मौका भी है और दस्तूर भी, छेड़-छाड़ की घटना के लिए बताइये हिंदुत्व को दोषी

एक कहानी थी ‘काशी का गुंडा’ जिसमें गुंडे की सबसे बड़ी खासियत ही थी कि वो लंगोट का बड़ा पक्का था. समय बदलने के साथ-साथ बनारस के गुंडों की पहचान ही लड़कियां छेड़ना हो गया. वैसे सिर्फ बनारस पर ये इल्जाम क्यों लगाना? जिस-जिस विश्वविद्यालय में आर्ट्स, यानी कला के विषयों की पढ़ाई होती है, उन सब में एक ऐसा बॉय्ज़ हॉस्टल तो है ही जहाँ के बम चलाने, गुंडागर्दी करने और लड़की छेड़ आने के वीरतापूर्ण किस्से सुनाये जाते हों, ऐसा बॉय्ज़ हॉस्टल किस कला संकाय वाले विश्वविद्यालय में नहीं है? सिर्फ एक की बात क्यों कर रहे हैं, ज.ला.ने. में तो यौन अपराधों की जांच के लिए अलग समिति है जो जांच करने जाने पर पिट कर भी आती है.

यहाँ गौर करने लायक ये भी है कि ऐसे निंदनीय कृत्य के खिलाफ हो रहे आन्दोलन की बेरहम हत्या का सबसे आसान तरीका क्या होगा? सीधा तरीका है, उसमें वामियों को शामिल कर दो. लाइम-लाइट और कैमरे के सामने आने के चक्कर में जुटे इन टी.आर.पी. खोरों को लड़कियों की दिक्कत से क्या लेना?

भारत के श्रम कानूनों में कोई सुधार नहीं हुए, ये मज़दूर आन्दोलन खा चुके हैं. बिहार का मिथिला राज्य आन्दोलन और उसके नाम पर इकठ्ठा किये फण्ड खा चुके हैं. नारीवाद के नाम पर आंदोलनों में घुसकर ये कानूनी सुधार भी खा चुके हैं. एक विश्वविद्यालय और पचास हज़ार लोगों के बीच का आन्दोलन खाने में इन्हें कितनी देर लगेगी?

एन.डी.टी.वी. अपने मातहतों को लाकर आन्दोलन के फर्जी शूट कर रहा है, ये इल्जाम यूनिवर्सिटी की छात्राएं ही लगा रही हैं. किसी ने नाटक के लिए बाल कटवाए थे, उसके लिए कहा गया विरोध में कटवाए, उसकी पोल खुल गई. थोड़ी कसर रहती है तो जिस आदमी पर महिला छात्रावास के आगे अभद्र व्यवहार के लिए जुर्माना लग चुका हो, उसे ला कर आन्दोलन का मुखिया बना लो.

इस सब के साथ ये भी ध्यान रखना होगा कि जिन परम्पराओं में नारी को पूज्य बताया जाता है उन्हें पोंगापंथी भी घोषित करना है. प्रगतिशीलता का एक मात्र उदाहरण उनकी किताबों को जला कर ही दिया जा सकता है. ध्यान रहे वी.सी. की नियुक्ति को संघ की साज़िश भी बताना है, उसमें किसी भूतपूर्व कांग्रेसी राष्ट्रपति का कोई योगदान नहीं.

बाकी मौका भी है और दस्तूर भी, तो छेड़-छाड़ की घटना के लिए हिंदुत्व को दोषी बताइये, और आन्दोलन में समर्थन भी हिन्दुओं का ही मांगिये. लगता है अब मास्टर जी बुद्धि बेचकर सोनपापड़ी खाने की कहावत नहीं सुनाते.

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