“गूंगे निकल पड़े हैं ज़ुबां की तलाश में”

आर्यावर्त के एनिमल फार्म में सहस्राब्दियों से घोर सहिष्णुता रही है. यहां ऊपर सूरज तेज चमकता है और खूब हरियाली है. सहस्राब्दियों तक यहां भगवा प्रजाति का बोलबाला रहा. इस शस्य श्यामला धरती में धान-गेहूं के साथ ही तमाम रह की सब्जियां और फल फूल उगते थे तो भगवा प्रजाति वाले बौद्धिक हो गए. वे कंदमूल खाकर आत्मा और ब्रह्मांड के नए -नए रहस्यों की खोज में डूबे रहते थे.

इसी बीच आठवीं सदी में एक हरे रंग की प्रजाति ने अवतार लिया. उनके पास भगवा जैसी सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं. उनके नेता ने उपाय निकाला और कहा- इतनी मेहनत की क्या जरूरत है? मैं ईश्वर का पोस्टमैन हूं, ईश्वर मेरे कान में फूंकता है कि सही और गलत क्या है. जो मैं कहूंगा वही अंतिम सत्य होगा.

हरे रंग की प्रजाति वाले एक दूसरे को लूट के, पीट के, मार के गुजारा करते थे और डार्विन के बहुत पहले से ही उसके तमाम सिद्धांतों का मनोयोग से पालन करते थे. पर अब उनके एक आसमानी किताब थी जिसमें समझाया गया था कि बस ईमान लाओ और फिर लूट-मार दीन-सम्मत है. आसमानी किताब के लिए लड़ो और लड़ाई में मिले माल व महिलाओं से ऐश करो (माल-ए-गनीमत).

आर्यावर्त के एनिमल फार्म में माल-ए-गनीमत का क्रम सात-आठ सौ साल तक चला. काफी बड़े इलाके देखते ही देखते इसकी भेंट चढ़ गए. पर भगवा वाले बड़े ढीठ थे. ठीक से लड़ना नहीं आता था पर समर्पण भी नहीं करते थे और आसमानी किताब पर ईमान लाने को कतई तैयार नहीं थे.

आखिर में इस ढिठाई के आगे हरे वाले हिम्मत हार गए. मियां ये अब भी हमारी नहीं सुनते और अब तो ये पता नहीं क्या क्या सीखने लगे हैं. अब हमें अपना अलग हरा फार्म चाहिए. ये भगवा वाले आखिर में हमे ही गुलाम बना लेंगे. वो माल-ए-गनीमत का अपना हिस्सा जो एक तिहाई था, ले गए.

इसी बीच एक लाल किताब आई. उसने कहा कि ये जो कंदमूल खाकर गुजारा करते हैं और जंगल-कुटी में रहते हैं, दरअसल अफीमची हैं. हरी किताब वालों, सबसे बड़ा सवाल ये है कि माल-ए-गनीमत का उचित बंटवारा कैसे हो. बंटवारे का सवाल पेचीदा है. भगवा वाले अभी भी इतने हैं कि उनकी संख्या हम पर भारी है. जैसे जैसे ये खत्म होते होते जाएंगे हम आपसी समझबूझ से लूट का माल बांट लेंगे.

आसमानी और लाल किताब वालों ने अपने तरीकों से कोशिश शुरू की. लाल-हरे एक साथ थे पर एक बुनियादी समस्या थी. आसमानी किताब वालों की अपनी किताब में अटूट आस्था थी. उधर, लाल वाले ना तो खुद किसी किताब में भरोसा करते थे और ना कोई उन पर.

इससे पार पाने के लिए लाल किताब वाले अविष्कारक की भूमिका में आए. रोज नए तर्क और नारे गढ़े. भगवा समूह के कमजोर तत्वों की पहचान की. समझाया कि तुम्हें तुम्हारा हक नहीं मिला. उन्हें दलित-महादलित, पिछड़ा-अति पिछड़ा बनाया. ब्राह्मणवादी ताकतों का अविष्कार किया और फिर जहां मौका मिला इन बंटे हुओं को एक-एक कर खाने लगे.

भगवा वालों को समझ में देर से आया कि कोई उन्हें बांट रहा है और खा रहा है. वे गोलबंद होकर विचार करने लगे कि कैसे निपटें. वे उन पर नजर रखने लगे, कुछ तो डाटा भी इकट्ठे करने लगे (सोशल मीडिया का कमाल). कंदमूल खाने वालों में से कुछ ने तय किया कि रणनीति तो उपलब्ध है. क्यों न इन्हें उन्हीं पर आजमाया जाए?

उन्होंने एक लाल और एक हरे सियार को खा लिया. एनिमल फार्म में अव्यवस्था फैल गई. लाल सियारों कहा, ये नाइंसाफी है? देश में दहशत है. बिग ब्रदर बोला, “1984” वाली न्यायोचित व्यवस्था को बदला जा रहा है. अब तक हम जिन्हें खाते थे, वे अब अब हमारा ही शिकार करने लगे हैं. धर्मनिरपेक्षता की कसम, हमने बख्शीश में जो पाया है, उसे लौटा रहे हैं.

उधर भगवा वाले एकजुट होकर जुलूस निकालने लगे. सबको बताने लगे कि देखो तुमने कितना लूटा, कितनों को खाया. अब लाल और हरे बिलबिला रहे हैं कि देखो-देखो भगवा वाले किस तरह सामान्यीकरण कर रहे हैं. अरे हमारी हिंसा तो न्यायोचित है. लाल और आसमानी किताब में तो लिखा है कि कब-कब और क्यों मारना चाहिए. तुम्हारे पास तो संविधान है. बताओ तो कि इसमें हत्या को कहां उचित ठहराया गया है?

भगवा वाले फिर सकपका गए हैं. बस यही कह पा रहे हैं कि दादरी में एक मरा तो इतना हल्ला और केरल में सौ मरे तो कोई चर्चा क्यों नहीं. बरखुरदार अब ये नहीं चलेगा.

स्पष्टीकरण- अमित शाह की केरल य़ात्रा से न जोड़ें.

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