अधर्म को ईंधन बनाकर प्रज्वलित हुई अग्नि सदैव प्रकाशित करती है धर्म को

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रामः शस्त्रभृतामहम् ( शस्त्रधारियों मे राम मैं हूँ )
(भगवदगीता)
जानते है क्या अंतर है श्रीराम और रावण में?
मात्र एक शब्द का “संतुलन” ,
श्रीराम संतुलन के श्रेष्टतम स्तर “मर्यादा ” के सफलतम साधक थे और रावण असंतुलन का विराटतम हिमालय.
इसे विस्तार से समझना होगा.
आइये प्रयास करें.

दोनों ही मानव तन मे असामान्य जीवात्माओं से युक्त थे, एक स्वयं परात्पर परब्रह्म तो एक उनके वैकुंठ के विशिष्ट पार्षद. जब मानव तन था तो मानवीय पुरुषार्थ भी थे तो देखिये दोनो के पुरुषार्थ साधन में क्या अंतर था.

काम

जहाँ राम ने काम को मातृभाव से, प्रेम एवं करुणा से जय कर लिया वहीँ रावण बलात्कार, हरण, अवैध संबंधों के रूप में पतन को प्राप्त हुआ. जहां राम को परस्त्री में माता और पुत्री दिखाई पड़ती वहीं रावण को परस्त्री में वासनापूर्ति का नवरस जिसे येनकेन प्रकारेण पाने की कुचेष्टा भी सदैव तत्पर.

जहाँ राम पंचवटी में अपनी भार्या सीता के साथ अल्पकेलि का मानवोचित व्यवहार भी करते तो रश्क के मारे देवराज इंद्र के पुत्र तक को पीड़ित कर देते.

वहीं रावण सीता को भ्रमित करने तक के लिए भी राम का रूप ना धर सका, क्योंकि वह दृष्टि जो मंदोदरी में भी मातृभाव देखती थी वह दृष्टि रावण के सम्पूर्ण वासनाजगत को धराशायी कर सकती थी.

यह था काम के प्रति राम का अद्भुत संतुलन भार्या के प्रति नित्यनवीन, मर्यादित होते हुए असीम एवं भावो की जलधि सा गहन और परस्त्री के लिए आदर्श पुरुषोचित.

धर्म

जहां रावण मात्र औरस रूप से जैविक ब्राह्मण होकर आजीवन धर्मविरुध्द आचरण करता रहा, यज्ञभंग, ऋषिहत्या, राक्षसिवृत्ति की स्थापना और अनुसंशा, अगणित दुष्कर्म जिन्होंने धर्म को जर्जर कर दिया. वहीं राम ने ऐसे दुष्टों को दंडित करते हुए समाज के सभी वर्गों की उन्नति की योजनाएं बनाई, व्यापक जनहित को धर्म का आश्रय दिया और सर्वविधि से अधर्म का प्रतिकार किया जिसमें रावण वध भी एक मुख्य सोपान था.

आशुतोष, धर्मध्वजप्रिय, गंगाधर, देवाधिदेव महादेव की भक्ति दोनों ने ही की लेकिन जहाँ राम ने उस आध्यात्मिक शक्ति का सदुपयोग अपने आत्मिक उत्थान एवं जगकल्याण के लिए किया, वहीं रावण ने मात्र शक्ति का दोहन कर अपने निज स्वार्थ साधने में.

इसीलिये रावण मात्र शिवभक्त ही रह गया और राम स्वयं महादेव के भी आराध्य हो गए.
यह था राम का “धर्म” को लेकर अद्भुत संतुलन जो तात्कालिक धार्मिक आयोजनों एवं व्यवस्थाओं के जीर्णोद्धार को पूर्णतः समर्पित था.

मोक्ष

राम के जीवन और उनकी भौतिक निरासक्ति को देखिये ऐसा लगता है कि जैसे एक मानव के रूप में भी सदैव मोक्ष के अधिकारी हो सर्वदा, कोई ऐसा कार्य ढूंढिए जो उन्हें पुनर्जन्म हेतु बाध्य कर सके? नहीं ढूंढ पाएंगे आप कभी इसीलिये तो पुरुषोत्तम है वो. और रावण के कुकर्म उसे आज तक प्रतिवर्ष दहन के रूप में भोगने पड़ रहे हैं.

बल,
बुद्धि,
ज्ञान,
त्याग,
संबंध (रिश्ते),
पराक्रम ,
विमर्श ,
क्रोध ,
ऐसे शताधिक विषयों पर आप राम और रावण में अंतर ठीक उसी प्रकार देख सकते हैं जैसे श्याम पट्ट पर श्वेत लिखावट.

अतिज्ञानी कहते है कि वह श्रेष्ट भाई था जिसने अपनी बहन के अपमान का प्रतिशोध लिया?

कैसा प्रतिशोध ??
एक परिणीता स्त्री का धोखे से हरण !
वह भी तब जब उसके रक्षक अनुपस्थित हो, रावण की वीरता का बखान गाने वाले सुवाच ये बताने का कष्ट करें कि क्यों महाबली, देवेंद्रजयी रावण अपनी बहन के अपमान के प्रतिशोध हेतु उस वन मे सीधे राम-लक्ष्मण से युद्ध को प्रस्तुत नहीं हुआ?
क्यों एक पराक्रमी योद्धा को कायरों की भांति षड्यंत्रपूर्वक एक स्त्री का अपहरण करना पड़ा?

क्योंकि सच यह नहीं है कि रावण से सीता का हरण सूर्पणखा के अपमान के प्रतिशोध स्वरूप किया था वरन यह रावण की निजी दुर्भावना थी जो सीता को पाने के लिये तब से धधक रही थी जबसे वह स्वयंवर में अपमानपूर्वक हारकर लौटा था.

सीता की अनिध्य सुंदरता पर रावण खलचरित्रों की तरह आसक्त था और अपनी इस दूषित कामना की पूर्ति के लिए उसने सूर्पणखा के प्रतिशोध को बहाना बनाया.

उसे विश्वास था कि अपने पति से अनंत विरह में दुखी एवं दुर्बल सीता उंसके मायावी प्रपंचों में उलझकर परिस्थिति से समझौता कर लेगी किन्तु उसका अनुमान पूर्णरूपेण मिथ्या साबित हुआ.

तब उसका एक और दुर्गुण अपनी पराकाष्ठा पर पंहुंचा अहंकार के रूप में, और इसी अहंकार और शक्ति के मद मे चूर रावण स्पष्ट सत्य ना देख सका और पतन को प्राप्त हुआ.

क्या इस व्यवहार को “ब्राह्मण” कहा जाता है?
यदि हाँ ! तो कहिये भगवदगीता में कृष्ण किसे ब्राह्मण कर रहे है इस श्लोक में,

“शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्‌ ॥

भावार्थ : अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध (विषय, वासनाओं, दुर्भावनाओं ) रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं॥42॥

कहिये इनमें से कौन सा ब्राह्मणोचित सद्गुण आपको रावण के चरित्र में दिखता है?

“यदि रावण के आह्वान पर देवाधिदेव महादेव अपने आत्मलिंग रूप में रामेश्ववर धाम में पधारे तो महान शिवभक्त लंकेश ने उन्हें लंका में ही विराजने का आह्वान क्यों नहीं किया?
महादेव श्रीराम के प्रेमपूर्व आग्रह पर रामेश्वर में प्रकट हुए थे ना कि रावण के पौरोहित्य से प्रभावित होकर.”

हे ज्ञान के ठेकेदार रावणभक्त ब्राह्मणों! क्या परमपिता ब्रह्मा, श्रेष्ठ ब्राह्मण विष्णु, वामन, परशुराम, वशिष्ठ, व्यास, पराशर, भृगु, दत्तात्रेय, सप्तर्षियों की अथाह श्रृंखला को छोड़कर मात्र एक औरस जैविक ब्राह्मण “रावण ” ही मिला तुम्हे अपने माथे का मोड़ बनाने के लिए?

क्षमा करना फिर या तो आप लोग ही ब्राह्मण है या मैं.

और हे रावण विरोधियों !
क्या तुमने भी कभी यह नहीं पढ़ा कि,

“अहमात्मा गुडाकेशः सर्व भुताशय स्थितः

मैं ही जीवात्मा के रूप में हर जीवित प्राणी के हृदय में चेतना शक्ति के रूप में स्थित हूँ….

“ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति। भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया॥

भावार्थ : हे अर्जुन! शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए संपूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है॥61॥

माया से भ्रमित त्रिगुणों से प्रभावित रावण की देह के भीतर भी जीवात्मा तो श्रीराम /विष्णु/कृष्ण रूपी परमात्मा की ही है.

फिर रावण से इतनी घृणा?
उंसके सद्गुणों और उपलब्धियों सहित उसके किसी विशेष ज्ञान प्रकाश से भी घृणा?
यह भी उतनी ही मूढ़ता का परिचायक है बंधुओ!

स्मरण रहे.

“उत्तम विद्या लीजिये यद्यपि नीच पर होय,
पडा अपावन ठौर पर कनक तजै ना कोई.।”

स्वर्ण यदि पंक से आच्छादित भी हो तो अपनी निर्लिप्तता के चलते अपना मूल्य नहीं खो देता.

“रावण के जीवन से प्राप्त कोई भी उचित तथ्य संग्रहणीय हो सकता है विचारणीय हो सकता है और किसी परिस्थिति में वरेण्य भी हो सकता हैं किंतु यदि सम्पूर्ण जीवन चरित्र किसी का अनुकरणीय है तो वो मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का है.”

अतः हे सज्जनों ! ना रावण से द्वेष या घृणा करो और ना रावण से इतना प्रेम कि अनजाने में उसी के पथगामी हो जाओ. जिस संतुलन से श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हुए उसी का एक अंश रावण के चरित्र पर विचार करते समय आप भी स्थिर रखो तभी राम के समान शोभा प्राप्त हो पाएगी.

अस्तु उपरोक्त प्रस्तावना के अनुरूप मैं अपनी मति के आधार पर कह सकता हूँ कि ना रावण के वध को स्मरण करने में कोई दोष है ना उसके मानसिक वध पश्चात उसका दहन करने में, अपीतु यह तो बुराई पर अच्छाई की विजय है, सज्जनों को त्रस्त कर देने वाले आतताई पर कल्याणकर्ता की विजय है, अधर्म पर धर्म की विजय है जो निश्चित ही उल्लाह एवं परमहर्ष का विषय है.

अतः बिना किसी बौद्धिक दौर्बल्य के इस शुभावसर पर अधर्म की भौतिक मूर्ति रावण की मायावी देह के अंत का उत्सव मनाइए और उसका दहन के रूप मे संस्कार भी कीजिये क्योंकि,
” अधर्म को ईंधन बनाकर प्रज्वलित हुई अग्नि सदैव धर्म को प्रकाशित करती है. ”

हे रघुकुलभूषण कमलनयन श्री राम! मुझे मोक्ष नहीं चाहिए वरन मुझे लाखों जन्म दीजिये उन ब्राह्मणों के घर मे जहां श्रीरामचरित मानस और भगवदगीता के शब्द गूंजते हो, जहां कुल परंपरा से प्राप्त इस अनुपम ज्ञान का प्रसार सम्पूर्ण विश्व में कर सकूं.

अधर्म पर धर्म की विजय के इस महापर्व विजयादशमी की आप सभी को सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएं.

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