पिछले दिनों मुंबई में अतुल तिवारी जी से मिलना हुआ. सहज, सरल व्यक्तित्व के अतुल तिवारी न केवल अपने वक्तृत्व से मन मोहते हैं बल्कि उनके पास एक ख़ूबसूरत ज़ेहन और पहली ही मुलाक़ात में में घर कर जाने वाली मुस्कान भी है. फिर बातचीत के रवां अंदाज़ का तो कहना ही क्या! देश-दुनिया से लेकर गली-मुहल्ले और नाटक-सिनेमा से लेकर कला के हर आयाम पर, हर आम-ओ-ख़ास से बात करने उनके पास बहुत कुछ है.
नफ़ासत के शहर लखनऊ से ताल्लुक रखने वाले अतुल तिवारी रंगमंच और सिनेमा में सम्मान्य और स्वीकार्य नाम हैं. अतुल जी से मेरा परिचय कुछ तीन-चार वर्ष पुराना ही है मगर पहली ही मुलाक़ात में उन्होंने ये अहसास करा दिया था कि यह मुलाक़ात केवल औपचारिक नहीं. उनका कार्यफ़लक विस्तृत है जो अब भी बदस्तूर जारी है और लगभग ढाई दशक तक फैला हुआ है.
सिनेमा में बतौर पटकथा लेखक व संवाद लेखक आपकी पहचान है और द्रोहकाल, नेताजी सुभाष चंद्र बोस : द फॉरगॉटन हीरो, मिशन कश्मीर, दशवतारम, विश्वरूपम जैसी फ़िल्में आपके खाते में दर्ज हैं. सिनेमा में जो लोग केवल चेहरे को पहचान और सफ़लता का आधार मानते हैं उनके लिए भी अतुल के पास पर्याप्त स्क्रीन स्पेस उपलब्ध है. राजू हिरानी की ‘3 इडियट्स’ के चमत्कार-बलात्कार वाले दृश्य में मंत्री जी की भूमिका और ‘पी के’ में मंदिर वाले दृश्य में पुजारी के किरदार में छोटे मगर महत्त्वपूर्ण दृश्यों में अभिनय और उनकी उपस्थिति ने दर्शकों को मुस्कुराने के भरपूर अवसर दिये हैं. वहीं लखनऊ की पृष्ठभूमि में एक छोटी बच्ची और चिड़िया की बातचीत और सम्बन्धों पर आधारित उनके द्वारा निर्देशित नाटक ‘ताऊस चमन की मैना’ ने भी भरपूर सुर्खियां बटोरी हैं. हाल ही वे तीन महीनों के लंबे ऑस्ट्रेलिया प्रवास के बाद भारत आए है. अतुल के काम को संक्षेप में समेट कर मैं मुख्य मुद्दे पर आना चाहता हूँ और वह है उनका नया और अपनी तरह का काम जो कि संग्रहालय की परिकल्पनाओं से जुड़ा है.
इन दिनों देश में विकास का माहौल है. हर शहर और गाँव-गली में विकास के नाम पर सड़क, पेयजल, यातायात, मोबाइल नेटवर्क आदि-आदि का काम चल रहा है. अब शहर, शहर भी नहीं लगता. एक जैसे साइन बोर्ड्स, मॉल, बिल्डिंगों और सुविधा के तमाम साधनों से सम्पन्न लोगों के कारण पता ही नहीं चलता कि फलां शहर फलां शहर से कैसे जुदा है. बात भीतरी हलचल की हो रही और यह भी नहीं कि कोई तोहमत है.
यह सब सुविधाएं ज़रूरी हैं जिस पर भविष्य की तस्वीर टिकी है. पर इस भविष्य का रास्ता कहीं किसी अतीत से होकर भी गुज़रता है. और मेरी रुचि उसी पर बात करने की है. पिछले दिनों विकास की इसी एक महत्त्वपूर्ण योजना स्मार्ट सिटी को लेकर भोपाल स्थित दुष्यंत कुमार के घर और संग्रहालय के लिए देश भर के लोगों में बहस छिड़ी. और फिर सरकार ने भी दुष्यंत कुमार की याद में संग्रहालय बनाने की बात की.
बहरहाल, विकास की बात इसलिए कि इसके लिए पहले से बने बनाए किसी ढांचे को तोड़ना होता है. यानि किसी पुरानी चीज़ पर ही नया कुछ आकार लेता है. यह भी एक मुद्दा है जिससे हमारे इमोशन जुड़े होते हैं और फिर संग्रहालय इसलिए भी ज़रूरी होते हैं कि वहाँ न केवल पुरानी चीज़ों को संग्रहीत किया जाता है बल्कि एक तरह से गुज़रा समय ही संग्रह कर लिया जाता है. ऐसे कई उदाहरण हैं जहां समय पर चीज़ों को इकट्ठा कर लिया गया और आज वे अपने भरपूर गौरव के साथ उपस्थित हैं. अतुल तिवारी पिछले कुछ वर्षों से संग्रहालय की परिकल्पनाओं से जुड़े रहे हैं.
यह इसलिए भी अनूठा है क्योंकि जहां एक ओर नई पीढ़ी पर अपनी विरासत से संवेदनशील होने का ठप्पा जड़ दिया जाता है वहीं सरकार और तंत्र को एकतरफ़ा कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है. इसी कड़ी को अतुल तिवारी बहुत सलीके और संवेदनशीलता से जोड़ने का काम कर रहे हैं. मुलाक़ात में उन्होंने हालिया मुंबई के नेहरू सेंटर में बने ध्वनि एवं श्रवण दीर्घा के उदघाटन अवसर का ज़िक्र किया. अतुल पिछले सालों में देश के कई बड़े और महत्त्वपूर्ण संग्रहालयों जैसे गांधीनगर स्थित दांडी कुटीर, करतारपुर (पंजाब) स्थित जंग-ए-आज़ादी संग्रहालय आदि में दर्शकों को दिखाई जाने वाली ऑडियो-विज्युअल फिल्मों की व्यवस्थित और मुकम्मल स्क्रिप्ट तैयार कर चुके हैं. हाल ही जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने दांडी कुटीर का भ्रमण भी किया है. दांडी संग्रहालय महात्मा गांधी के आदर्शों पर स्थापित देश का इकलौता और सबसे बड़ा संग्रहालय है. ज़ाहिर है यहाँ इकट्ठे किए गए संसाधन और दृश्य-श्रव्य की जानकारी बहुत ठोस और तथ्यों की खोज-पड़ताल पर आधारित है.
ऐसे में अतुल जैसे सुलझे और पढे-लिखे नाम के होने से न केवल एक मुकम्मल इतिहास हम तक पहुंचता है बल्कि वो अपने मूल रूप में सुरक्षित भी रहता है. इन फ़िल्मों में बहुत ही पुराने और दुर्लभ विडियो फुटेज हैं, और इसे आज की तकनीक के साथ दर्शाया गया है. 3-डी, मल्टीमीडिया मैपिंग, होलोग्राफी और 360 डिग्री प्रोजेक्शन के साथ बनी यह फ़िल्में गांधी जी की जीवनी को दर्शाती हैं. तकनीक और तथ्य के मेलजोल के साथ कंटेट का कितना और क्या महत्त्व है, और उसे लिखने की क्या दक्षता होगी इसका ठीक-ठीक आकलन कर पाना भी मुश्किल है. ऐसे में एक लेखक के रूप में खुद अतुल की भी अपनी मुश्किलें होंगी. इसी तरह की अन्य गंभीर और सुचिन्तित परिकल्पनाओं के वे भागीदार रहे हैं. अपनी शख़्सियत की तरह ही उनके लिए संग्रहालय की परिकल्पना में चीजों के संग्रहण और प्रदर्शन के साथ ही उनके रचनात्मक प्रयोग की भी जगह है जहां से दर्शक न केवल स्मृति बल्कि विचार भी लेकर लौटे. उनकी यह यात्रा यहीं समाप्त नहीं होती इसमें देश भर में घुमंतू शैली की कई एक्ग्ज़िबिशन और शहरों के इतिहास आधारित लाइट-साउंड शोज़ की भी एक एक विस्तृत शृंखला है.
यह बात ही कितनी रोचक है कि पटकथा लेखन के पेशे की तैयारियों में लगातार लिखते-पढ़ते, घूमते और जानकारियाँ हासिल करते हुए अतुल स्वयं की जिज्ञासाओं को कितनी तरह से आत्मसात करते चलते हैं. देश-विदेश में पटकथा लेखन की कार्यशालाओं के दौरों और नाटक-सिनेमा से जुड़े कई महत्त्वपूर्ण विभागों में हस्तक्षेप रखते हुए, पटकथा लेखन व नाट्य निर्देशन सहित तमाम व्यस्तताओं से वे घिरे रहते हैं. यूं वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और फिर जर्मनी से थिएटर की बाकायदा पढ़ाई कर चुके हैं, उस पर दुनिया भर की किताबों, कहानियों के अध्ययन और जन्मजात लेखकीय प्रतिभा से वे युवाओं के लिए भी बिलकुल नए तरह के ही लेखकीय माध्यम को खोज लाये. कौन कहता है सिनेमा लिखने के लिए पढ़ने की ज़रूरत नहीं? और फिर इतने सलीके और इतने सारे काम के बाद भी वही ज़िंदादिली, चेहरे पर मुस्कान, नफ़ासत भरे बोल और आज के समय में बिलकुल ही चलन से बाहर हो चुके ठसक भरे ठहाके के साथ आप उन्हें अपने आसपास पाएंगे. मौक़ा तो यही है कि जिस शहर में भी जहां भी वे दिख जाएँ, आप उनसे मिलने-बतियाने का मौक़ा न चूकें. हाँ, बाक़ी उनके नाटक और फ़िल्में तो देख ही सकते हैं!