बात पिछले वर्ष की है जब बड़े सुपुत्र ज्योतिर्मय का पहला दांत टूटा था. शाम को अपने कम्प्युटर पर नज़रें गड़ाए कोई खबर बना रही थी. स्वामी ध्यान विनय किसी काम से आँगन की तरफ गए… जिस कमरे में मेरा कम्प्युटर रखा है वो आँगन से घर में प्रवेश करते हुए सबसे पहले पड़ता है. इसलिए आँगन में हो रही हलचल या मुख्य द्वार पर किसी आने की आहट तुरंत मिल जाती है.
अचानक आँगन की तरफ से स्वामी ध्यान विनय की आवाज़ आती है – “कब जाओगी तुम शैफाली?
मैंने वहीं बैठे बैठे ज़ोर से पूछा – कहाँ?
मेरी आवाज़ सुनकर ध्यान विनय कमरे में आते हैं- क्या कहाँ?
आपने पूछा न कब जाओगी?
वो बोले मैंने कब पूछा मैं तो आँगन में टहल रहा था…
मुझे लगा मज़ाक कर रहे हैं – अरे कितना स्पष्ट सवाल था.. आपने मेरा नाम लेकर कहा – कब जाओगी शैफाली?
ध्यान विनय इस बार हंस दिए- अरे भाई मैंने तो एक शब्द नहीं कहा.. आपकी आवाज़ सुनकर मैं तो अन्दर आया…
अब बौखलाने की बारी मेरी थी… बाजू में बड़े सुपुत्र ज्योतिर्मय खड़े थे मैंने उनसे पूछा- आपने भी सुनी ना पापा की आवाज़?
ज्योतिर्मय ने तुरंत कहा – नहीं तो…
अरे ऐसे कैसे हो सकता है…
तभी ज्योतिर्मय फिर बोले- शैफाली मम्मा मेरे साथ भी ऐसा होता है मुझे ऐसा लगता है किसी ने मुझसे कुछ कहा लेकिन मैं वहां देखता हूँ तो कोई नहीं होता..
वो आगे बोले – कई बार तो ऐसा होता है मुझे कोई चीज़ दिखाई देती है, मैं उसे उठाने जाता हूँ तो वहां कुछ नहीं होता…
सारा घटनाक्रम मुझे अब समझ आया.. यदि स्वामी ध्यान विनय की आवाज़ सुनने का भ्रम मुझे नहीं हुआ होता और हमने ज्योतिर्मय के सामने ये बात नहीं की होती, तो उनके साथ हो रही घटनाओं का पता हमें नहीं चल पाता…
छोटे से योगी ज्योतिर्मय अपनी यात्राओं के अनुभवों से गुज़र रहे हैं… उनके साथ ऐसा बहुत कुछ घटित हो रहा है जो उनके बाल मन के लिए कदाचित बहुत सहज है लेकिन उसके दूसरे पहलू से अभी वो अनभिज्ञ हैं…
ऐसे में मुझे वो सारी बातें याद आई जो स्वामी ध्यान विनय ने अपने बचपन की अब तक बताई हैं… उनमें से ऐसी बहुत सारी घटनाएं हैं जिन्हें यहाँ पर लिखना उचित नहीं होगा …
इसके दो कारण हैं, पहला जिनको मेरे इस “जादू” शब्द में यकीन नहीं वो उसे मात्र काल्पनिक समझ कर नकार देंगे..
दूसरा ऐसे अनुभवों से जब तक स्वयं न गुज़रा जाए.. उसे शब्दों में पिरोना बहुत मुश्किल होता है….
जो भी हो ये छोटे से योगी जो मेरे संन्यास के ठीक नौ महीने बाद मेरे इस भौतिक द्वार से अवतरित हुए हैं, उनकी बाल-लीलाओं के साथ मुझे कृष्ण युग की याद दिलाते हैं…
और जैसे मैं हमेशा कहती हूँ… हमारे ग्रंथों में लिखी बातें काल्पनिक हो सकती हैं… उनके पीछे के सन्देश नहीं, तो कई बार उनको किसी बात पर डांटने पर उनके मुख से निकली बात मेरे लिए वैसी ही होती हैं जैसे यशोदा को कृष्ण के मुख में ब्रह्माण्ड के दर्शन हुए थे…
एक बात तो वो हमेशा कहते रहते हैं- पता है चिकी (छोटे सुपुत्र गीत) हम जो देख रहे हैं… वो सिर्फ एक सपना है…. अपन सब लोग सपने में ही जी रहे हैं….
बहरहाल पिछले दो दिनों से अपने हिलते दांत के कारण परेशान ज्योतिर्मय कल रात को अपना दांत हाथ में लिए दौड़कर आये… शैफाली मम्मा मेरा दांत टूट गया और मुझे दर्द भी नहीं हुआ…
माँ के लिए बच्चे के पहले दांत के टूटने का अनुभव बड़ा अनोखा होता है… लेकिन आवश्यक भी… जैसे जन्म के बाद बच्चे का गर्भनाल से अलग होना आवश्यक होता है…
उस गर्भनाल को कई लोग अपने पूर्वजों की जन्मस्थली पर गाढ़ आते हैं… वैसे ही मैंने अपने बच्चों के पहले टूटे हुए दांत अपनी खजाने की छोटी सी डिबिया में सहेजकर रखे हुए हैं…. जैसे मैं ही उनके पूर्वजों की जन्मस्थली हूँ और मैंने उनकी विरासतें अपने अन्दर सहेज रखी हैं..
ये सहेजना उन स्मृतियों को सहेजने जैसा है जैसे शिशु का गर्भ में हलचल करने का अनुभव माँ जीवन पर्यंत सहेजे रहती हैं… अपने अन्दर किसी और जीव को पालना वैसा ही होता है जैसे कोई स्त्री अपने देह के मंदिर में परमात्मा की उपस्थिति अनुभव करे…
तभी तो बब्बा (ओशो) कहते हैं… स्त्री एक जीव को रचकर ही इतनी संतुष्ट हो जाती है कि उसे भौतिक दुनिया में कुछ और रचने की चाह बाकी नहीं रहती, इसलिए बहुत कम औरतें मूर्तिकार, शिल्पकार, या कलाकार हुई हैं…. जो हुई हैं वो इस आत्मिक रचना को ही भौतिक रूप देती हुई प्रतीत होती हैं… क्योंकि स्त्री से बड़ा रचनाकार इस धरती पर कोई नहीं…
लेकिन वो सबसे बड़ा रचनाकार जो ऊपर बैठा सारी लीलाएं संचालित कर रहा है.. उसकी इस कृति को देखकर यही विचार आता है… जिसकी रचना इतनी सुन्दर वो कितना सुन्दर होगा…
अति सुंदर