मंडी

बाज़ार समझने के लिए क्लॉक-वाइज़ (clock-wise) और एंटी क्लॉक-वाइज़ (anti clock-wise) पता होना चाहिए. अगर आप अपनी ऊँगली से इशारा क्लॉक-वाइज़ करें और कहें कि किसी चीज़ को ऐसे घुमाओ, तो आपकी बगल में खड़े आदमी को तो बिलकुल सही समझ में आएगा, लेकिन आपके सामने, यानि उल्टी तरफ खड़े व्यक्ति को वही इशारा बिलकुल ही उल्टा समझ आयेगा. बाज़ार के साथ भी ऐसा ही है. बतौर ग्राहक आपको बाज़ार जैसे दिखता है, एक विक्रेता के तौर पर वैसा नहीं दिखेगा.

विक्रेता के लिए बाज़ार में बहुत से अवरोध भी होते हैं. अर्थशास्त्र पढ़ने वाले इन्हें मार्केट एंट्री बैरियर बुलाते हैं. आसान तरीके से समझना हो तो ऐसे सोचिये कि किसी अच्छे चलते रेस्त्रां के सामने अगर कोई चाट का ठेला-खोमचा लगाने की कोशिश करे तो क्या नतीजा होगा? आसान जवाब है पीटकर-पिटवाकर भगा दिया जाएगा. वहीँ आप उसके बगल में कोई दूसरा रेस्त्रां खोलें तब क्या होगा? तब दूसरे किस्म के हथकंडे आज़माए जायेंगे. बराबर की आर्थिक स्थिति वाले को सीधा पीटा-धमकाया नहीं जा सकता ना!

पहले आपको मकान किराये पर या खरीद कर रेस्त्रां खोलने को ना मिले इसकी कोशिश होगी. उसके बाद म्युनिसिपेलिटी से सरकारी परमिशन-परमिट मिलने में दिक्कत हो इसके प्रयास किये जायेंगे. आपकी बिजली-पानी की सप्लाई को बाधित करने की कोशिश होगी. आपके लिए कच्चा माल, कामगार आसानी से उपलब्ध ना हो सकें इसका प्रयास किया जायेगा. और नीचे के स्तर पर आयें और कहीं समुदाय विशेष वाले कम्पटीशन में हों तो आपकी दुकान के आसपास की नाली खोदकर कबाड़ा किया जाएगा ताकि ग्राहक वहां ना पहुंचे. आपकी रेस्त्रां पर पुलिस के छापे और वहां कुत्ते का मीट पकड़े जाने जैसी अफवाह भी उड़ाई जा सकती है.

अब अगर समझ आ गया हो कि हाँ, बाज़ार में ऐसा होता है तो इसी को उठा कर राजनीति की मंडी में ले चलिए. वहां भी फण्ड यानी पैसा लेकर आने वाले लोगों की गिनती तो वैसी ही है जैसी बाज़ार में ग्राहकों की तयशुदा गिनती होती है. सपने-वादे भी वैसे ही बेचे जाते हैं, इसलिए बाज़ार के तमाम हथकंडे मंडी में भी चलते हैं. किसी मुद्दे पर जमा होने वाले वोट और फण्ड की गिनती, एक नए खिलाड़ी के मंडी में कूद पड़ने पर बढ़ने वाले नहीं. वो पुराने वाले दुकान के ग्राहक ही ले जाएगा तो एंट्री बैरियर ज़रूरी है.

सबसे पहला कानूनी बैरियर, यानि एक संस्था बनाना और चलाना रातों रात का खेल नहीं. बी.एच.यू. की छात्राओं को सबसे पहले इसका सामना करना होगा. ‘उन’ के पास बने बनाए झंडे हैं, जिसे लेकर ‘वो’ उतर जाएँ तो कल की तस्वीरों में ‘वो’ आपका आन्दोलन आसानी से हाईजैक कर लेंगे. लाठियां छात्राओं ने खायी होंगी, नारी अधिकार की लड़ाई का क्रेडिट ‘वो’ ले भागेंगे. यहीं कच्चे माल की सप्लाई का मामला भी आता है. रात को हुए एक नक्सल समर्थक प्रचार साहित्य की लेखिका की हत्या में ‘उन’ के पास रात से सुबह तक में सजे सजाये पोस्टर बैनर तैयार थे. आप इतनी तेजी से जुटा सकते हैं?

इन्हीं बैरियर्स में आगे चलकर बदनाम करने की कोशिशें भी आएँगी. भीड़ में ‘उन’ के किराये के गुंडे घुस आयेंगे, ‘वो’ पुलिस पर पत्थरों के साथ पेट्रोल बम फेंक देंगे. अहिंसावादी आन्दोलन के समर्थक आपसे दूर होने लगेंगे. ‘वो’ झूठे मुद्दे गढ़ेंगे, आपकी बात के बदले अपने ही कार्यकर्ताओं से मनगढ़ंत मुद्दे निकलवाएंगे. आपके असली मुद्दे, आपकी शिकायतें लोगों के सामने आएँगी ही नहीं. ये सब सिर्फ इसलिए क्योंकि प्रगतिशील मानते हैं कि नारीवाद तो ‘उन’ की बपौती है. लड़कियां खुद इस पर कैसे बात कर सकती हैं? खुद करने लगेंगी तो फिर उन्हें सेमिनार-कांफ्रेंस में मुंबई से पुणे, हवाई टिकट देकर पांच सितारा में ठहराकर हज़ारों रुपये हर स्पीच के कौन देगा?

ऐसी स्थिति चूँकि आपकी हो चली है इसलिए प्रगतिशील गिरोहों का सामना करने के लिए गर्दन घुमाइए और बनारस के बिलकुल पास के राज्य बिहार की तरफ देखिये. लड़कियों को कोई साथ जाकर पहुंचा आये, इस परंपरा का लम्बे समय में क्या नतीजा निकला था? धीरे-धीरे दूर के स्कूल-कॉलेज जाने में लड़कियां सक्षम ही नहीं रहीं. उतनी दूर कैसे जाऊं? पैदल तो काफी वक्त लगेगा. रास्ता मालूम नहीं, थकान होगी. ऐसे ही दर्जनों सवालों ने घेरकर लड़कियों की पढ़ाई लगभग नामुमकिन बना डाली. इस समस्या का इलाज करीब-करीब 1997 में नजर आना शुरू हुआ.

इस दौर में लड़कियों ने बिहार में साइकिल चलाना शुरू कर दिया. पहली बार लड़कियां साइकिल से स्कूल जाने लगीं और तब स्कूल उतनी दूर नहीं रह गया. थोड़े ही साल में सरकारों का ध्यान इस पर जाने लगा. फिर मुफ्त साइकिल वितरण की योजनायें शुरू हुईं और स्कूल की छात्राओं को साइकिल दी जाने लगी.

आज का बिहार देखें तो आपको सुबह-सुबह हजारों लड़कियां साइकिल चलाती स्कूल जाती दिखेंगी. कस्बों-गावों की मानसिकता के लिए लड़कियों का साइकिल चलाना हज़म कर लेना इतना आसान नहीं था. विरोधों को तोड़कर इसे सामाजिक स्वीकार्यता दिलाने में डेढ़ दशक लगा है. अभी भी कुछ कूढ़मगज नाक भौं सिकोड़ते ही हैं. इस डेढ़ दशक का फायदा ये हुआ है कि कल जिन्होंने एक साइकिल के लिए लड़ाई लड़ी थी, उनकी बेटियां अब आसानी से पढ़ पाएंगी.

वो कोई बुद्धिजीवी कहलाने वाली, नामीगिरामी विश्वविद्यालयों में पढ़ी, पत्रकार-न्यूज़ एंकर से व्यक्तिगत पहचान वाली लड़कियों की लड़ाई भी नहीं थी, इसलिए इसपर कुछ ख़ास लिखा भी नहीं गया, लेकिन वो लड़ी थीं, वो जीती भी थीं. आप उनसे बेशक सीख सकती हैं. छीनो इन प्रगतिशीलों से वापस अपना झंडा, आप अपनी झंडाबरदार खुद हो!

Comments

comments

LEAVE A REPLY