दंडकारण्य में सुतीक्ष्ण ऋषि ने ऋषियों की यत्र-तत्र बिखरी हड्डियां दिखा कर जब राम से राक्षसों के अत्याचार की कथा कही तो राम द्रवित हो गए और प्रतिज्ञा कर ली कि ऋषियों की रक्षा के लिए मैं सारे राक्षसों का वध करूँगा. माँ जानकी ने यह प्रतिज्ञा सुनते ही तत्क्षण उन्हें टोका और कहा, “इस संसार में काम से पैदा होने वाले तीन ही व्यसन हैं. पहला है मिथ्या भाषण, दूसरा है पराई बहू और बेटी को ताकना और तीसरा है बिना वैर के ही दूसरों के प्रति क्रूरता का बर्ताव.”
सीता ने कहा, “पहले दो व्यसन तो आप में नहीं हैं पर ऐसी प्रतिज्ञा करके आप तीसरे व्यसन की ओर जा रहे हैं, जो ठीक नहीं है, क्योंकि निरपराधों को मारने में कोई वीरता नहीं है. जो राक्षस निरपराध नहीं हैं उसके वध को भी आप क्यों तत्पर हैं?
फिर सीता एक ऋषि की कथा कहते हुये कहतीं हैं कि मन और इंद्रियों को वश में रखनेवाला क्षत्रिय हो, वीर हो तो उसके हाथ में धनुष रहने का अर्थ इतना ही है कि वे संकट में पड़े हुए प्राणियों की रक्षा करे अन्यथा निरर्थक हिंसा और निरपराधों को मारने में कोई वीरता नहीं है.
श्रीराम को तो वशिष्ठ और विश्वामित्र जैसे महान गुरुओं का साहचर्य मिला था पर सीता इस सौभाग्य से वंचित थीं पर राम उनके तर्कों को काट नहीं पाये बल्कि उन्होंने इस बात के लिये सीता की सराहना ही की.
फिर भी महत्व इस बात का नहीं है कि सीता माता के उस कथन का प्रभु ने अनुपालन किया या नहीं किया, अथवा माता के प्रश्न के उत्तर में उन्हें किन तर्कों से संतुष्ट किया, यहाँ विचारणीय ये है कि आज से लाखों वर्ष पूर्व के उस समाज में पत्नी के अधिकार क्या थे और वो किस तरह निर्भयता के साथ अपने उन अधिकारों का प्रयोग करती थी और पति भी उसके इस अधिकार प्रयोग का सम्मान और सराहना ही करता था.
सीता के बारे में स्वामी विवेकानंद जी यूँ ही नहीं कहा करते थे कि भारत और हिन्दू जाति को गर्व है कि उसने सीता जैसी नारी को जन्म दिया. इस नवरात्रि में शक्ति की उपासना के बीच माँ जानकी के पुण्य स्मरण के साथ शुभकामनाएं आप सभी को.