कितना अज़ीब है न भारत में करोड़ों लोग शादी करते हैं, उनके बच्चे होते हैं, माता पिता होते हैं. शादी के पहले कुंडली मिलान होता होता है, धूमधाम होती है लेकिन करोड़ों स्त्री, पुरुष और करोड़ों मासूम बच्चों के जीवन पर बेहद गहरा प्रभाव डालने वाले इस रिश्ते पर किसी भी जोड़े को कोई वैज्ञानिक नसीहत, परामर्श, काउंसलिंग नहीं मिलती.
एक ऐसे बच्चे जिसे तैरना नहीं आता और उसे पानी में फेंक दिया जाये तो वो कहीं भी, कुछ भी हाथ मारता रहता है और तैर पाया तो ठीक, वरना डूब जाता है. जबकि कितना आसान था उसे थोड़ा सा सिखा देते तैरना फिर फेंकते. या जब डूब रहा था तो सपोर्ट दे देते.
खासकर conflict, द्वन्द और विरोधाभास होने पर आजीवन ये जोड़े लड़ते, दुखी होते जीवन बिता देते हैं. सोचा करोड़ों लोगों पर इतना प्रभाव डालने वाले इस महत्वपूर्ण विषय को चुनूँ.
शादियों में अलगाव के कारणों में धोखा, व्यसन, सास बहु के झगड़े, पैसों की कमी, वैचारिक मतभेद जैसे कारण आपने बहुत सुने होंगे. लेकिन सबसे बड़ा कारण है compatibility… सामंजस्य… का न होना. बाकी सारी बातें इस सामंजस्य के न होने के लक्षणमात्र हैं. दो बेहद अच्छे व्यक्ति अलग-अलग बेहद अच्छे होते हुए भी आपस में compatible न हों, यह संभव है.
और इस सामंजस्य के न होने की एक सबसे बड़ी वज़ह किसी एक साथी का आधिपत्य और अपना नियंत्रण दूसरे पर चाहने वाला होना है. इसे मनोवैज्ञानिक भाषा में कंट्रोलिंग पार्टनर कहते हैं. कंट्रोलिंग पार्टनर के अपने साथी को प्यार करने का रूप ही साथी पर अपना सम्पूर्ण नियंत्रण रखना होता है.
साथी का खान पान, कपड़े, व्यवसाय, पैसे, घूमने जाने की ज़गह, किससे और कितनी दोस्ती हो, बच्चों के नाम, स्कूल, घर की दीवारों का कलर, बग़ीचे में कौन से पौधे लगाने हैं, घर के किस कर्मचारी को रखना है और किसे निकालना है, जैसे अनगिनत छोटे-बड़े रोज़मर्रा के निर्णयों में कंट्रोलिंग पार्टनर अपनी सोच और निर्णयों का सौ प्रतिशत क्रियान्वन चाहते हैं.
ओपिनियन और चॉइस रखना बुरा नहीं, लेकिन मुश्किल तब है जब हर हाल में मनवाने के लिए विभिन्न तरह के तौर तरीके और दबाव डाले जाएं. रहन सहन, खान पान में बदलाव और नियंत्रण चाहा जाए. ओपिनियन, सलाह तक न हो कर ज़बरदस्ती मनवाने के लिए हो.
मैरिज काउंसलिंग करने वाली क्रिस्टिन कहती हैं कि “मज़े की बात यह होती है कि कंट्रोलिंग पार्टनर में अपने इस व्यव्हार के प्रति आत्मज्ञान नहीं होता और वे उल्टा खुद को कंट्रोल्ड (नियंत्रित किये जाने वाला) मान रहे होते हैं.”
कैसे? उनके इस कथन को समझाऊंगा… कुछ देर में.
कैसे पहचानें कंट्रोलिंग साथी को या स्वयं को यदि आप यह हैं तो :
कंट्रोलिंग पार्टनर अपनी हर बात मनवाने और हर बात में अपना नियंत्रण हासिल करने के लिए बेहद फोकस्ड होते हैं और इसके लिए कई तरह के तरीके अपनाते हैं. कुल मिला कर वे ‘साथी का रिश्ता’ न चाह कर ‘जनरल और सैनिक का रिश्ता’ चाहते हैं.
जैसे कंट्रोलिंग पार्टनर तब तक अच्छा व्यव्हार करते हैं जब तक कि उनकी बात मानी गयी. क्योंकि 100 प्रतिशत औरों के हिसाब से जीवन जीना किसी के लिए भी कठिन ही नहीं अंसभव है, लेकिन कंट्रोलिंग पार्टनर बात न माने जाने की गुंजाइश ही नहीं रखते.
उदाहरण के तौर पर यदि उन्होंने कहा था सूट नहीं पहनना और आपने पहन लिया तो वे काफी कड़ी भावनात्मक रिएक्शन देते हैं. यदि उन्होंने कहा बुधवार को कोई चिकन नहीं खायेगा और आपने दोस्तों के साथ खा लिया तो आपकी मानसिक शांति गयी. आप विलेन हो गए.
बात मनवाने के तौर तरीकों (tactics) में
चीखना चिल्लाना, 3 दिन तक बात न करना, रोना जैसी सज़ाएं शामिल हो सकती हैं. धीमे-धीमे यह व्यवहार तलाक की धमकी, ऑफिस में बदनाम करने, शिकायत करने की धमकी तक जा पंहुचता है. ये साथी 100 प्रतिशत submission चाहते हैं.
वे अपनी बात मनवाने के लिए ‘रिवॉर्ड एंड पनिशमेंट’ के सिद्धांत पर चलते हैं. जैसे ही बात मान ली गयी बेहद खुश हो जाते हैं. प्यार करने लगते हैं. साथी को किसी रूप में पुरस्कृत करना चाहते हैं.
लेकिन यह रोज़ाना का जीवन हो जाने से वे खुद भी बहुत बार दुखी होते हैं, झगड़ा करते हैं और अपने जीवनसाथी की स्वतंत्रता, उसका अपना व्यक्तित्व छीन उसके भीतर अकेलापन, निराशा, नाराज़गी और विद्रोह भर देते हैं.
कंट्रोलिंग पार्टनर अपने साथी की पल-पल की जानकारी चाहते हैं, इसलिए उसकी जासूसी करते रहते हैं.
साथ ही वे खुद को कण्ट्रोल करने वाला नहीं वरन् कंट्रोल किया जाने वाला महसूस करते हैं. क्योंकि दिन भर में ऐसी कुछ बातें हो ही सकती हैं ज़हाँ उनके साथी ने अपना जीवन अपने हिसाब से जिया हो. अपने अनुसार कोई छोटा या बड़ा निर्णय लिया हो. ऐसे में कंट्रोलिंग पार्टनर का मस्तिष्क उसे यह सन्देश देता है कि देखो मैं कितना केअर करता या करती हूँ लेकिन यह मेरी नहीं अपनी चलाता या चलाती है.
पुरुष और महिला में से कौन होता है ज़्यादा कंट्रोलिंग :
इस पर तो बहुत शोध हुआ है. नैसर्गिक रूप से दोनों में ही बराबर संख्या होती है कंट्रोलिंग साथी की. लेकिन धार्मिक, आर्थिक स्वावलंबन एवं सांस्कृतिक वज़हों से भारत जैसे देशों में कंट्रोलिंग पार्टनर के रूप में पुरुष ज़्यादा संख्या में पाये जाते हैं. इसे सामाजिक मान्यता भी हासिल होती है. लेकिन आत्मनिर्भर होती महिलाओं में प्राकृतिक रूप से मौजूद कंट्रोलिंग व्यवहार तेज़ी से परिलक्षित होना शुरू हुआ है. इसलिए इस द्वन्द में काफी इज़ाफ़ा हुआ है.
क्या नुकसान हैं :
कंट्रोलिंग पार्टनर का व्यवहार यदि वो आत्मावलोकन कर सके तो बहुत से नुकसान ले कर आता है रिश्ते में. दरअसल व्यक्ति, समाज या राष्ट्र प्राकृतिक रूप से ही नियंत्रित होने (गुलाम होने) का मूक या हिंसक विरोध करते रहे हैं. मानवीय इतिहास गवाह है कि ज़हाँ गुलामी होगी वहां विद्रोह सुलगेगा.
गुलाम सा जीवन जीते दूसरे साथी में धीमे-धीमे नाराज़गी पनपती जाती है. और रिसर्च कहती हैं निम्न व्यव्हार के रूप में परिलक्षित हो सकती हैं.
1. नाराज़गी. साथी के प्रति प्यार का ख़त्म होना
2. अवसाद. depression… यहाँ तक कि सुसाइड
3. विद्रोह, जो कि विवाहेत्तर सम्बन्ध, नशा, हिंसा का रूप ले सकता है.
4. अलगाव
5. बराबरी से लड़ना और हर निर्णय मानना बंद करना.
क्या करें :
उपाय कोई एक नहीं और आसान नहीं. क्योंकि आत्मावलोकन और आत्मज्ञान न होने की वज़ह से इन जीवनसाथी का व्यव्हार बदलना बड़ा मुश्किल है. इन जीवनसाथी में अदम्य, अवचेतन इच्छा दूसरे पर नियंत्रण की होती है. लेकिन यदि प्यार है साथी से, बच्चे हैं तो हल भी ढूंढना होंगे.
रिसर्च कहती हैं कि पहला उपाय कभी भी खुद एग्रेसिव न हों. अपशब्द न कहें, वो कितना भी आपको प्रोवोक करें… तब भी. और यही गलती कर बैठते हैं लोग. ठीक उस बच्चे की तरह छटपटाते हैं जिसे तैरना नहीं आता. जैसा रिफ्लेक्स में समझ आता है हाथ चला देते हैं.
कंट्रोलिंग पार्टनर की हर वक़्त कोशिश होती है आपको आत्मग्लानि से भर देने की क्योंकि आत्मग्लानि आत्मसमर्पण का पहला कदम है. आप अपने जीवनसाथी को अपशब्द कह देंगे, फिर वो इन शब्दों को पकड़ कर आपको वर्षों तक उलाहना देंगे, अपराधबोध महसूस करवाएंगे और साबित कर देंगे कि देखो आप गलत थे.
बेहतर तरीका है, स्वयं कुछ निर्णय लेना शुरू करें. स्वयं के, बच्चों के और अपने जीवन के. आपके साथी के निर्णय न लें. और उन निर्णयों पर विनम्रता से दृढ रहें बशर्ते कि निर्णय तार्किक रूप से सही हों.
बात करें और बताएं कि तुम्हारा यह व्यव्हार मुझे अकेला और दुःखी बना रहा है.
असर न दिखने पर एक कॉउंसलर की मदद लेना अच्छा निर्णय होगा.
भारत में शादी की काउन्सलिंग वर्कशॉप्स और अच्छे काउंसलिंग सेंटर नहीं हैं. हैं भी तो गिने चुने. लेकिन शोध कहते हैं, 70 से 80 प्रतिशत शादियों को इनसे लाभ मिल सकता है. जीवन बदल सकता है. कायदे से शादी के पहले विभिन्न मनोवैज्ञानिक पहलुओं को बताना अच्छा होता है. ऐसी कार्यशालाएं होनी चाहिए.
कुछ रिसर्च ने तो कहा “मानवीय मस्तिष्क बहुत लंबे चलने वाले रिश्तों के लिए प्रोग्राम्ड ही नहीं. और जीवन भर का साथ प्राकृतिक न हो कर मनुष्य द्वारा निर्मित व्यवस्था है”.
ऐसे में और भी आवश्यक है कि ऊपरी प्रयास किये जाएं आजीवन एक दूजे के बेहतर साथी बनने के.
दो धागे उलझ गए हों बुरी तरह तो कोई और चाहिए गाँठ खोलने. धागे खुद कोशिश करेंगे तो उलझते ही जाएंगे.
मेरा यह लेख यदि किसी के भी काम आ सकता है, तो बहुत खुशी होगी. शेयर करना चाहें तो भी खुशी होगी.
बहुत सही बात लिखी सर! इन रूढ़ियों में मगर काउंसिलिंग शब्द को समझे कौन?