आडंबर में फंसे हिन्दू धर्म को, हिंदुत्व को, अर्वाचीन काल में बाहर निकाला तीन महर्षियों ने – 1. स्वामी विवेकानंद, 2. स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर, 3. डॉ केशव बलिरामपंत हेडगेवार
स्वामी विवेकानंद के जन्म के समय (सन 1863), 1857 के स्वतंत्रता समर को मात्र 5–6 वर्ष ही हुए थे. अंग्रेजों की भयंकर दहशत पूरे समाज में, पूरे वातावरण में थी. लोगों का झुकाव ईसाई धर्म की तरफ बढ़ रहा था.
[हिंदुत्व-1 : हम ‘हिन्दू’ किसे कहेंगे..?]
किन्तु मात्र 39 वर्ष का जीवन जीने वाले स्वामी विवेकानंद जी के मृत्यु के समय परिस्थिति एकदम भिन्न थी. क्रांतिकारी आंदोलन ने जबरदस्त जोर पकड़ा था. अंग्रेज शासन के विरोध में लोग मुखर हो रहे थे. ईसाई धर्म के प्रति लोगों का आकर्षण बड़ी हद तक कम हुआ था.
स्वामी जी ने अपनी अल्पायु में हिंदुत्व का विश्व में उद्घोष किया. यह बात अवश्य है, कि उनके सारे भाषणों में, साहित्य में ‘हिंदुत्व’ शब्द का प्रयोग कही भी नहीं हुआ हैं. यह शब्द ही तब अस्तित्व में नहीं था. अतः स्वामीजी ‘Hinduism’ अर्थात ‘हिन्दुवाद’ इस शब्द का प्रयोग करते हैं.
[हिंदुत्व-2 : संगठित हिन्दू समाज]
1890 के दशक तक दुनिया में Communism छोड़ कर किसी और ism का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था. आज के दौर में शायद स्वामीजी Hinduism शब्द का प्रयोग न करते हुए, ‘Hinduness’ (हिंदुत्व) इस शब्द का प्रयोग करते.
स्वामीजी में अध्यात्म और विज्ञान का अद्भुत संगम था. उन्होंने हिन्दू धर्म के आडंबर को सिरे से ख़ारिज करते हुए, शुद्ध रूप लिए, सनातन हिन्दू धर्म का (जो पूर्णतः वैज्ञानिक है) जयघोष किया हैं. उनके वाक्य हैं – “हिन्दू होने का मुझे अभिमान हैं. मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि संसार में केवल एक ही देश हैं, जो धर्म को समझ सकता हैं – वह हैं भारत. हम हिन्दू, अपनी संपूर्ण बुराइयों के बावजूद नीति और अध्यात्म में दूसरे राष्ट्रों से बहुत ऊँचे हैं.”
[हिंदुत्व-3 : सामर्थ्यशाली हिन्दू]
अमरीका में वे कहते थे, “मैं ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता व सार्वभौम स्वीकृति, दोनों ही शिक्षा दी है. मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान हैं, जिसने पृथ्वी के सभी धर्मों, तथा उत्पीड़ितों एवं शरणार्थियों को आश्रय दिया है.
स्वामी जी ने अपने अनेक उद्बोधनों में, आलेखों में एवं पत्रों में Hindu Nation (हिन्दू राष्ट्र) शब्द का प्रयोग किया हैं. 1899 में दूसरी बार अमरीका जाते समय, ‘पूर्व और पश्चिम’ इस शीर्षक के अपने लेख में स्वामी जी लिखते हैं, “Now you understand clearly, where the soul of this progress is. It is in religion. Because no one was able to destroy that, therefore the ‘Hindu Nation’ is still living.” (इस लेख में स्वामी जी ने ‘धर्म’ के लिए ‘religion’ शब्द का प्रयोग किया हैं. किन्तु वे दोनों शब्दों का अंतर जानते थे. ऐसा वे पश्चिम के सामान्य नागरिक को समझाने के लिए ऐसा लिख रहे हैं).
स्वामी जी ने अत्यंत स्पष्ट शब्दों में लिखा हैं, “यह मत भूलो कि तुम्हारा जन्म जगदंबा के चरणों में समर्पित होने के लिए हैं. मत भूलो कि ये शूद्र वर्णीय, अज्ञानी, निरक्षर, गरीब, यह मछुआरा, यह भंगी.. ये सब तुम्हारे ही अस्थिमांस हैं. ये सारे तुम्हारे भाई हैं. तुम अपने हिंदुत्व का अभिमान धारण करो और स्वाभिमान से घोषणा करो कि मैं हिन्दू हूँ और सारे हिन्दू मेरे भाई हैं. यदि भारत यह देह हैं, तो ध्यान रखो, हिंदुत्व उसकी आत्मा है.”
[हिंदुत्व-5 : राष्ट्र सर्वप्रथम]
हिंदुत्व को आडंबर से बाहर निकालकर शुद्ध रूप में लाने का, हिंदुत्व के प्रति अभिमान व्यक्त करने का बड़ा कार्य स्वामी जी ने किया, तो वीर सावरकर जी ने हिन्दू और हिंदुत्व की व्याख्या की (इसी लेखमाला के पहले लेखांक में उसका विस्तार से वर्णन है). ‘हिंदुत्व’ यह शब्द, सावरकर जी का ही दिया हुआ हैं. 1923 में सर्वप्रथम उन्होंने इस शब्द का प्रयोग किया.
[हिंदुत्व-6 : और विघटन प्रारंभ हुआ…!]
अपनी पुस्तक ‘हिंदुत्व’ में सावरकर जी ने अत्यंत विस्तार से हिन्दू शब्द की उत्पत्ति और हिंदुत्व के विभिन्न आयामों के बारे में लिखा है. उनका मानना है कि भारत की वैभवशाली नदियों के कारण भारत को ‘सप्त सिंधु’ कहा जाता था. पारसिक (ईरानी) और बेबीलोनियन संस्कृति में ‘स’ को ‘ह’ लिखते और कहते हैं. इसीलिए ‘झेंद अवेस्ता’ जैसे अति प्राचीन ग्रन्थ में भी ‘हप्त हिन्दू’ ही लिखा गया हैं, जो बाद में ‘हिन्दू’ हुआ. सावरकर जी का कहना हैं, ‘हिन्दू यह हमारी पहचान हैं. उसे ‘बाकी लोगों का दिया हुआ नाम’ कहकर उससे दूर भागना, निरी मूर्खता हैं.
[हिंदुत्व-7 : आडंबर की उपासना]
इस सारे कालखंड को डॉ. हेडगेवार बहुत अच्छे से देख रहे थे, समझ रहे थे. वे बंगाल में कुछ वर्ष रहे. उन्होंने देश का भ्रमण भी किया. देश, काल, परिस्थिति का चिंतन करते हुए उन्होंने पाया कि गत एक हजार वर्षों से हम गुलाम क्यों होते जा रहे हैं..? इस समस्या के मूल तक जाना पड़ेगा. और फिर ध्यान में आता है कि हिन्दू समाज के संगठित न होने के कारण यह धीरे धीरे सामाजिक बिखराव का शिकार हुआ और साथ में परतंत्र भी हुआ. अतः इस समस्या का उत्तर हैं – हिन्दू समाज का संगठन.
अतः अनेक वर्षों के विचार के पश्चात डॉ हेडगेवार ने 1925 की विजयादशमी के दिन ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के रूप में हिन्दू संगठन की एक कार्यपद्धति को विकसित करने का प्रयास किया. बहुत ज्यादा ‘वैचारिक द्वंद्व’ में न पड़ते हुए, प्रत्यक्ष मैदान में, उन्होंने हिन्दू संगठन का खाका तैयार किया, जो आज राष्ट्रीय पुनर्जागरण का प्रमुख संवाहक हैं..!