सार्थक बदलावों के विरोध से ही चलती है कइयों की रोजी-रोटी

नए हस्पताल में काम का पहला दिन. यहाँ स्टाफ कार पार्क में एंट्री कंप्यूटराइज्ड है. उसके लिए एक प्रीपेड कार्ड बनाना पड़ता है. कार्ड में पैसे रिचार्ज करने के लिए मशीन है. वह मशीन कार्ड नहीं लेती, कैश लेती है.

कैश मशीन से 10 पाउंड निकाला. यहाँ नए करेंसी नोट आये हैं – प्लास्टिक के. अब पार्किंग मशीन उन प्लास्टिक के नोटों को नहीं पहचानती और कागज वाले नोट अब मशीन से नहीं निकलते.

तो कागज वाले 10 पाउंड के नोट खोज रहा हूँ दुकान-दुकान घूम कर. मिल गया. पेमेंट करके कार पार्क से निकलने में 35 मिनट लगे. नाईट ड्यूटी के बाद के ये 35 मिनट बहुत भारी लगे… यह दिक्कत मुझ अकेले को तो नहीं होगी. बहुतों को होगी. कोई आंदोलन करता, भुनभुनाता-भन्नाता भी नहीं दिखा. नोट नए हैं, व्यवस्था पुरानी… बदल ही जाएगी…

यह तब, जबकि इंग्लैंड में व्यवस्थाओं का आधुनिकीकरण हमसे (भारत से) एक पीढ़ी पहले शुरू हुआ है. हम अब जागे हैं. व्यवस्था बनने और फिर स्मूथ होने में समय लगता ही है. तब तक नई व्यवस्था आ जाती है, उसे भी बदलना होता है.

पश्चिम बदलाव के लिए तैयार रहता है. पूरे समाज को इसके लिए तैयार किया जाता है. Who Moved My Cheese जैसी पुस्तकें यहाँ की सामूहिक चेतना का हिस्सा है, कोई उसकी चर्चा भी नहीं करता… पर उसकी भाषा सभी समझते हैं.

अगले सोमवार से हमारा पेशेंट सिस्टम फिर बदल जायेगा… लोगों की शिकायत है कि नया सिस्टम पुराने से बुरा है… पर सभी उसके लिए अपने को तैयार कर रहे हैं…

व्यवस्थाएं बदलती रहती हैं… बदलती हुई व्यवस्था के साथ बदलने की क्षमता को जीने का जरूरी स्किल समझा जाता है. समाज की नस-नस में यह कूट-कूट कर भर दिया गया है. लोग शिकायत नहीं करते, बदलने की तैयारी करते हैं.

इसके पीछे एक व्यवस्था में एक निहित विश्वास भी है. लोगों का विश्वास है कि व्यवस्था हमारे भले के लिए ही बनी है. प्रचार भी ऐसे ही किया जाता है. हमारी व्यवस्था बन रही है, बदल रही है… पर लोगों का व्यवस्था पर विश्वास स्थापित भी करना होगा… यह कुछ कुछ शादी जैसा है… निभाना होगा… धैर्य से, और विश्वास से… दोतरफा…

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