आज न जाने क्यों, एक ऐसी कहानी सुनाने का जी कर रहा है, जिसका मुझसे कोई संबंध नहीं. यह मेरी कहानी नहीं है, पर न जाने कब, न जाने कैसे बहते बहते मेरे जीवन के किसी घाट पर आ लगी यह कहानी, मुझे अपनी कहानी लगती है, लिहाजा इसे मेरी ही कहानी मान सुना जा सकता है.
करीब पैंतीस चालीस साल पहले पीछे चलते हैं, एक पूरब के शहर में, जो तब कस्बा हुआ करता था. उस शहर की धड़कन में धड़कता था एक पति-पत्नी का जोड़ा भी.
दोनों नें कालिज की पढ़ाई पूरी की थी और प्रेम विवाह किया था, जो उस दौर में, बहुत सहज बात नहीं हुआ करती थी, लिहाजा अपने जीवन निर्वाह के लिए, वे तमाम छोटे छोटे काम करते थे.
पति एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम करता, जहाँ वह किरानी था, पर अतिरिक्त आमदनी के लिए, वह साईकिल पर सामानों के कार्टन (कार्टून) लाद कर उन्हें लोगों के घर भी पहुँचाता, पत्नी एक प्राईवेट स्कूल में पढ़ाती.
घर की माली हालत बहुत खराब थी, जैसे तैसे घर के खर्चे चलते, हफ्ते दर हफ्ते राशन खरीदा जाता जो बमुश्किल पाँच दिन का होता जिसे सात दिन चलाया जाता, दो बच्चे भी थे, जिन्हें उसी आमदनी में सम्हालना था.
इस मुफलिस दौर में, जब एक एक आने की आमदनी या बचत बड़ी बात थी, एक दिन पत्नी को एक घर से बुलावा आया, उस घर के बच्चों को टयूशन पढ़ाने का. उस दौर में, पूरब के कस्बे नुमा शहरों में, किसी का अपने बच्चों को टयूशन पढ़वाना बड़ी बात होती थी, सौ रूपये महीने पर सारे बच्चों को टयूशन पढ़ाना तय हुआ.
महिला जिस स्कूल में पढ़ाती उसकी छुट्टी चार बजे होती, दस से चार बजे का स्कूल होता, घर से आठ बजे, पति बच्चों को खिला-पिला और सारे दिन का इंतजाम कर वह घर से निकलती. स्कूल में छुट्टी के बाद वहाँ से सीधे ट्यूशन पढ़ाने उनके घर जाती, जहाँ पाँच से सात बच्चों को पढ़ाती और आठ साढ़े आठ तक घर लौटती.
एक महीने के बाद, उन लोगों ने महिला से कहा कि पैसे इकट्ठे ही ले लीजिएगा, जब दो-तीन महीने के हो जाये. महिला को भी इसमें कोई बुराई नहीं लगी वह पढ़ाती रही, दो महीने पूरे हो गए, तीसरा चलने लगा.
जाड़ो के दिन शुरू हो चुके थे, तीसरा महीना खत्म होने को था, महिला ने विनम्रता से पैसे माँगे. उन लोगों नें कहा महीने को पूरा होने दीजिए एक साथ आपके पैसे दे देंगे.
इसके आगे की कहानी, महिला के शब्दों में, जैसे कि उन्होंने मुझे सुनाया था…
तीन महीने पूरे हो गए, मैंने उनसे कहा, मेरे आज तीन महीने पूरे हो गए हैं, मुझे पैसे मिल जाते तो मेरी कुछ जरूरत पूरी हो जाती. गृह स्वामी ने कहा, हम सब दो तीन दिनों के लिए बाहर जा रहें हैं, आप सोमवार को पैसे ले लीजिएगा, बच्चे भी हमारे साथ जाएँगे.
किसी तरह वे दो तीन मैंने बिताए, सोमवार की शाम मै वहाँ पहुँची, दरवाजा बंद था, मैंने कुंडी खड़काई, कोई जवाब नहीं आया. मुझे कुछ समझ नहीं आया, मैंने पड़ोस में जाकर उन लोगों के बारे में पूछा, तो उन लोगों नें बताया, वो लोग तो मकान छोड़ गए, उनकी बदली दूसरे शहर में हो गई.
मेरे पैर काँपने लगे, मै लौटकर एक बार फिर उनके दरवाजे पर आई, मुझे भरोसा नहीं हो रहा था, इस घर के बच्चों को, बीते तीन महीनों से, मै अपनें बच्चों को अकेला छोड़ पढ़ा रही थी और उन लोगों ने मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया.
बेशक, मेरी जरूरत में वह बड़ी रकम थी, पर उन लोगों के लिए यह कतई बड़ी रकम नहीं थी, फिर भी ! मुझसे खड़ा नहीं रहा गया, मै वहीं सीढ़ी पर नीचे ही बैठ गई और फफक फफक कर रो पड़ी.
बार बार अपने आँचल से मैं अपनी आँखें पोंछती और बार बार आँखें भर जाती, मुझे उठने की हिम्मत नहीं हो रही थी, न जाने कितने वक्त मैं वहाँ बैठी रही और रोती रही जब तक कि ये (महिला के पति) मुझे ढ़ूढ़ते वहाँ नहीं पहुँच गए.
…आज उस महिला की पहचान शहर के उद्यमियों में है, पर अपनी मजदूरी के उन पैसों की कसक आज भी उनकी आँखों में जस की तस है.
न जाने क्यों बजाय कि दुनिया भर में खुशियों की दुआ माँगने के, बस यह दुआ माँगने का जी किया कि “मेरे खुदा, किसी को कुछ मिले न मिले, पर एक मजदूर को उसकी मजदूरी जरूर मिले, मेरी बस यही कामना है.”