अब हम अंग्रेज़ी के लेखकों से समझेंगे सनातन-हिंदुत्व!

मुंबई एयरपोर्ट पर कल जब फ्लाइट अचानक डिले हुई तो समय काटने के लिए किताबों की दुकान पर पहुंचा था. यह देखना सुखद आश्चर्य था कि वहाँ हिंदुत्व पर कई किताबें थीं.

सुखद इसलिए कि इन किताबों के पन्ने पलटने वालों की संख्या अच्छी खासी थी और फिर इन्हें खरीदने वाले भी कई थे, आश्चर्य इसलिए क्योंकि हिंदुत्व के अतिरिक्त किसी और धर्म की किताबें वहाँ लगभग अनुपस्थित थीं.

वैसे तो दुनिया के दोनों बड़े धर्मों में से इस्लाम पर लिखना-बोलना असम्भव है तो ईसाइयत पर भी बात करना आसान नहीं. वरना क्या कारण है जो Jesus Lived In India- By Holger Kersten जैसी चर्चित पुस्तक भी हिन्दुस्तान की अनेक दुकानों पर दिखी नहीं और यहाँ भी अनुपलब्ध थी, (इस पुस्तक पर जल्द ही काम करने का विचार है इसलिए यह खरीदना चाहता हूँ) दुकानदार से पूछने पर उसकी अनभिज्ञता ने मुझे हैरान किया था.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देने वाला पश्चिम समाज भी ईसा मसीह को लेकर संवेदनशील है और इस तरह की पुस्तकों को हिन्दुस्तान के बाज़ार में अधिक आसानी से उपलब्ध ना होने देने के भी जो कारण हैं, उन्हें समझना कोई बहुत मुश्किल नहीं.

बहरहाल, मुझे इस बात का अभिमान हुआ कि मेरी संस्कृति में व्यवहारिक स्तर पर पूरी स्वतंत्रता है और इतनी किताबों का होना इसका प्रमाण है. सच भी तो है, हिंदुत्व पर आराम से बात की जा सकती है और सनातन संस्कृति शास्त्रार्थ (चर्चा) करने के लिए प्रेरित भी करता है.

ऊपर से इतनी प्राचीन संस्कृति, जिसका ना कोई आदि है ना अंत, उसमें रोचकता के साथ साथ गूढ़ता और रहस्यपूर्ण होना स्वाभाविक है. और क्यों ना हो, यहां कोई एक किताब नहीं है जिससे ये सभ्यता नियंत्रित होती हो. वेद, उपनिषद, पुराण, अनेक पौराणिक कथाएं हैं, जो फिर काव्यशास्त्र की सभी कसौटी पर श्रेष्ठ रचनाएं हैं, अर्थात उनकी नवीनतम व्याख्या करने की संभावना सदा बनी रहती है. मतलब साफ़ है कि इन पर जितनी भी किताबें लिखी जाएँ उतनी कम हैं.

आजकल सनातन हिंदुत्व पर किताब लिख रहा हूँ तो जहां जैसे भी मौका मिलता है सम्बंधित कोई भी पुस्तक मिलने पर पन्ने पलटने लगता हूँ और अगर अर्थपूर्ण लगे तो तुरंत खरीद भी लेता हूँ. उत्सुकतावश यहां उपलब्ध किताबों में से कइयों के पन्ने पलटने पर विचलित हुआ था क्योंकि उनमें सनातन जीवन दर्शन की आधी अधूरी और भ्रमित करने वाली व्याख्या ही नजर आ रही थी.

जब किताब के लेखक के विचार के मूल में ही यह स्वीकृति हो कि आर्य आक्रमणकारी और बाहरी थे और आर्य-द्रविड़ संघर्ष एक सच है, तो फिर गलत नींव पर इमारत का गलत तरीके से खड़ा होना स्वाभाविक है. किताबों में सुर-असुर और राक्षस-देवता ऐसे युद्ध करते नजर आ रहे थे मानो सिंधु घाटी की सभ्यता इनके रक्त से सींची गई हो. इंद्र प्रतीक नहीं बल्कि हंसी के पात्र बन रहे थे. ऐसे अनेक प्रसंग थे जिनकी गलत व्याख्या हो रखी थी.

सनातन हिंदुत्व पर किताब तो हमारी भी छपेगी मगर वो इन किताब की दुकानों में उपलब्ध नहीं होगी. ऐसा तो है नहीं कि हिंदी में कोई किताब अब तक ना लिखी गई हो, तो फिर क्या कारण है कि यहां दूकान में एक भी हिंदी पुस्तक नहीं थी?

मैं यह मानता हूँ कि अब तक मैं बहुत कम सनातन जीवन दर्शन को समझ पाया हूँ, मगर जितना भी समझा है वो इन अंग्रेज़ी की किताबो से अधिक सार्थक है जो इस दुकान में बिक रही थी. अब यह किसका दोष है, हिंदी प्रकाशक का या हिंदी लेखक का या फिर गुलामी से ना उबर पाए भारत के एक बड़े पाठक वर्ग का. जो भी हो मगर यह कडुवा सच है कि देश के काले अंग्रेज़ हिंदी में लिखी पुस्तक को पढ़ने में रूचि नहीं रखते.

इसे देश के प्रबुद्ध पाठक की मूर्खता ही माना जाएगा है कि वो उस भाषा में अपनी ही संस्कृति को पढ़ रहा है, जिस अंगरेज़ी भाषा में सनातन और धर्म जैसे दो प्रमुख शब्दों के लिए उपयुक्त शब्द तक नहीं हैं. इसे विबिडंबना कहें या फिर कुछ कुटिल लोगों का षड्यंत्र कि अंगरेज़ी में सनातन पर ज्ञान परोसने वाले या तो अंगरेजी लेखक हैं या फिर पश्चिम सभ्यता में पले-बढे लेखक.

ये गोरे और काले अंग्रेज, किसी और (भारत की) ज़मीन पर विकसित हुई महान सभ्यता के साथ कितना निष्पक्ष रहते हुए न्याय कर पाते होंगे, कोई भी आसानी से समझ सकता है. आखिरकार वे भी मानव ही हैं, अनेक मानवीय दुर्गुणों और दुराग्रह से ग्रसित.

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