सुदर्शन की बाबा भारती और डाकू खड्गसिंह की कहानी ‘हार की जीत’ बहुतांश लोगों ने पढ़ी ही होगी. कई सालों बाद आज इसकी समसामयिक उत्तरकथा (सीक्वल – sequel) लिखना जरूरी हुआ है. मूल कहानी का सारांश पहले पढ़िए, बाद में इसके अगले समसामयिक एपिसोड को पढ़िएगा.
बाबा भारती के पास एक बड़ा सुंदर बड़ा बलवान घोड़ा था. उसके जोड़ का घोड़ा सारे इलाके में न था. बाबा भारती उसे ‘सुल्तान’ कह कर पुकारते थे. खड़गसिंह उस इलाके का प्रसिद्ध डाकू था. सुल्तान की कीर्ति उसके कानों तक भी पहुँची. उसका हृदय उसे देखने के लिए अधीर हो उठा. वह एक दिन दोपहर के समय बाबा भारती के पास पहुँच गया. खड़गसिंह के कहने पर बाबा भारती ने उसे घोड़ा दिखाया. उसने सैकड़ों घोड़े देखे थे, परन्तु ऐसा बाँका घोड़ा उसकी आँखों से कभी न गुजरा था. सोचने लगा, भाग्य की बात है. ऐसा घोड़ा खड़गसिंह के पास होना चाहिए था. इस साधु को ऐसी चीज़ों से क्या लाभ? जाते-जाते उसने कहा, “बाबाजी, मैं यह घोड़ा आपके पास न रहने दूँगा.”
कई मास तक बाबा भारती परेशान रहे पर वह न आया. फिर बाबा भारती कुछ असावधान हो गए. एक शाम बाबा भारती सुल्तान की पीठ पर सवार होकर घूमने जा रहे थे. तभी एक अपाहिज ने आवाज़ देकर उन्हें रोका और घोड़े पर बिठाकर वैद्य के पास ले चलने की याचना की. बाबा भारती ने घोड़े से उतरकर अपाहिज को घोड़े पर सवार किया और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे. सहसा एक झटके लगाम हाथ से छूट गई. वह अपाहिज घोड़े की पीठ पर तनकर बैठा है और घोड़े को दौड़ाए लिए जा रहा है. वह अपाहिज डाकू खड़गसिंह था.
बाबा भारती ने उसे रोका तो खडगसिंह ने रुक कर कहा “बाबाजी, यह घोड़ा अब न दूँगा.” बाबा ने कहा, मैं यह घोड़ा लौटाने को नहीं कह रहा, मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना.” खडगसिंह ने पूछा, “बाबाजी इसमें आपको क्या डर है?” बाबा भारती ने उत्तर दिया, “लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे.”
फिर खड्ग सिंह को पश्चाताप होता है और वह रात के अँधेरे में बाबा के आश्रम के अस्तबल में सुलतान को वापस बाँध आता है. सुबह अपनी आदत अनुसार बाबा अस्तबल की तरफ चल देते हैं, फिर उन्हें याद आता है कि घोड़ा तो खड्ग सिंह ने छुड़ा लिया था. वे वापस पलट जाते हैं कि घोड़े के हिनहिनाने की आवाज़ आती है. बाबा भारती आश्चर्य और प्रसन्नता से दौड़ते हुए अंदर घुसते हैं और अपने प्यारे घोड़े के गले से लिपटकर इस प्रकार रोने लगते हैं. बार-बार उसकी पीठपर हाथ फेरते, बार-बार उसके मुँह पर थपकियाँ देते. फिर वे संतोष से बोले, “अब कोई दीन-दुखियों से मुँह न मोड़ेगा.”
अब इसका सीक्वल –
डाकू खड्गसिंह के स्वभाव में हुए परिवर्तन से बाबा भारती अत्यधिक प्रसन्न हुए. दूसरे दिन भी घोड़े को अस्तबल से निकालकर सुबह की सैर पर निकले. वहाँ रास्ते में एक विकलांग सा दिखता व्यक्ति मिला जिसके साथ उसकी कृशकाय, कृष्णवस्त्राच्छादिता स्त्री और आधा दर्जन कुपोषित संताने थी. उसने बाबा को कहा, “बाबा मुझसे चला नहीं जाता जरा घोड़े पे बैठा लो”. बाबा उतरे और उसे बैठा लिया. थोड़ा रास्ता चले तो अचानक शक्ति का जैसे संचार हुआ हो, उसकी स्त्री और बच्चे भी कूदकर घोड़े पे बैठे और घोड़े को भगाया.
बाबा का मुंह खुला ही रह गया. चिल्ला कर पूछा “भाई तेरा नाम तो बताते जाना”. उसने चिल्लाकर ही अपना नाम बताया, “मेरा नाम ठरकुद्दीन है”.
बाबा अपना सा मुंह ले कर लौटे. दूसरे दिन बाबा फिर अस्तबल में गए. उनके पास एक और घोडा था. वहीं रास्ते में उन्हें कल जैसा ही एक और परिवार मिला. आज उन्होने नाम पूछा. व्यक्ति ने अपना नाम ठरकुल्ला बताया. घोड़े पर बिठाने की दीन मुद्रा से विनती की.
बाबा का दिल पसीज आया लेकिन दिल कड़ा करने की कोशिश करते हुए बोले – “मियां ठरकुल्ला जरा यह तो बताइये, आप किसी ठरकुद्दीन को जानते हैं”? ठरकुल्ला ने जवाब दिया, “मेरा बड़ा भाई है”.
बाबा घोड़े से उतरे नहीं, बोले “कल का अनुभव बुरा रहा”, और आगे बढ़ ही रहे थे तो अचानक बाजू की झाड़ी में से कुछ बुद्धिजीवी से दिखते झोलाछाप लोगों का झुंड प्रकट हुआ. उन्होने बाबा को बहुत बुरा भला कहा और कहा कि “आप सांप्रदायिक हैं, इस लाचार ठरकुल्ला और उसके परिवार का आप के घोड़े पर पहला हक है. हम आप को दान सहाय देने वाले लोगों को जाकर कहेंगे आप एक सांप्रदायिक व्यक्ति हैं जो दीन की मदद नहीं करता. फिर आप भूखे मरेंगे”.
बाबा सहम गए. घोड़े से उतर गए और विजयी मुद्रा से ठरकुल्ला उनका घोडा ले गया.
दूसरे दिन भोरे-भोरे बाबा को कुटिया के दरवाजे पर ज़ोर की ठक-ठक सुनाई दी. खोला तो सामने ठरकुल्ला और ठरकुद्दीन सा दिखता एक व्यक्ति खड़ा था. उसके पीछे ठरकुद्दीन और ठरकुल्ला भी खड़े थे. उनके परिवार भी थे, और भी चार-पाँच काले तिरपाल में ढँकी स्त्रियाँ थी और बच्चों का दाँत पीसता झुंड था. आगे जो आदमी था उसके हाथ में एक चमकती तलवार थी.
आँखें मलते मलते डरे से आवाज में बाबा ने पूछा “क्या चाहिए भाई? कौन हो? अब तो मेरे पास कोई घोडा भी नहीं बचा”.
आगंतुक ठहाका लगाकर हंसा. बोला “मेरा नाम सैफुल ठरक है. तेरे घोड़े हम लाये हैं. अब वे यही रहेंगे, हमारे साथ, बस तू यहाँ नहीं रहेगा. कहीं भी जंगल में रह ले, तू तो अकेला जीव है, हम बाल बच्चे वाले लोग हैं, तेरे संसाधनों पर हमारा हक है. अब चला जा नहीं तो ये तलवार देख ही रहा है. अब आज से ये तेरा महागुण नोएडाश्रम ठरकुल मोहल्ला कहलाएगा”.
धुंधली निगाहों से अपने घोड़ों को देखते हुए बाबा भारी पाँवों से आश्रम से बाहर निकले ही थे तो बाजू के झाड़ी से खड्गसिंह अपने टोले के साथ प्रकट हुआ. जयकारे लगाते वे सभी ठरक कुनबे पर टूट पड़े, किसी को नहीं छोड़ा. छोड़ने जैसी बात भी नहीं थी क्योंकि महिला और बच्चे भी न जाने कहाँ से शस्त्र निकालकर उनसे लड़ पड़े थे. लिहाज करते तो मारे जाने की स्थिति थी.
अचानक झाड़ी में से गड़बड़ सुनाई दी. खड्गसिंह और साथी छुप गए. वही झोलाछापियों का झुंड प्रकट हुआ और चिल्लाने लगा – “नरसंहार, मासूमों का कत्ल किया है तूने बाबा, तूने genocide की है, हम तुम्हें एक्सपोज़ करेंगे, अब तेरी जिंदगी नर्क बन जाएगी”.
ये कहकर सभी झोलछापिए वहाँ से निकलने लगे. इस पर खड्गसिंह और साथी बाहर निकले और जाते झोलाछापियों को भाले और बाणों से बेध दिया.
उसके बाद बाबा भारती वहाँ शांति से रहे. खड्गसिंह, कभी मन करता तो आता और घोड़ा ले कर सैर कर आता. बाबा भी खुशी से दे देते.
Very nice and good
Nice story