किंवदंती लता मंगेशकर : न भूतो न भविष्यति

लता मंगेशकर मेरे लिए एक रहस्य की तरह हैं. मैंने उन्हें देखा नहीं और पता नहीं कभी उनसे मिल पाऊँगा भी नहीं. मेरे जैसे कितने ही होंगे जो लता (मैं जानबूझ कर ‘जी’ नहीं लगा रहा जिसमें अनादर नहीं प्रेम से भी ऊपर कुछ है) से कभी नहीं मिले और शायद कभी न मिल पाएंगे. पर क्या इस से लता के प्रति उनका प्रेम कम होगा?

रहस्य इसलिए कि क्या वाक़ई ऐसी कोई शख़्सियत मेरे समय में है और मैंने उसे गाते हुए देखा नहीं? मतलब यक़ीन की हद तक आश्चर्य भी कि एक आवाज़ जो लगभग 70 साल से हिंदुस्तान के हर आम-ओ-ख़ास की ज़िंदगी में बनी हुई है. उसके ज़ेहन में, स्मृति में शायद भीतर-भीतर समाई हुई. क्या लता को किसी विशेषण, सम्मान, प्रशस्ति आदि के बाद भी किसी और तरीक़े से नवाज़ा जा सकता है?

मेरा ऐसा कहना केवल लता के प्रति दीवानगी ही है जिसे मैं शब्द नहीं दे पा रहा. कैसे बता दूँ कि लता की आवाज़ सुनकर क्या एहसास होता है! ऐसा भी क्या बचा कहने, सुनने और जानने जो लता मंगेशकर के क़द, शख़्सियत और काम को बयां कर सके! लता होने के मायने क्या हैं, इसका अंदाज़ा संगीत के दीवाने देश में कोई भी नहीं लगा सकता.

हम एक ऐसे दौर में रह रहे हैं जहां आज लता हमारे सामने एक किंवदंती की तरह हैं, जिनकी कहानियाँ हमने सुनी हैं, क़िस्से सुने हैं, गीत सुने हैं. हाँ, संचार से भरे इस समय में यह भी क्या कम कि टीवी पर उनको देखा भी है. और फ़ेसबुक पर लाइव चैट करते भी देखा-सुना. सवालों के जवाब देते और एक मुस्कान के साथ विनम्र आभार जताते भी. अब जबकि उम्र के नौवें दशक के पास वो पहुँच गई हैं, लता मंगेशकर अजूबे के साथ ही एक धरोहर की तरह ही लगती हैं जिसके टुकड़े-टुकड़े को संभाल लेना हमारी भी ज़िम्मेदारी है.

लता उस दौर से गा रही हैं जब गाना गुनगुनाना ही एक अपराध माना जाता था. सिनेमा को नाच-नौटंकी ही कहा जाता था और उसके भी पहले के समय में इसे ख़राब या गलत धंधे की तरह देखा जाता था. यहाँ ऐसे में लता ने जब संगीत के प्रति अपनी आस्था भी अगर प्रदर्शित की होगी तब भी किस तरह से उन्होंने बगावत अख़्तियार की होगी, उसकी बस कल्पना की जा सकती है. बिलकुल, वह एक संघर्ष ही होगा और फिर सिनेमा में पेशे की तरह गाना तो कल्पनातीत ही होगा. उस पर भी एक मध्यमवर्गीय परिवार की स्त्री के लिए जिसने शायद गाना केवल पैसा कमाने और अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए ही चुना.

लता मंगेशकर की यह प्रवृत्ति उनके कोमल गले और ज़ेहन का सबसे मज़बूत पक्ष रहा होगा. उस दौर का बंबई अपने समय से बहुत आगे ही रहा होगा इसमें कोई संदेह ही नहीं है. ऐसे में क्या लता के व्यक्तिव का यह सबसे अनोखा पक्ष नहीं जब वो जीवन और मरण में से जीवन का चुनाव करते हुए महानगर की विराटता से टकराती हैं. क्योंकि यह तथ्य किसी से भी छुपा नहीं कि चार भाई/बहनों में सबसे बड़ी लता अपने पिता की मृत्यु के बाद अपने परिवार की मुखिया की जिम्मेदारियों को हँसते हुए ही गले लगाती हैं. हम केवल कुछ समय के लिए इसी परिस्थिति को आज के समय में लाकर देखते हैं कि क्या कोई व्यक्ति अपने लिए यह चुनाव करेगा ?

आज से आधी सदी पहले परिवार के इर्द-गिर्द ही जीवन होता था और लता की कहानी हर दूसरे घर की कहानी थी. वो समय ही दरअसल आदमी के निर्माण का समय था. लता जैसी शख्सियत इसलिए भी ज़रूरी हो जाती हैं कि वो उदाहरण पेश करती हैं. भले ही उन्होंने कुछ भी न सोचा हो उस समय कि आने वाला समय या अगले पचास-साठ साल उन्हें क्या दिखाने वाले हैं? लता उस समय क्या सोचती थीं, इसका जवाब केवल वही दे सकती हैं. यह भी कम दिलचस्प नहीं कि मजबूरी में सही उन्होंने ज़िंदगी को ही चुना था और ‘मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया’ की तर्ज पर ज़िंदगी ने उनका वो साथ दिया कि फिर सदियों बाद भी हम समय के शुक्रगुज़ार रहेंगे जो लता से उसने यह काम करवाया.

आज के समय में जब तथ्य थोड़े-बहुत भ्रम भी रचते हैं एक तथ्य के हिसाब से लता पहले-पहल हिन्दी फ़िल्मों में समूह में अभिनय भी करती थीं. यह इसलिए भी माना जा सकता है कि उनके पिता एक नाटक कंपनी चलाते थे जहां वे पाँच साल की उम्र से ही गायन कर रही थीं. अपने बचपन में ही उन्होंने अभिनय के पाठ जाने-अनजाने ही सीखे और फिर पिता की मृत्यु के बाद अभिनय ही उन्हें पहला आसान पड़ाव लगा होगा जहां से वो अपने परिवार की आर्थिक जिम्मेदारियों को वहन कर सकें.

यह सब तो वो सवाल थे जिनका सामना हर एक अपने जीवन में करता ही है. महत्त्वपूर्ण यह कि हम उसका जवाब कैसे देते हैं. लता के लिए मुझे यह भी लगता है कि जब अभिनय के बाद गायन के क्षेत्र में उन्होंने क़िस्मत आज़माने के बारे में सोचा तब नूरजहां और शमशाद बेगम जैसे नामों का दबदबा था. उस पर से कम उम्र और पतली आवाज़…क्या कुछ गुज़र रहा होगा उनके भीतर अपने सपनों की आड़ में? निश्चित रूप से सफ़लता और असफ़लता की बात कोसों दूर होगी और हर हाल में उनका लक्ष्य अपने हुनर से धन अर्जित करना ही होगा. ऐसे में उनकी शख़्सियत का एक और पहलू मिलता है जब फ़िल्मी दुनिया की चमक-दमक से दूर सादगी के साथ रहते वे अपने लिए आजीवन अविवाहित रहने का फ़ैसला करती हैं.

एक व्यक्ति के रूप में उनकी निजता और कथित प्रेम के घटित होने के प्रति सम्मानपूर्वक सर झुकाते हुए अगर हम उनके जीवन के इस सच पर नज़र डालते हैं तो हम पाते हैं कि वहाँ भी पहले परिवार की ज़िम्मेदारी और फिर पेशेगत व्यस्तता ही आड़े आती है. परदे पर कालजयी गानों और रूमानियत की हवाओं में मीठी, गुनगुनी पुकार, अंदाज़, अल्फ़ाज़ और अहसास उनके ख़ुद के जीवन से महरूम रहे. पर फिर भी लता की मुस्कान की परत के पीछे जो भाव रहे, उनमें अवाम ने जीवन के प्रति शुक्रिया को ही महसूस किया. फिर संगीत जैसी अमूर्त कला में, जहां केवल भावनाओं का ही काम है लता ने एक-एक इंसान के दिल को छुआ और यहीं इस कला का, लता का और उनकी गायकी का चमत्कार घटता है. क्या हम लता दीदी के शुक्रगुज़ार नहीं रहेगे कभी ?

विद्रोह के विस्फोट बाद भी लता संयमित लबादे में एक भारतीय की तस्वीर ही पूरी दुनिया में फैलाती हैं. उनकी तस्वीर से देश की मिट्टी की सुगंध आती है. हल्के रंग की साड़ी, माथे पर दमकती बिंदी, दो हँसती-खेलती चोटियाँ, कंधे पर सलीके से ओढ़ा हुआ पल्लू और गले की खनक में सहजता और विनम्रता. कला को इस सहजता से आत्मसात करती लता मंगेशकर क्या अपनी इस छवि से ही ‘भारत रत्न’ नहीं हो जाती? हम-आप उनके विद्रोही स्वभाव की बहुत बातों के बाद भी इंटरनेट पर उपलब्ध कुछ वीडियो के सहारे ही यह महसूस कर सकते हैं. इस वक़्त तो फिलहाल कुछ सूझ ही नहीं रहा कि उनके कौन से गाने याद किए जाएँ? सबकी अपनी-अपनी पसंद होगी ही.

उन्हें मिले बहुत से विशेषणों में इस वक़्त गुलज़ार साहब की पंक्तियाँ ‘मेरी आवाज़ ही पहचान है गर याद रहे’ इकतारे-सी कानों में गूंज रही हैं. एक पूरा युग सिनेमा का उन्होंने देखा है, कितना कुछ बदलते देखा है, इतिहास बनते, मिटते भी देखा है. क्या एक व्यक्ति अपने जीवन में इतना सब हासिल कर सकता है? उनकी आवाज़ पहाड़ से उतरती किसी नदी की तरह लगती है. नदी की तरह ही दूर तक जाती हुई, सबको समेटे, उछलते-कूदते, किनारों को बसाते, हरियाली और जीवन की बसाहट करते, स्वयं से उगते और अंत में समुद्र में उतरकर विराट समष्टि ही बनते. लता दीदी आप शतायु हों ! आपके कंठ में सचमुच ही भगवान होगा.

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