प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री एक बार किसी अधिवेशन में शामिल होने भुवनेश्वर गए. अधिवेशन से पहले जब शास्त्री जी स्नान कर रहे थे, तब दयाल महोदय ने इस भावना से कि शास्त्री जी का अधिक समय कपड़े पहनने में व्यर्थ न जाए, सूटकेस से उनका खादी का कुर्ता निकालने लगे. उन्होंने एक कुर्ता निकाला तो देखा कुर्ता फटा हुआ था.
उन्होंने वह कुर्ता ज्यों का त्यों तह करके वापस रख दिया और उसके स्थान पर दूसरा कुर्ता निकाला. परंतु उन्हें देखकर और भी ज्यादा अचंभा हुआ कि दूसरा कुर्ता पहले की अपेक्षा अधिक फटा था और जगह-जगह से सिला हुआ भी था. उन्होंने सूटकेस के सारे कुर्ते निकाले तो देखा कि एक भी कुर्ता साबुत नहीं था.
यह देखकर वह परेशान हो उठे कि शास्त्री जी स्नान करके आ गए. उन्होंने दयाल जी की परेशानी देखकर कहा, इसमें चिंता की कोई बात नहीं. जाड़े में फटे और उधड़े कुर्ते कोट के नीचे पहने जा सकते हैं. इसमें कैसी परेशानी और शर्म.
अधिवेशन के बाद शास्त्री जी दयाल जी के साथ कपड़े की एक मिल देखने गए. शोरूम में उन्हें बहुत खूबसूरत साड़ियां दिखाई गईं. शास्त्रीजी ने कहा, ‘साड़ियां तो बहुत अच्छी हैं पर इनकी कीमत क्या है? मिल मालिक ने कहा, ‘जी यह आठ सौ की और ये वाली हजार रूपए की.
शास्त्री जी ने कहा, ‘यह बहुत महंगी हैं, मुझ जैसे गरीब के मतलब की दिखाइए.’ ‘आपको तो ये साड़ियां हम भेंट करेंगें. आप देश के प्रधानमंत्री जो हैं.’ मिल मालिक ने कहा. ‘प्रधानमंत्री तो हूं, पर मैं आपसे भेंट कभी नहीं लूंगा और साड़ियां भी अपनी हैसियत के मुताबिक ही खरीदूंगा.’ उन्होंने अपनी हैसियत के अनुसार सस्ती साड़ियां अपने परिवार के लिये खरीदीं. लालबहादुर शास्त्री जैसे प्रधानमंत्री के विचारों के समक्ष दयालजी के साथ मिल मालिक भी नतमस्तक हो गए.
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