इन्साफ के क़त्ल पर लिखी गई कहानी है जिसमें एक हीरो है बाकी सारी जासूसी वाली किताबों की तरह. लेकिन ये भी एकदम साधारण टाइप है, न तो जेम्स बांड जैसा कुछ है इसमें न शेर्लोक होल्म्स जैसा. एकदम फिसिड्डी ! तो किस्सा कुछ यूँ है कि एक नवयुवक को एक दिन अपने पिता के जिन्दा होने का पता चलता है (उसकी माँ उसे मृत बताती रही थी). अपने पिता के बारे में पॉल मैथरी को पता चलता है कि कोई 16 साल पहले उन्हें किसी क़त्ल के जुर्म में उम्रकैद हुई थी. जब बेटा अपने बाप से जेल में मिलने की कोशिश करता है तो पता चलता है कि इस जेल में तो कैदियों से मिलने की इज़ाज़त ही नहीं !
लड़के को थोड़ा शक़ होता है लड़के को तो वो खोज बिन में जुट जाता है. अपने घर और शहर वापस जाकर वो केस के मुख्य गवाह से भी मिलता है जहाँ उसे कोई मदद नहीं मिलती. लेकिन जैसे जैसे लड़का खोजबीन करता जाता है, उसे अपने बाप की बेगुनाही का यकीन होता जाता है. सवाल था कि फिर क्यों उसके पिता को एक काला पानी जैसी जेल में उम्रकैद देकर, किसी से मिलने नहीं दिया जा रहा? यहाँ से कहानी में जासूसी शुरू होती है. उसकी मदद करने एक लीना नाम की लड़की भी कहानी में आ जाती है.
धीरे धीरे एक बड़ी साजिश का पर्दाफाश होने लगता है और नौजवान को अपना करियर रोजगार सब दाँव पर लगाकर काम करना पड़ता है. थोड़े ही समय में वो खुद भी उसी बड़ी सी साजिश का शिकार हो जाता है. लड़का जुटा रहता है केस की तह तक पहुँचने में और कई पुलिसवालों और नेताओं से भी उलझ बैठता है. जाहिर सी बात है कि वो कहानी का नायक है तो अंत में वो जीत भी जाएगा. इस पूरे किस्से में उसकी मुलाक़ात कई और किरदारों से होती है.
इन किरदारों में जो डरपोक लग रहा होता है वो बहादुर निकलता है. जो शरीफ सीधा सा लगता है, वो जासूसी कहानियों जैसा विलन निकलता है. थोड़ी देर में हर आदमी पर शक भी होने लगता है क्योंकि यहाँ ऐसे किरदार हैं जिन्होंने अपना काफी कुछ बलिदान तो कर दिया, मगर उसके बदले में उन्हें कोई लालच ही नहीं था ! किसी प्रत्युत्तर की आशा के बिना काम कर रहे लोग हमेशा असहज कर देते हैं. ये ए.जे. कोर्निनी का उपन्यास पहली बार उपन्यास की तरह आया भी नहीं था. ये कहानी की श्रृंखला जैसा छपा था.
जब 1950 के ही दशक में ये उपन्यास की तरह आया, तब भी ये ख़ासा प्रसिद्ध था. इसकी प्रसिद्धि की वजह इसके किरदारों का आम इंसानों जैसा होना भी था. यहाँ ऐसे लोग थे जो खूबसूरत और प्यारे से दिखते हैं मगर टीवी सीरियल की खलनायिका जैसे जोड़-तोड़ और राजनीति में जुटे होते हैं. ऐसे लोग भी हैं जो अपने हिसाब से किसी का भला करने निकले थे, लेकिन उनके काम से दरअसल नुकसान हो जाता है. असली रूप में सामने आते ही लम्बी दूरी की राजनीति करते दिखने वाले लोग हैं. राजनैतिक महत्वकांक्षा इंसान का क्या कर सकती है, उसपर भी ध्यान चला जाता है.
अगर आपका पुरानी फिल्मों का या गानों का शौक है तो शायद कभी मुहम्मद रफ़ी का गाया “हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गए” सुना होगा. एक और ऐसा ही अच्छा सा गाना आशा भोंसले और मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ में “अच्छा जी मैं हारी, चलो मान जाओ ना” भी था. ये सब एक ही फिल्म के गाने हैं. इसी “काला पानी” फिल्म का एक प्रसिद्ध सा मुजरा “नजर लागी राजा तोरे बंगले पे” भी हमें पसंद है. मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे और एस.डी.बर्मन का संगीत था तो सभी गाने अच्छे ही हैं. ये फिल्म “काला पानी” ए.जे.कोर्निन के इसी उपन्यास, बियॉन्ड दिस प्लेस (Beyond this Place) पर शायद 1958 में बनी थी.
एक ही जैसी कहानियों, एक से नायकों-नायिकाओं और खलनायक के चरित्रों वाली फिल्मों से बोर होने पर हम ऐसी ही कहानियों का रुख करते हैं. गुरदासपुर (पंजाब) में 26 सितम्बर, 1923 को जन्मे धरम देवदत्त पिशोरीमल आनंद की फिल्मों में कुछ तो अलग होता ही था. आज सदाबहार देवानंद का जन्मदिन भी है.