कढ़ी की याद में : अध्यात्म का सत्व तो कढ़ी की सादगी में है

मुझे याद है.. हमारे गाँव में हमारी पहचान में खाना बनाने में महारत हासिल रखने वाली, गृहणियाँ, बहुत कम होती थी, घर में लहसुन, प्याज, अदरक आदि की मनाही थी.. हमारे मुताबिक स्वाद की भी, इसलिए भी घर के जो व्यंजन हमने स्कूल शुरू होने के पहले चखे, उनमें खासी मुश्किलों के बाद भी कोई नाम दिमाग पर नहीं ठहरता..

अलबत्ता.. हमारे गाँव में कुछ चीज़ें बहुत मशहूर थी जो कच्ची उम्र से अब तक भी हमारी लार चटकाने के काबिल स्वाद थे..
वह स्वाद थे..
क्रमश:..
नागर साहब के हरी मिर्च भरावन के समोसे..
बाबू महाराज के गरम मसाले और प्याज के, मीठे के बनिस्बत थोडे नमकीन पोहे..
दुबे जी की लाल मिर्च की सुस्वादु झन्नाटेदार कचौरी.. और जैन साहब के कढ़ी फाफड़े…

स्वाद की सही परख तब हुई जब स्कूल में दूसरे दोस्तों के साथ हम अपने टिफिन शेअर किया करते..
मुरब्बों, और अचार के साथ भरवां आलू की सब्ज़ी जो बहुधा दूसरे टिफिनों में होती.. अलग होने की वजह से हमें खूब भाता. उन्हें हम पापड़, पपड़ी घी चूरी और जिरावन आदि के अलग अलग जायके मिला, ठंडे पराठो के साथ खाते. बाद में यही ठंडे पराठे चाय के साथ खाने की आदत पड़ी, जो अब तक है..

उन टिफिनों में आलू की अलग अलग तरीकों से पकी सब्जियों के रंग आज भी याद है..
हल्दी, राई के साथ पके पीले आलू..
या प्याज और हरी मिर्चों की रंगत लिए कुरकुरे हरे आलू,..
अमचूर की खट्टी परतन पर पके साँवले आलू.. या टमाटर की खट्टी मिठी चटनी पर सिके लज़ीज़ आलू..

टिफिन चखना हमारी स्वादेन्द्रियों का परिष्करण था, एक नया आयाम या द्वार..
समय के साथ हम परिपक्व होते हैं और जीभ को बस में रखने के उपाय करते हैं.. इसका अध्यात्मिक कारण शरीर को स्वस्थ व संतुलन में रखना भी है..
मगर उस समय का तामसिक, राजसिक और सात्विक सभी प्रकार का अन्न… हम बच्चों के उदर में पहुँच केवल परमानंद में बदल जाता.. यह मैं जानता था..

यूँ अन्न में सबसे बढ़कर कुछ निश्चित और शुद्ध अन्नपूर्णा का कोई तत्व अवश्य होता है, जो सदैव शुद्ध होता है.. बाँट कर खाना कितना अलौकिक होता है क्या कहूँ. उन टिफिनों में कितनी ही माँओ की ऊँगलियों का स्वाद और आशीर्वाद हमारे लहू मज्जा में तबका अब तक है..

वे अपने बच्चों के लिए जिस प्रेम से टिफिन बना भेजती होगी.. वह प्रेम ज़रूर अलौकिक था..
वैसा ही प्रेम हम सहपाठियों में भी था..
मगर यही स्वाद, हमारी माताजी के लिए जरूर सरदर्द था बाहर एक समय रोज का सुस्वादु खाना, घर का खाना फीका करने लगा..
कभी प्याज, पनीर और सब्जियों के पकौड़े..
तो कभी घेवर या बगांली मिठाइयां..
सेंडवीच में जैम का मज़ा..
तो कभी कभी छोला या भटूरा..

मगर जो खास चीज तब की अब तक ज्यों का त्यों याद है वह है कढ़ी चावल..

यहाँ कढ़ी चावल के साथ, तुअर या चवले की सिजी बिना तड़के की दाल का चलन था..
बिना तड़के की सिजी तुअर दाल जीरे और घी के साथ मुझे तब बेहद प्रिय थी.. कढ़ी का स्वाद अब तक जीभ और तालू के लिए बेस्वादा ही था.. खिचड़ी भी खाता तब भी बिना कढ़ी के.. मगर यह त्रुटि पाककला की थी, त्वरित रूप से भोजन तैयार करने की हड़बड़ी हमारे घर पर सदैव हावी रहती..
कढ़ी चावल का जायका तब सबसे पहली बार टिफिन के मार्फत ही हमारी जीभ पर लगा. गुजराती कढ़ी थी, और यह कढ़ी तनिक मीठी हुआ करती थी. चावल जब कढ़ी को बिल्कुल सोख लेता.
यह मिठास और कढ़ी का हल्का खट्टापन राई के तड़के के साथ, मुँह में घुलता तो ब्रम्हरंध्र मानो जागृत हुआ हो.. आहा.. हा..
साथ में सीके हुए कुछ बहुत कतरी दाल के टुकडे होते थे जो दाँतो के लिए सुखद थे.. बारिक होकर जीभ को तीन स्वाद मिलते ..
यह सुखद अनुभूति घर पर भी मिलें इसकी जिद होती थी.. मगर नाकाफी..

बाद में गुजरात जब भी जाना होता तो पाता कि वह गुजराती कढ़ी हर बार, अलग अलग जगहों पर भी चखने को मिलती, पजांबी और राजस्थानी कढ़ी के मुकाबले तनिक पतली और बिना पिसी मिर्च डले.. ज़रा मीठी भी..
गुजराती कढ़ी का गाढ़ा वर्जन सर्वप्रथम चखा अहमदाबाद में फाफडे के स्वाद के साथ..
दही को पतला करने के मूल सिद्धांत से जुदा इसे गाढ़ा किया जाता… इसमें बेसन और हल्दी बढ़ाई जाती और अदरक का हलका तड़का.. दिया करते हैं.

कुरकुरे, अजवाइन से महकते और तेज आँच पर लाल हुए फाफडों की दोनों सतहें मुड़ जाती तो यह गाढ़ी कढ़ी वहाँ भरपूर रूकी रहती..
तली और नमक लगी मिर्च के साथ कद्दू और प्याज, गाजर की चटनी ..वाह क्या कहने… अहमदाबाद का कढ़ी फाफडा यूँ ही नहीं मशहूर यह वाकई लाजवाब है..

इस क्रम में राजस्थानी कढ़ी जरा ही तेज पड़ती है… ज़रा और गाढ़ी..
हमने इसका स्वाद केर सांगरी की चटपटी सूखी सब्ज़ी के साथ लिया था साथ में बेसन के सूखे व तरी वाले गट्टे..

यहाँ कढ़ी के साथ बेसन की तय जुगलबंदी के चलती. अगर कढ़ी की लोककथा लिखने को मुझे कहा जाता तो बेहिचक एक नवयौवना मेंरे जेहन में कौंधती..
पति मायके में जिसे लेने पहुँच रहा हो मगर घर में खाने के नाम पर केवल बेसन और दही, और कुछ मसाले भर रहें होंगे जिन्हें बस जल्दी में घोंटते हुए पति को परोस दिया होगा. पति मुस्कुराते हुए कढ़ी तो पी गया मगर बिना घुले बेसन के टुकडे गले ना उतरते तो रूकता जाता..
नवयौवना जब यूँ पतिदेव को रूकते देखती तो पत्नी का असमजंस भाँप, और पत्नी का मन रखने को कढ़ी में पडे बेसन की, पति जी खोल तारीफ करता..
शायद तबसे हर कढ़ी और बेसन के टुकड़ों का चिरसंबंध है..

गुजराती जहाँ कढ़ी के साथ बेसन के फाफड़े नोश फरमाते हैं.. वहीं राजस्थान में बेसन के गट्टे वाली कढ़ी मशहूर है.. इसके अलावा जिसने भी पजांब की बेसन के पकौड़े वाली कढ़ी चखी है, वे मेरी इस बात से ज़रूर सहमत होंगे..

कढ़ी की यह नस्ल पंजाबी तरीके से भरपूर होती है..
नितरी हुई छाछ की जगह पूरे मक्खन का दही.. और भरपूर मसाले दार..
सरसों या राई के दाने के तेल में नफासतदार मात्रा में लहसुन और अदरक..
साथ प्याज़, हरी कटी मिर्च, पुराना साथी करी पत्ता और तेंदू पत्ता..
साथ गरम मसाले का महकता छौंक, धनिया और बाकी खड़े मसालों की लज्जत..

बात यहीं नहीं रूकती.. जब पजांबी पकौड़े प्याज की कतरनों के साथ कुरकुरे तले.. पूरी लाल मिर्ची के छौंक पर कढ़ी में परोसे जाते तब इस बादशाही कढ़ी पर लोग ऊँगलियाँ चाट जाते..

अन्य किस्मों में सिंधी कढ़ी.. व अनेक रूपांतरण कढ़ी में हुए मगर बेसन, चावल दही और छाछ यही कढ़ी के मूल सखा है..
अध्यात्म का सत्व कढ़ी की सादगी में हैं.. गाय के दूध का दही और पिसी दाल का सुपाच्य बेसन.. साथ में सफेद चावल और कोई तृष्णा नहीं..
इस सुखकारी जायके में क्या नहीं.. दाल से प्रोटिन, चावल से कार्बोहाइड्रेट, दही से लेक्टिक एसिड और मिनरल, और फैट पूर्ण संतुलित भोजन..

कढ़ी के मेंरे मनपसंद वर्जन और घरेलू स्वाद में एक माँ के हाथ की बनी कढ़ी आज तक जीभ पर है..
जब मेरा उनके यहाँ रात रूकना हुआ..
शाम की मेहमान नवाजी में लज्जत से उन्होंने खाना बनाया.. सुबह वापस लौटना था.. देखा वे सुबह सुबह किचन में थी..
पास में इडली पड़ी थी..
और वे कढ़ी की तैयारी कर रही थी. हम दोस्तों के लिए नाश्ता तैयार करने के लिए वे इतनी जल्दी उठी यह सोचते हुए मैं उनकी मदद करने किचन में गया..
और वह कढ़ी जो मैंने बनती मेरी आँखों से देखी..

हर चीज़ जो उन ऊँगलियों से फ्रायपैन में पड़ती और खुशबू के सुस्वादु रस में बदल जाती..
बाहर किचन गार्डन से तोड़े वे ताजा करी पत्ते और छाछ का वह सफेद रंग, अपने स्वाद को साथ लिए आज भी दिमाग में जिंदा हैं..
और वह इडली..
कढ़ी और इडली..
ओफ..
वह स्वाद..
वह नरमियत..
वह प्रेम..
कईं सौ बार कढ़ी चख चुका मगर वह स्वाद भुलाए नहीं भूलता.. वह प्रेम आज भी भीतर हृदय में है.. जो उस रोज एक माँ के स्पर्श से गुजरकर उदरस्थ हुआ..

मैं निश्चिंत हूँ कि उसका पाचन और ग्रहण उस रोज..
शरीर ने नहीं..
आत्मा ने किया था..
और आत्मा पर ही स्थिर है, उस स्वर्गीय भोजन का स्वाद..

– किंशुक शिव

Comments

comments

LEAVE A REPLY