इस गीत को कंपोज करना लिखने से ज्यादा मुश्किल था. खय्याम को साधारण फिल्मी गीत नहीं, एक बेहतरीन लिखी नज्म को कंपोज करना था. उस समय के संगीत के हिसाब से इसमें तय मीटर वाली राईम भी नहीं थी, माने हर लाइन के अंतिम शब्द से जुड़ता दूसरी लाइन का अंतिम शब्द.
जैसे सुन साहिब सुन- प्यार की धुन, मैंने तुझे चुन लिया, तू भी मुझे चुन. यहां साहिर ने मीटर वीटर को गोली मारकर अपनी रवानगी में कुछ लिखा है जिसे खय्याम को कंपोज करना था पर खय्याम मुश्किल पिचों के बेहतरीन बेट्समैन थे. उन्होंने अद्भुत लिखे गीतों पर हमेशा अपना वर्चस्व रखते हुए उससे भी ज्यादा अद्भुत संगीत रचा. सबसे कम लाइमलाइट में आये हिन्दी फिल्मों के सबसे गुणी संगीतकार.
कहा गया कि फिल्म कभी कभी साहिर की कहानी थी पर साहिर की कहानी जाहिर तौर पर कभी दर्ज हुई ही नहीं तो परदे पर क्या आती. प्यार को परोसने का सलीका साहिर में था ही नहीं. वो सब कुछ अपने में समाये चलता रहा और फिर एक दिन चला गया. फिल्म में अमिताभ जिसे साहिर का पात्र माना गया, प्रेम अधूरा रहने पर उस दुख में कविताएं लिखना बन्द कर देता है जबकि साधारण मनोविज्ञान में तो प्रेम और प्रेम की गहरी चोट आपसे यादगार सृजन कराती है पर शायद तय कुछ भी नहीं.
प्रेम का खत्म होना इंसान के जीवन में कुछ भी बदलाव ला सकता है. प्रेम खत्म होने के बाद प्रेमियों की क्या मनोदशा होती होगी, ये एक गहरा मनोविज्ञान है. कईयों के लिये प्रेम की जगह घृणा ले चुकी होती होगी. कई संवर जाते होंगे तो कुछ बिखर जाते होंगे. वैसे आज के समय में प्रेम का पूरी तरह से खत्म होना प्रेक्टिकल नहीं दिखता. आपका भूतपूर्व प्रेम फेसबुक की पोस्ट और व्हाट्स एप की हाय-हैलो में घूमता फिरता रहता है. पूरा खत्म होना जरा मुश्किल है. यहां मनोहर श्याम जोशी की अपने उपन्यास कसप में लिखी पंक्तियां बहुत प्यारी है –
“एक शास्त्रीय आपत्ति ये भी है कि जो प्रेमी रह चुके हैं क्या वो साझीदार मित्र रह सकते हैं? क्या प्रेम-स्वर मंद्र कर मैत्री सप्तक में लाया जा सकता है. प्रेम वैसी सयाने लोगों द्वारा ठहराई हुई चीज़ नहीं है. वो तो विवाह है जो इस तरह ठहराया जाता है.”
ये विरोधाभास भी क्या कम दिलकश है कि हम जिस समय, काल और स्थितियों में है वो प्रेक्टिकल होने का है और ये प्रेम जब मिलता है तो बहुत गहरी परतों के साथ आपके सामने प्रस्तुत होता है. संतुलन की लड़ाई जारी रहती है.