आपके आसपास का एक कट्टर से कट्टर हिन्दू क्या सोचता है? यही कि देश में हिन्दू धर्म किसी तरह बचा रहे. शांति बनी रहे, सुख समृद्धि हो, देश प्रगति करे क्योंकि देश है तो धर्म है… और दूसरे सारे धर्म भी हमारे साथ साथ सहअस्तित्व में रहें.
जब कि एक लिबरल हिन्दू का क्या अर्थ है? उसके लिए हिन्दू धर्म का कोई अर्थ नहीं है. उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हिन्दू हैं या नहीं रहें. धर्म कोई खाने को देता है क्या? नाम के हिन्दू हैं, बाप दादे हिन्दू थे इसलिए हिन्दू हैं, वरना हिन्दू होने और नहीं होने में फर्क ही क्या है?
इसी का एक सबसेट है सेक्युलर हिन्दू, जो घोर हिन्दू विरोधी हैं… इन्हें हिन्दू धर्म में सारी बुराइयाँ दिखाई देती हैं… और उन बुराइयों को मिटाने का उनका एक ही तरीका है – हिन्दू धर्म को मिटा देना. यह वर्ग लगभग कनवर्टेड है, या कन्वर्शन की कगार पर है. इसे कनवर्टेड मान भी लें तो बचे खुचे हिंदुओं में खुद को सहजता से हिन्दू मानने वाले हिन्दू 10-20% से ज्यादा नहीं हैं.
दूसरी ओर इस्लाम को देखिए… लिबरल से लिबरल मुसलमान के लिए अपने मुस्लिम होने में कोई भी दुविधा नहीं है. अवसर पड़ने पर दूसरे मुसलमानों की उचित या अनुचित मांगों के लिए भी खड़े होने में उसे कोई दुविधा नहीं है. अपनी उदारता के सबसे जबरदस्त दौरे पड़ने पर वह हिंदुओं के साथ सह-अस्तित्व को स्वीकार कर सकता है, पर बिना मुस्लिम हितों के साथ कोई समझौता किये.
अगर मुसलमानों की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक सुप्रीमेसी सुनिश्चित हो तो उसे हिंदुओं के अस्तित्व से कोई ज्यादा शिकायत नहीं है… इस्लाम के सन्दर्भ में यह उदारता का चरम बिंदु है और किसी भी परिभाषा से इस दायरे में 10-20% से ज्यादा मुस्लिम नहीं आते. यानि कट्टर से कट्टर हिन्दू, लिबरल से लिबरल मुसलमान के मुश्किल से समकक्ष बैठता है.
वहीं कट्टर या सिर्फ सामान्य मुसलमान, हिंदुओं को नापसंद करने से लेकर उन्हें घृणा करने से आगे उन्हें नष्ट करने में सक्रिय भागीदारी से होते हुए उनकी हत्या और बलात्कार को पवित्र धार्मिक ड्यूटी समझने के स्पेक्ट्रम में फैला है… और इस स्पेक्ट्रम में वह कहाँ फिट होगा, यह देश काल की स्थितियों पर निर्भर करता है.
हिंदुओं के लिए सबसे बड़ा लक्ष्य अधिक से अधिक क्या होता है – तात्कालिक सर्वाइवल. कट्टर से कट्टर हिन्दू क्या बोलता है – अरे, बीस करोड़ को मार तो नहीं सकते ना… 1000 सालों में भी मुसलमान इस देश से कहीं चला थोड़े ना जाएगा… इन्हें कंट्रोल में रखना है, जैसा मोदी ने गुजरात में रखा है…
यह लक्ष्य अधिक से अधिक हमारा सर्वाइवल सुनिश्चित करता है, वह भी सिर्फ एक पीढ़ी तक, वह भी सिर्फ अपेक्षाकृत सुरक्षित हिन्दू जनसंख्या बहुल इलाके में. रणनीतिक सोच की तो शुरुआत भी नहीं होती.
वहीं मुसलमान के लक्ष्य स्पष्ट हैं – हिंदुओं का नाश, हिंदुस्तान पर कब्ज़ा और इस्लामिक हुकूमत. कट्टर मुस्लिमों के लिए जहाँ यह जीवन का लक्ष्य है, लिबरल से लिबरल मुस्लिम भी इस लक्ष्य के रास्ते में खड़ा नहीं होता.
यानि खेल की भाषा में बोलें तो मुस्लिम जीत के लिए खेल रहा है, जहाँ खराब से खराब अवस्था में मैच ड्रॉ छूटता है… वहीं हिन्दू की बड़ी से बड़ी महत्वाकांक्षा ड्रॉ कराना है… हिन्दू ड्रॉ के लिए ही खेल रहा है, वह भी आधी-चौथाई टीम के साथ…
तीन चौथाई टीम को तो पता ही नहीं है कि मैच चल रहा है, खेल के नियम क्या हैं, गोलपोस्ट किधर है और स्कोरबोर्ड पर क्या लिखा है…
जागें, जीत के लिए खेलें, जियें…