों का गंभीर अध्ययन करना होगा.
उससे भी ज़रूरी है, अपने प्रोफेशनल सैनिकों की अगली पौध खड़ी करनी पड़ेगी. अगली पीढ़ी को डॉक्टर-इंजीनियर की तात्कालिक सुरक्षा से बाहर निकालकर साहित्य, इतिहास, पत्रकारिता जैसे विषयों का रास्ता दिखाना होगा. अपनी पैदल सेना को जल्दी से जल्दी आर्टिलरी और आर्मर्ड की मदद पहुंचानी पड़ेगी.
पारे का सापेक्षिक घनत्व पता है? 13.5… यानि पानी से साढ़े तेरह गुना भारी होता है… इसीलिए पारे की बूँद को कितना भी तोड़ो, उसके छोटे छोटे कण भी बहते नहीं हैं. फिर आपस में जुड़कर बड़ी बूँद बना लेते हैं. अपने घनत्व पर, सरफेस टेंशन पर… द्रव्य की गुणवत्ता पर ध्यान देना ही होगा..