वाष्प, ऊमस, मेघों
के मारे दशा बुरी है जैसे
पारिजात गुँथकर सब
संग पसीज गए हो…
गौड़ जनपद के नौकाघर
लगते लगते बनारस से चले
स्टीमर में देर हो गई..
दुर्गा देवी अपने
दो बेटों कार्तिक व
विनायक के संग, छोटी भगिनी
सरस्वती बीच बाट
बीन बजाकर थोड़ा हृदय
लगाए रख रही थी…
“माँ, गौडुम्ब मिलेगा? गौडुम्बों
को खाकर ही ऊमस
से उन्मुक्ति हो सकती है.”
ढेर जल पर डोलती
नाव पर जब हाथियों के टोले
जैसे मेघ घिरें हो’
ढाई मास से बरसात न
रुकी हो तब गौडुम्ब
कहाँ से हो!
ढुंढा, चूड़ा, लवन,
गुड़ खा यात्रा कटी…
हावड़ा में भीड़भड़क्का
भीषण,
बक्सें, लोटा, छाते और गहने गिन-संभाल
उतारना..
फिर उसके
पश्चात् स्नान, दर्पण, सब
श्रृंगार…
तब मत्स्य और भात का भोज…
एड़ी और अंगुली मध्य स्थान
जो है वह बहुत दुख आया है,
अबेर तक ठाढ़ी
कलकत्ते की भूमि देखने का
यत्न करती,
कार्तिक को तल देना लूची और चाप,
“मेरा कार्तिक मद्रास चला गया.
फिर लौटा न
कभी मुख तक दिखाने के लिए.. निर्मोही निकला.”
(भगवान को भी यात्रा में कष्ट होता है. भगवान के परिवार में भी क्लेश लगे रहते हैं, उनको भी मोह-माया, सुख और दुःख होते हैं)
*गौडुम्ब- तरबूज
*ढुंढा- गुड़ से बाँधा गया लावे का लड्डू होते