खुली पीठ पर उकरे अर्ध चन्द्र को छोड़
पूर्णिमा के पूरे चाँद तले
खीर सी मीठी बातों
के स्वाद का ज़िक्र करने से
बातों में अमृत नहीं टपकता…
अमृत तो तुम्हारे उस कसैले मौन में है
जिस पर तुम बादलों में छुपी अपनी मुस्कुराहट ओढ़कर
मेरे स्वप्न की छत पर
आ धमकते हो धप्प से
और मैं धक्क से नींद को देह पर लपेटे
बादलों के बरस जाने की प्रतीक्षा में
ओंधे मुंह पड़ी रहती हूँ
तुम मेरी पीठ के अर्धचन्द्र पर
अपनी किसी अलोनी बात को
अधूरी छोड़कर लौट जाते हो
और मैं उस अलोनेपन में
प्रेम का लोन मिलाकर पूरी सलोनी हो जाती हूँ
लोग कहते हैं शरद पूर्णिमा की चांदनी रात को
इश्क़ भी अमृत हो जाता है
मैं कहती हूँ हर वो रात अमृतमयी है
जहाँ तुम्हारा कसैला मौन
मिलता है
मेरी नमकीन बातों से..
और अधूरी छूटी हर बात को
मिलती है पूरे चाँद की गवाही…