बुज़ुर्ग दिवस : सहेज लीजिये, संजो लीजिये, ये बुजुर्ग ही हमारी असली धरोहर हैं

जैसे पता चला आज ‘बुज़ुर्ग दिवस’ है, तुरन्त बाबा का चेहरा आँखों के सामने घूम गया. ससुराल के कुछ प्रिय रिश्तों में ये रिश्ता मेरा सर्वाधिक प्रिय रहा. लोग महापुरुषों की बातें करते हैं मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे उनका सानिध्य प्राप्त हुआ. बाबा की बात करूँ तो कितनी स्मृतियाँ सहसा कौंध जाती हैं कि मैं एक किताब लिख दूँ. अपने जीवन में उन सरीखा आत्मसम्मानी मैंने किसी को नहीं देखा और देख भी नहीं पाऊँगी. उनके त्याग, कर्तव्यों पर आँखें सदैव छलछलाती हैं और सिर श्रद्धा से नत हो जाता है, उनके संघर्षों की गाथाएं सदैव संबल बढ़ाती है.

बाबा ने यूँ तो मेरे विवाह की सारी रस्में बहुत हर्ष से निभाई थीं क्योंकि मेरे पति के प्रति उनका विशेष स्नेह था लेकिन उनका हृदय जीतना हरएक के सामर्थ्य की बात नहीं थी. पता नहीं मेरे कौन से गुण उन्हें भाते गए कि मैं उनकी प्रिय बन गई और मुझपर उनका विशेषाधिकार हो गया.

बाबा से पहला साक्षात्कार मुझे अपनी विदाई के दिन हुआ, जिस कार से मैं अपने मायके से ससुराल के लिए विदा हुई उसमें मेरे, मेरे पति, ड्राईवर के अतिरिक्त चौथे व्यक्ति बाबा थे. ये मेरे लिए आश्चर्य का विषय था. ससुराल पहुँचने पर कुछ द्वार पर होनी वाली रस्मों के दौरान लोगों की बातों से पता चला कि मेरे गृहप्रवेश तक बाबा धूप में ही खड़े थे. मेरा सूटकेस भी बाबा ने ही खोला था. हर चीज मुझे विस्मय में डाल रही थी.

विवाह से पूर्व ही नौकरी लग चुकी थी लेकिन स्थानान्तरण न होने की वजह से शीघ्र ही विदाई हुई. जब बाबा के पाँव छूने गई तो उन्होंने मेरे हाथ में रुपये रखे इस सीख के साथ कि अब तुम इस घर की हो. मायके से कोई चीज मत लेना. कोई आवश्यकता हो तो मुझे बताना. मैं बस अभिभूत थी.

ये बातें कालान्तर में भी चलती रही. यदि मायके से मुझे कुछ मिलता वो मेरा स्वभाव था कि मैं बाबा को दिखाती थी और बाबा से मुझे मीठी झिड़की ही मिलती. माँ के गुज़र जाने के बाद जब पापा ने माँ के कर्णफूल मुझे दिए और वापस आने पर जब मैंने रोते हुए बाबा को दिखाया तो बाबा ने डाँट के साथ सांत्वना भी दी. मुझपर उनका अटूट भरोसा था. मैं कुछ भी कहती वही उनके लिए सच होता और ये सच भी था कि मैंने उनसे कभी झूठ नहीं बोला.

कई बार ये भी सुनने को मिलता कि उन्होंने मुझे सिर चढ़ाया है और ननद-देवर ने उन्हें मेरे “बॉयफ्रेंड” की संज्ञा दे डाली थी. बाबा हमेशा मेरी आस्था का केंद्र रहे. जब भी मैं टूटती, दुखी होती, उनके पास बैठ जाती और पुनः आत्मविश्वास भर अपने कर्तव्यों में संलग्न हो जाती. वो मेरी ऊर्जा का केंद्र रहे. निःस्वार्थ दूसरों के लिए कुछ करने की शिक्षा मैंने उनसे ही पाई. कह सकती हूँ कि व्यवहारिक जीवन के मेरे एकमात्र गुरु वही हैं. दूरदर्शिता, आत्मविश्वास, आत्मसम्मान, समर्पण, मितभाषिता, दृढ़निश्चय, अपने मार्ग पर अडिग रहना… यदि लेश मात्र भी मुझमें है तो सिर्फ उनकी वजह से है.

बाबा का जाना मेरे जीवन की बहुत बड़ी क्षति रहा. उनके जाने के बाद जब पहली बार अकेले लखनऊ गई तो वो बहुत याद आये क्योंकि उन्हें पता होता था कि अकेले जा रही हूँ तो वो हर एक घंटे में मुझे फ़ोन करके मेरा हालचाल लेते रहते. जब पहुँची तो पन्द्रह मिनट बाद भाभी ने कहा –आपके बाबा होते तो फ़ोन आ गया होता. ये उनकी कुछ बातें हैं जो सदैव मेरे पास उनकी धरोहर के रूप में रहेंगी.

सच कहूँ तो ये बुजुर्ग ही हमारी असली थाती हैं, धरोहर हैं. इनका एक-एक पल किसी खजाने से कम नहीं. सहेज लीजिये… संजो लीजिये… नहीं कर पाये तो खो देंगे अपने जीवन की अमूल्य निधि को.

– अनीता सिंह

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