काली काली महाकाली कालिके परमेश्वरी।
सर्वानंद करे देवि नारायणि नमोस्तुते ।।
“काल” यह एक शब्द सुनकर प्रायः मन कम्पित हो जाया करता है, यह भीतर का कम्पन शुभ ही है क्योंकि काल शब्द समय और मृत्यु दोनों की याद दिलाता है और सामान्यतः दोनों के प्रति बेहोशी और बेख़याली ही हम आप को धर्म भीरु बनाता है.
काल से ही जुड़े दो बहुमूल्य शब्द हैं महाकाल और महाकाली… जो सनातन परम्परा में आदिदेव शिवशंकर और आदि भगवती माँ पार्वती का रूप कहा गया है.
व्यक्तिगत रूप से मैंने पौराणिक कथाओं को संकेतों में छिपे गूढ़ रहस्य की तरह ही पाया है. यहाँ कोई भी नाम अकारण नहीं सुझाए गये हैं, कोई भी पौराणिक चरित्र अकारण नहीं गढ़े गये हैं. आज के परिपेक्ष्य में भी अमूनन जिन बातों पर कोई प्रश्न नहीं जगता, वहां भी प्रश्न उठाता रहा हूँ मैं…
अभी अभी एक रोज पापा जी से महाकाली पर ओशो की व्याख्या के सम्बन्ध में बात हो रही थी तब मैंने उन्हें बताया कि महाकौशल क्षेत्र में विशेष रूप से लोगों की श्रद्धा है शक्ति स्वरूपा माँ काली के प्रति ऐसा क्यों… और शारदेय नवरात्रि में घट स्थापना में भी माँ काली की मूर्तियों का अलग ही वैभव दीखता है. आलम ये है कि नवमी के बाद भी करीब दो दिन तक अलग से काली विसर्जन का चलन है अपने यहाँ जबलपुर में.
शहर भर की दुर्गा जी की मूर्तियों के विसर्जन के बाद आखिर में काली जी की समस्त प्रतिमाओं का विसर्जन शुरू होता है. तिथि के हिसाब से देखें तो शायद ग्यारस या प्रदोष लग जाता है तब तक. 24 से 48 घंटे तक सड़कों पर चल समारोह होता है. मूर्तियाँ नर्मदा माई के तट पर विसर्जन हेतु ग्वारी घाट ले जाई जाती है.
5-6 फुट ऊँची प्रतिमा से लेकर 22-25-30 फुट ऊँची काली माई की भी प्रतिमा बनती है अपने यहाँ जबलपुर में. लोग झूमते नाचते चल समारोह में शामिल रहते हैं. यह सब देख के ऐसा ही लगता है मानों पूरा शहर ही शाक्त हो और सारे लोग शक्ति उपासना के महापर्व की शिखर बेला में काली माँ के समक्ष नतमस्तक हों!
इस ओर प्रकाश डालते हुए पूज्य पापा जी ने बताया कि जाबालिपुरम आदिकाल से आदिवासी बहुल क्षेत्र रहा है. कालांतर में लिखित इतिहास भी बताता है कि गौड़ राज रहा है महाकौशल क्षेत्र में. यहाँ तंत्रीय विधा का बोलबाला भी रहा, जिसका प्रमाण है नगर में स्थित तांत्रिक सिद्ध क्षेत्र बाजना मठ, शाक्त तंत्र स्थान चौसठ योगिनी का मंदिर, माँ बगलामुखी और त्रिपुरसुन्दरी माँ का मंदिर दोनों ही दस महाविद्याओं में से एक हैं.
इस तरह मेकलसुता नर्मदा के उत्तर तट में सैकड़ों सालों से देवी स्वरुप की उपासना का सघन ऊर्जा क्षेत्र बनता गया. इसके साथ साथ शिव पुत्री नर्मदा जी के तीर्थ क्षेत्र का अपना ही प्रभाव भी रहा. तो निश्चित ही वर्तमान समय में नगरवासी इस ऐतिहासिक आध्यात्मिक और धार्मिक ऊर्जा के आधार स्तम्भ पर बने धार्मिक अभिव्यक्ति के पर्व नवरात्रि के समय इस तरह शायद काली जी के स्वरुप को लेकर इतनी आत्मीय श्रद्धा के साथ स्वस्फूर्त स्वयं को जुड़ा हुआ महसूस करते हैं.